‘अम्मा’ की मृत्यु के बाद तमिलनाडु किधर जा रहा है

Saturday, Jul 08, 2017 - 10:31 PM (IST)

तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता (अथवा अम्मा) बहुत कठोरता से शासन करती रहीं। उनके अंतर्गत भ्रष्टाचार खूब फला-फूला, फिर भी कामकाजी सरकार चलाने में वह सफल रहीं। उनके देहावसान के बाद अब तमिलनाडु के इतिहास के इस कांड पर चर्चा करना प्रासंगिक नहीं रहा। अब तो महत्वपूर्ण सवाल यह है कि तमिलनाडु किधर जा रहा है? 

जयललिता अपने पीछे एक पार्टी और सरकार छोड़ कर गई हैं जिसे 234 विधायकों वाली विधानसभा में 135 सदस्यों का समर्थन हासिल है लेकिन वह किसी व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी थाप कर नहीं गईं। शायद उन्हें लगता था कि वह अपनी बीमारी से तंदरुस्त हो जाएंगी। जिस तरह उन्होंने अपनी बीमारी से पहले दो मौकों पर ओ. पन्नीरसेल्वम को अस्थायी रूप में मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपी उससे यह भी लगता है कि शायद उन्होंने भविष्य के उत्तराधिकारी के लिए पर्याप्त संकेत दे दिया था। इस अटकल से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि शायद उन्होंने इस बारे में कभी ङ्क्षचता ही न की हो कि उनके बाद क्या होगा। फिर भी दो तथ्य तो पूरी तरह स्पष्ट हैं- (1) उन्होंने ऐसा संकेत तो लेशमात्र नहीं दिया कि शशिकला उनकी उत्तराधिकारी होंगी और (2) 2011 में पार्टी से निकाले गए उनके करीबी रिश्तेदारों को जयललिता ने दोबारा पार्टी में शामिल होने नहीं दिया था। 

राज पलटा और इसका खमियाजा 
इन बातों के बावजूद जयललिता के देहावसान के बाद शशिकला एक प्रकार से ‘राजपलटा’ करने में सफल हो गईं। पहले तो उन्होंने खुद को पार्टी की महासचिव बनवाने में सफलता हासिल की और फिर विधायक दल की नेता बन गईं। ऐन जब वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने को तैयार हो रही थीं तो सुप्रीमकोर्ट के फैसले ने उनकी महत्वाकांक्षाओं पर कुल्हाड़ा चला दिया। उसने फटाफट ओ. पन्नीरसेल्वम को पार्टी से निकाल दिया और ई. पल्लानीसामी को विधायक दल का नेता चुनवा लिया। ऐसे में राज्यपाल के पास पल्लानीसामी को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाने के सिवाय अन्य कोई रास्ता ही नहीं रह गया था। 

जैसा कि अटल रूप में होना ही था, अन्नाद्रमुक विभाजित हो गई। प्रारम्भ में तो दो ही गुट थे लेकिन अब तो ऐसा आभास होता है कि यदि 4 नहीं तो कम से कम 3 गुट तो हैं ही। पार्टी की फूट के बावजूद सरकार ऐसे चल रही है जैसे कुछ हुआ ही न हो। बजट सत्र जारी है लेकिन किसी ने भी न तो अनुदान मांगों पर मत संग्रह की आवाज उठाई है और न ही किसी विधेयक पर। यहां तक कि किसी ने अविश्वास मत का प्रस्ताव भी प्रस्तुत नहीं किया। किसी भी कीमत पर विधायकों द्वारा अपना अस्तित्व बचाए रखने ने आज के दौर में यह चमत्कार कर दिखाया है। 

आम तौर पर यह माना जा रहा है कि पुतलियों के इस तमाशे की डोर भाजपा के हाथ में है और चारों गुटों को एकजुट रखने के तार वही हिला रहे हैं। शायद यह तमिलनाडु की राजनीति में अपने लिए स्थान बनाने की भाजपा की रणनीति का ही एक अंग हो। यह भी हो सकता है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में अधिक से अधिक वोट बटोरने का यह दावपेंच मात्र हो। कुछ भी हो, यह अन्नाद्रमुक या इसके एक बड़े वर्ग का दिल जीतने की एक दीर्घकालिक योजना हो ताकि मध्यावधि चुनाव थोपने से पूर्व अन्नाद्रमुक को एक सहयोगी बनाया जा सके। ऐसी स्थिति में यह गंभीर सवालों को जन्म दे सकती है। 

आज अन्नाद्रमुक और इसकी सरकार नेताविहीन है। हर रोज भ्रष्टाचार के किसी न किसी मामले का खुलासा हो रहा है लेकिन अन्नाद्रमुक के सत्तारूढ़ गुट में किसी को भी ऐसी बातों की चिंता नहीं। वे तो इसी भरोसे निश्चिन्त बैठे हैं कि अन्नाद्रमुक के सभी गुट भाजपा-आर.एस.एस. के शिकंजे में हैं जो ऐसा कुछ भी नहीं होने देंगे जिससे सरकार पराजित हो जाए। 

भ्रष्टाचार के मामले 
जयललिता के देहावसान के बाद तमिलनाडु में निम्नलिखित बड़े-बड़े मामलों का खुलासा हुआ है:
- 8 दिसम्बर, 2016 को एक उत्खनन समूह के विरुद्ध आयकर के संबंध में जो छापामारी हुई थी उसके फलस्वरूप 135 करोड़ नकदी और 177 किलो ग्राम सोना पकड़ा गया था। इसका खुरा-खोज ढूंढते जब आयकर अधिकारी मुख्य सचिव के कार्यालय और आवास तक पहुंच गए तो इस अधिकारी को पद से हटा दिया गया। 

- 4 अप्रैल, 2017 को आयकर अधिकारियों ने स्वास्थ्य मंत्री के घर की तलाशी ली और दावा किया कि उन्हें दस्तावेजी प्रमाण मिले हैं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री और 6 मंत्रियों को आर.के. नगर क्षेत्र से पुन: मतदान के मद्देनजर वोटरों में बांटने के लिए  पैसा दिया गया था। 

- आर.के. नगर का उपचुनाव इसलिए रद्द हुआ था कि चुनाव आयोग को मतदाताओं को बड़े पैमाने पर धन आबंटन किए जाने के प्रमाण मिले थे। 18 अप्रैल, 2017 को चुनाव आयोग ने मुख्यमंत्री व 6 मंत्रियों के साथ-साथ उनके उम्मीदवार के विरुद्ध मामला दर्ज किए जाने का आदेश जारी किया था। 

-2 सप्ताह पूर्व एक समाचार पत्र की अन्वेषण रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि 8 जुलाई, 2016 को एक गुट के  विनिर्माता के परिसरों की तलाशी ली गई थी जिस दौरान एक मंत्री तथा वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भुगतान किए जाने के प्रमाण मिले थे। इस तलाशी के तत्काल बाद सरकार को रिपोर्ट भेजी गई थी लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। 

प्रशासकीय भ्रष्टाचार का खूब बोलबाला है। यहां तक कि तमिलनाडु में विभिन्न प्रकार की सेवाओं और उनके लिए दिए जाने वाले शुल्क का रेट कार्ड चल रहा है। इस सूची में दर्ज कीमत पर आपको कोई भी सेवा मिल सकती है। वर्तमान सरकार के अंतर्गत व्यवस्था का विकेन्द्रीयकरण किया गया। सत्तारूढ़ गुट का एक-एक विधायक अपने-अपने चुनाव क्षेत्र का व्यावहारिक अर्थों में ‘मुख्यमंत्री’ ही है जबकि प्रत्येक मंत्री अपने-अपने जिले में मुख्यमंत्री की हैसियत रखता है। 
भाजपा का खेल क्या है? 

इसी बीच सरकार की वित्तीय व्यवस्था हाथों से निकलती जा रही है। 2017-18 के अंत तक प्रदेश का कुल ऋण बोझ 3,14,366 करोड़ रुपए हो जाएगा जोकि इसके सम्भावित राजस्व से दोगुणा होगा। सरकार ने बिजली उत्पादन एवं वितरण कम्पनी ‘ट्रांजैडको’ का ऋण भी अपने जिम्मे ले लिया जिससे वित्तीय घाटा 2016-17 में 4.58 प्रतिशत तक पहुंच गया। ‘जी.एस.डी.पी.’ से ऋण का अनुपात बढ़कर 20.9 प्रतिशत हो गया है। सरकार के कुल खर्च में पूंजीगत खर्च का अनुपात स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, जलापूर्ति, सैनीटेशन तथा शहरी विकास मंत्रालयों में नीचे आ गया है। 

तमिलनाडु सरकार के नेता हर रोज ‘पैसा खाने’ का हर मौका प्रयुक्त कर रहे हैं। कुप्रबंधन प्रदेश की अर्थव्यवस्था की प्राण वायु सोखता जा रहा है। प्रधानमंत्री ने तो कहा था कि ‘‘मैं न तो खाऊंगा और न किसी को खाने दूंगा’’। ऐसे में क्या भाजपा कोई स्पष्टीकरण देगी कि यह अन्नाद्रमुक जैसी भ्रष्ट पार्टी के साथ क्यों ‘घी-शक्कर’ हो रही है?

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