क्या मोदी की ‘चीन यात्रा’ भारत के लिए लाभदायक सिद्ध होगी

Wednesday, May 09, 2018 - 03:57 AM (IST)

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गर्व से चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाई का समर्थन किया था। वह फस्र्ट फ्रंट के सेना प्रमुख चियांग काई शेक को हराकर आए थे। चीन के प्रधानमंत्री ने भारत की आजादी के आंदोलन का समर्थन किया था, जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि भारत की आजादी दूसरे विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय पर निर्भर नहीं है। ब्रिटेन और उसी तरह की बाकी लोकतांत्रिक ताकतों को अमरीका का समर्थन घोषित हो जाने के बाद मित्र राष्ट्रों की विजय तय हो चुकी थी। 

इसके बाद भी नेहरू ने कांग्रेस का समर्थन हासिल कर लिया था। इसने गांधी जी के यह कहने के बाद भी कि फासिस्ट ताकतों का नेतृत्व कर रहा अडोल्फ हिटलर विजयी होगा, घोषणा जारी की। चाऊ एन-लाई ने नेहरू के साथ विश्वासघात किया। उसका भारत पर हमला करना एक ऐसा प्रहार था जिसे नेहरू बर्दाश्त नहीं कर पाए। इसके बाद गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने मिल कर कोलंबो प्रस्ताव में संशोधन किया और आंशिक रूप से नेहरू की इज्जत लौटा ली थी। इस प्रस्ताव ने नई सीमा को मान्यता दी थी, जहां चीन ने ताकत के जरिए सीमा रेखा खींच दी थी। नई दिल्ली ने पेइचिंग से अपना राजदूत वापस बुला कर अपनी नाराजगी प्रकट की थी। इसके बाद से दोनों देशों के रिश्तों में खट्टापन चला आ रहा था। 

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने चीन की ओर से तय सीमा मान ली है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी यह तर्क दे सकती है कि उन्होंने वही स्वीकार किया है, जो कानूनी है। ऐतिहासिक क्षण मानकर जिसका स्वागत किया जा रहा है, वह पेइचिंग के सामने दयनीय आत्मसमर्पण है। वास्तव में यह एक पराजय है। अगर कांग्रेस पार्टी ने यह किया होता तो भारत को बेचने वाली शक्ति के रूप में उसका जलूस निकाल दिया जाता। शायद मोदी अपनी लच्छेदार हिंदी के कारण जनता के गले अच्छी तरह उतर सकते हैं क्योंकि वह सीमा समस्या की बारीक बातों को नहीं समझती है। लेकिन अचरज की बात यह है कि पार्टी को नागपुर मुख्यालय का समर्थन प्राप्त है, जहां से आर.एस.एस. आलाकमान काम करता है। 

चीन और भारत कभी-कभार ही इस पर सहमत हुए हैं कि असली सीमा-रेखा किस जगह है। नेहरू ने कहा कि उन्होंने भारतीय सेना को घुसपैठियों को बाहर भगाने और क्षेत्र को साफ  करने के लिए कहा है। उस समय से दोनों के बीच रिश्ते कमोबेश दुश्मनी के हैं। कुछ समय पहले डोकलाम में टकराव के समय भारत ने अपनी ताकत दिखाई। चीन को मौजूदा सीमा से पीछे हटना पड़ा। प्रधानमंत्री मोदी की पिछले सितम्बर में ब्रिक्स के दौरान हुई यात्रा से तनाव जरूर कम हुआ। उस समय मोदी की यात्रा का सकारात्मक पक्ष यह था कि दोनों देशों ने आतंकवाद से लडऩे की बात दोहराई थी लेकिन यहां भी चीन ने अपना ही सिद्धांत रखा। मगर नई दिल्ली की चिंता यह है कि चीन और पाकिस्तान के बीच मित्रता मजबूत होती जा रही है। ज्यादा समय नहीं हुआ है कि चीन ने अरुणाचल से जाने वाले भारतीयों का वीजा नत्थी करना शुरू कर दिया था। चीन दिखाना चाहता था कि यह एक ‘‘अलग इलाका’’ है और भारत का हिस्सा नहीं है। 

भारत ने इस बेइज्जती को चुपचाप सहन कर लिया। चीन ने बिना किसी आपत्ति के अरुणाचल प्रदेश को भारत का  हिस्सा बताने वाले नक्शे को स्वीकार कर लिया। अरुणाचल प्रदेश और चीन की सीमा के बीच के एक छोटे से क्षेत्र को लेकर विवाद को याद करने के लिए अरुणाचल प्रदेश की स्थिति पर कभी-कभार ही सवाल उठाया गया है। चीन के लिए तिब्बत भारत के कश्मीर की तरह है, जिसने आजादी का झण्डा उठा लिया है। लेकिन दोनों के बीच एक अंतर है: दलाई लामा चीन के मातहत एक स्वायत्त स्थिति स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, कश्मीर आज आजादी चाहता है। संभव है, कश्मीरी एक दिन घूम-फिर कर वैसी ही स्थिति स्वीकार करने को मान जाएं। समस्या इतनी जटिल है कि एक मामूली परिवर्तन एक बड़ी विपदा में तबदील हो सकता है। यह जोखिम उठाने लायक नहीं है। पिछले साल दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश यात्रा ने चीन द्वारा तिब्बत को अपने में मिलाने के कुछ दिनों पहले की याद दिला दी। नेहरू ने उस समय कोई आपत्ति नहीं उठाई थी क्योंकि चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाई के साथ उनके व्यक्तिगत संबंध थे। 

दलाई लामा की यात्रा ने तिब्बत के बारे में संदेह नहीं पैदा किया लेकिन इसने एक बार फिर पेइङ्क्षचग की ओर से तिब्बत के विलय पर बहस को ताजा कर दिया। चीन ने उनकी यात्रा को एक ‘‘उकसावा’’ बताया। इसने भारत को चेतावनी दी थी कि दलाई लामा की यात्रा दोनों देशों के बीच के सामान्य संबंधों पर असर डालेगी। डोकलाम के साथ यह निश्चित तौर पर बढ़ गया। फिर भी भारत ने अपनी स्थिति बनाए रखने में सफलता पाई। वास्तव में भारत के साथ चीन की समस्या की जड़ें अंग्रेजों की ओर से किए गए भारत-चीन सीमा के निर्धारण में हैं। चीन मैकमोहन रेखा को मानने से मना करता है जो अरुणाचल प्रदेश को भारत के एक हिस्से के रूप में बताता है। इस क्षेत्र में होने वाली किसी भी गतिविधि को चीन शक की नजर से देखता है। 

चीन के विरोध जाहिर करने के बावजूद रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा से यही जाहिर होता है कि भारत झगड़े के लिए तैयार है, अगर ऐसा हो जाता है। उस समय भारतीय सैनिकों के पास पहाड़ पर युद्ध करने के लिए जूते नहीं थे। भारत गंभीरता से ली जाने लायक शक्ति है। ऐसा लगता है कि चीन भारत को तब तक उकसाता रहेगा, जब तक कि इसका धैर्य जवाब न दे जाए। जब युद्ध नहीं होना है तो चीन के पास यही विकल्प बचता है। बिना झगड़े के इसका जवाब कैसे दिया जाए, भारत इसी परिस्थिति का सामना कर रहा है। पेइचिंग भारत-चीन भाई-भाई का परिदृश्य वापस लाना चाहता है। दोनों देशों के बीच डोकलाम के गतिरोध के बाद भारत के प्रधानमंत्री की पहली चीन यात्रा के तुरंत बाद चीन के विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि शांतिपूर्ण चर्चा तथा एक-दूसरे की ‘‘चिंताओं तथा आकांक्षाओं’’ का सम्मान करते हुए आपसी मतभेद को संभालने की ‘‘परिपक्वता तथा विवेक’’ दोनों देशों में है। 

निष्पक्ष, उचित तथा एक-दूसरे को स्वीकार्य समझौते के लिए सीमा के सवालों पर विशेष प्रतिनिधियों की बैठक का उपयोग करने पर भी वे राजी हुए। बयान में कहा गया कि दोनों सेनाएं विश्वास कायम करने वाले कदम उठाएंगी और सीमा पर शांति के लिए संवाद तथा सहयोग बढ़ाएंगी। इस बीच, भारत और चीन दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक और लोगों के बीच के आदान-प्रदान के लिए एक उच्चस्तरीय यंत्रणा बनाने पर सहमत हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी तथा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की शिखर वार्ता में इस पर भी जोर दिया गया कि चीन-भारत के बीच विकास संबंधी करीबी सांझेदारी हो ताकि दोनों सदैव सही दिशा में चलें। नवीनतम कदम का उद्देश्य दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत करना है। अपनी 2 दिनों की यात्रा के अंत में भारतीय प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति वुहान ईस्ट लेक तट के किनारे चले तथा ‘‘शांति, संपन्नता तथा विकास’’ के लिए एक ही नाव में सुस्ताने वाले और मैत्री के माहौल में सैर की। यह एक शुभ संकेत है।-कुलदीप नैय्यर

Pardeep

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