असली शिव सेना कौन-सी

punjabkesari.in Tuesday, Feb 28, 2023 - 06:10 AM (IST)

17 फरवरी  को भारत के चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे गुट को शिवसेना के रूप में मान्यता दी और आदेश दिया कि पार्टी का नाम ‘शिवसेना’ होगा और धनुष तथा तीर का प्रतीक इसके द्वारा बनाए रखा जाना चाहिए। फैसले पर दोनों गुटों की प्रतिक्रिया उम्मीद के मुताबिक रही। जहां एक ओर उल्लासपूर्ण जश्न तो दूसरी तरफ आक्रोषित असंतोष रहा। उद्धव ठाकरे ने चुनाव आयोग को ‘केंद्र का गुलाम’ कह डाला जबकि उनके सांसद ने आरोप लगाया है कि पार्टी के नाम और चुनाव चिन्ह को खरीदने के लिए 2000 करोड़ रुपए का सौदा किया गया था। यह आरोप दुर्भाग्यपूर्ण है।

पिछले वर्ष अक्तूबर महीने में चुनाव आयोग ने एक अंतरिम आदेश के तहत धनुष और तीर के प्रतीक को फ्रीज कर दिया और अस्थायी प्रतीकों के रूप में ठाकरे गुट को ‘ज्वलंत मिशाल’ और शिंदे गुट को ‘दो तलवारें और ढाल’ आबंटित किया था। दो गुटों को अस्थायी नाम भी दे दिए गए-शिवसेना (उद्धव बाला साहेब ठाकरे) और ‘बाला साहेबंची शिवसेना’। हालांकि उद्धव गुट को केवल चिंचवाड़ और कस्बा पेट विधानसभा क्षेत्रों में चल रहे उपचुनाव तक ही एक ही प्रतीक और पार्टी के नाम का उपयोग करने की अनुमति दी गई है।

कई पर्यवेक्षकों और टिप्पणीकारों की सहमति से मेरा भी यह मानना है कि यह बेहतर होता यदि चुनाव आयोग जिसने अपने फैसले पर पहुंचने में 8 माह का समय लिया, कुछ और दिनों का इंतजार करता क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही 16 के खिलाफ अयोग्यता का मामला सूचीबद्ध कर दिया था। शिंदे गुट के विधायकों की सुनवाई जो 21 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने की थी उसका मुख्य मामले पर गंभीर असर पड़ सकता है।

उस समय क्या होगा जब वह डिप्टी स्पीकर द्वारा 16 विधायकों की अयोग्यता को वैद्य पाता है? यह समीकरण और संख्या के खेल को पूरी तरह से बदल सकता है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि प्रतीक आदेश 1968 की धारा 15 क्या कहती है। ‘‘जब आयोग अपने कब्जे में जानकारी पर संतुष्ट हो जाता है कि किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के प्रतिद्वंद्वी वर्ग या समूह जिनमें से प्रत्येक उस पार्टी का दावा करता है तो आयोग यह तय कर सकता है कि ऐसा प्रतिद्वंद्वी वर्ग या समूह मान्यता प्राप्त पार्टी है और आयोग का निर्णय उस पर बाध्यकारी होगा।

इस धारा के तहत शक्ति का उपयोग करते हुए चुनाव आयोग विवाद को तय करने के लिए महत्वपूर्ण परीक्षण के रूप में पार्टी के संगठनात्मक और विधायका विंग के सदस्यों के बीच बहुमत के समर्थन के परीक्षण को लागू करता है। 1969 में अपने पहले परीक्षण में चुनाव आयोग ने इस फार्मूले का इस्तेमाल किया था जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने सादिक अली बनाम भारत निर्वाचन आयोग, 1971 और बाद के कई फैसलों में अपने फैसले में बरकरार रखा था।

अपने विस्तृत 77 पन्नों के सुविचारित आदेश में तीन सदस्यीय आयोग ने बहुमत के परीक्षण पर भरोसा किया जिसे शिंदे गुट साबित करने में सक्षम था जोकि महाराष्ट्र में 67 में से 40 विधायकों और एम.एल.सी. के समर्थन के साथ था। चुनाव आयोग ने पाया कि वह पार्टी के संगठनात्मक विंग में बहुमत के परीक्षण पर भरोसा नहीं कर सकता क्योंकि दोनों गुटों द्वारा संख्यात्मक बहुमत के दावे संतोषजनक नहीं थे।

इसने आगे फैसला किया कि ‘पार्टी संविधान के परीक्षण’ पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि पार्टी ने 2018 में अपने संशोधित संविधान की एक  प्रति जमा नहीं की थी और दस्तावेज को और अधिक अलोकतांत्रिक बनाने के लिए बदल दिया गया था। उद्धव के नेतृत्व वाले शिवसेना गुट के ‘पार्टी संविधान का परीक्षण’ हारने का मुख्य कारण यह था कि संविधान के 2018 के संशोधन ने पदाधिकारियों की नियुक्तियों के लिए एक व्यक्ति, पार्टी अध्यक्ष को व्यापक अनियंत्रित शक्तियां प्रदान कीं।

संविधान में राष्ट्रपति को एक निर्वाचक मंडल द्वारा चुने जाने की परिकल्पना की गई है जिसके सदस्य स्वयं राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं जिससे चुनाव की प्रक्रिया निरर्थक और अलोकतांत्रिक हो जाती हैं। चुनाव आयोग ने कहा कि शिंदे का समर्थन करने वाले विधायकों को जीत के पक्ष में लगभग 76 प्रतिशत वोट मिले जबकि शिवसेना के उद्धव के नेतृत्व वाले गुट को समर्थन देने वाले विधायकों को केवल 23.5 प्रतिशत वोट ही मिले।

मेरे विचार से यह न केवल अनावश्यक है बल्कि तार्किक रूप से गलत भी है क्योंकि विधायकों ने बाहरी सहित विभिन्न कारकों से वफादारी बदली है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मतदाता इस अस्थिर चेहरे का समर्थन करते हैं। मतदाताओं की वीरता के लिए अंतिम परीक्षा चुनाव है। अंत में, हालांकि चुनाव आयोग ने अपना फैसला दे दिया है कि असली शिवसेना कौन है, सेना की विरासत को विरासत में लेने के सवाल पर अंतिम फैसला आने वाले चुनावों में दोनों दलों के प्रदर्शन से ही तय होगा।

भले ही ठाकरे को फायदा हो, दुर्भाग्य से उनके लिए उन्हें एक पार्टी के साथ चुनाव लडऩा पड़ सकता है जिसे उन्हें पंजीकृत करना होगा। एक और नया प्रतीक आबंटित किया जाना है। अगर हम याद करें कि इंदिरा गांधी 2 बार नई पार्टी के नाम और चुनाव चिन्ह के साथ घर से बाहर निकली थीं तो यह हार का सौदा नहीं होगा। -एस.वाई. कुरैशी  (लेखक भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हैं।) (साभार आई.ई.)


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