देश का पेट भरने के लिए किसान कहां से मिलेंगे

Saturday, Jul 07, 2018 - 03:58 AM (IST)

यह तो आप जानते ही होंगे कि 1 से 10 जून तक गांव बंद थे। मतलब गांव की उत्पादित वस्तुएं शहर में बिकने के लिए नहीं जाएंगी। हालांकिऐसा हुआ नहीं, फिर भी गांव बंद पर सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया पर बहस ने खूब जोर पकड़ा। यह आंदोलन किसानों के हक में न जाकर उनके द्वारा गुस्से व क्षोभ में चंद जगहों पर बिखराई सब्जियों व दूध की वजह से आलोचना का शिकार जरूर बना। 

खैर, बंद का असर हुआ या नहीं, इसकेआंकड़ों पर नजर डाल लेते हैं। आंकड़ों के लिहाज से इसे देखें तो देश में 4782 विधायकों पर साल में औसतन 7 अरब 50 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। कुल 790 सांसदों पर सालाना 2 अरब 55 करोड़ 96 लाख रुपए खर्च होते हैं। राजनीति से निकले तमाम राज्यपालों व उप-राज्यपालों पर 1 अरब 8 करोड़ रुपए सालाना खर्च होता है। इस खर्च में प्रधानमंत्री और सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों का खर्च अगर जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा उस स्थिति से मेल नहीं खाएगा, जिस बदहाली में देश का किसान जी रहा है। 

हैरानी की बात तो यह है कि जनता के हारे हुए नुमाइंदों को भी ताउम्र पैंशन देने वाला हमारा देश किसान की स्थिति को लेकर जरा भी चिंतित नहीं है, हां, ट्विटर पर नेता जरूर किसान हितैषी बनकर दिखाते हैं लेकिन सत्ता हाथ में आते ही सब कुछ भूल जाते हैं। क्षेत्रीय पार्टियां जरूर किसानों केदबाव में रहती हैं लेकिन बड़ी मछली छोटी को खाती है, की तर्ज पर देश की दोनों बड़ी पार्टियां मजबूरी में ही केवल इनसे नाता रख रही हैं और हर तरह से प्रयास है कि इन्हें खत्म कर दिया जाए। 

अगर आंकड़ों की ही बात करें तो हरियाणा के किसानों पर 31 मार्च, 2017 तक 46041 करोड़ रुपए कृषि कर्ज था, गत 31 मार्च को इस कर्ज में से 4262 करोड़ रुपए की राशि एन.पी.ए. (नॉन परफार्मिंग एसैट्स) हो गई यानी इतनी राशि अब आने की उम्मीद नहीं है। हरियाणा के 15,01,810 किसानों ने 49,429 करोड़ रुपए का कर्ज ले रखा है। इनमें से 1,51,696 किसान कर्ज नहीं लौटा पा रहे हैं। इसके साथ ही बिजली बिलों के डिफाल्टर्स पर रिसर्च हो तो सामने आएगा कि किसान अपने बच्चों की फीस, बिजली के बिल जैसे सामान्य खर्चों को भी समय पर चुकता करने की स्थिति में नहीं हैं। किसान की बेटी की शादी हो या घर बनाना हो, हर जगह वह कर्ज के दलदल में धंसता ही जा रहा है। रही-सही कसर जमीन का अधिग्रहण कर उसे भूख से मरने केे लिए मजबूर किया जा रहा है।

किसान की आय को दोगुना करने के वायदे बहुत सालों से चलते आ रहे हैं लेकिन हकीकत में अभी तक कोई योजना किसान की दशा में रत्ती भर का भी फर्क पैदा नहीं कर पाई है। एक-एक करके वे किसानी से खुद को अलग कर रहे हैं और शहरों में छोटे-मोटे मजदूरीनुमा कामों से घर का पोषण करने को मजबूर हैं। अब बात करते हैं गांव बंद आंदोलन की। उन धरती पुत्रों ने इसका आह्वान किया था जो खेती की असली दशा को जानते हैं। सोशल मीडिया से भरी हुंकार ने किसान संगठनों को आगे किया और पूरे देश में एक माहौल बना कि किसान की दशा को सरकार तक पहुंचाने के लिए इस आंदोलन को सफल बनाया जाए। मरे पड़े किसान को इसमें एक उम्मीद की किरण दिखाई दी और ज्यादातर ने अपने उत्पाद शहर में नहीं भेजे लेकिन सब्जियों जैसी जरूरत की चीजें कैसे रोकी जा सकती थीं और वह भी उस दिशा में जब कर्ज लेकर खेती की गई हो। इसलिए शहरों को वह कमी महसूस नहीं हो पाई जो असलियत में गांव बंद होने पर होनी चाहिए थी। 

एक उद्योगपति कोई भी चीज बनाता है तो उसका दाम खुद तय करता है लेकिन देश के किसान का उत्पाद किस भाव पर बिकेगा, यह तय करने का अधिकार उसकेपास नहीं है। किसानों के उत्पादों की कीमत आढ़तियों द्वारा तय की जाती है और मंडी फीस किसान को अलग से देनी पड़ती है। किसान की अकस्मात मृत्यु पर उसका कोई बीमा आदि नहीं होता। ऐसे में उसके बच्चे सड़क पर आ जाते हैं। हाल ही में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक 1997 से लेकर पिछले साल के अंत तक यानी 13 वर्षों में 2,16,500 किसानों ने आत्महत्या की। सरकार 2013 से किसानों की आत्महत्या के आंकड़े जमा कर रही है। इसके मुताबिक हर साल 12000 किसान अपनी जिंदगी खत्म कर रहे हैं। 

किसानों को ऋण दिए जाने की व्यवस्था और सुविधाओं को मजबूत तथा उदार बनाने की आवश्यकता है। ऋण माफी से निश्चित रूप से उन किसानों को लाभ हुआ है जो कभी अच्छे ऋण भुगतानकत्र्ता थे ही नहीं और उनमें यह प्रवृत्ति विकसित हुई कि ऋण की अदायगी करने से कोई लाभ नहीं है। किसी न किसी समय जब सरकार माफ करेगी तो इसका लाभ हमको मिलेगा। साथ ही ऐसे किसान जो सदैव समय से ऋण अदायगी करते रहे हैं, वे इस ऋण माफी से स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे इससे धोखा खाए हैं। इसलिए उनमें भी यह आस्था विकसित हो रही है कि समय से कर्ज अदा करने से कोई लाभ नहीं है और जब बकाएदार सदस्यों का कुछ नहीं बिगड़ रहा तो हमारा क्या बिगड़ेगा? 

किसान किसी न किसी रूप में लगभग सभी वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करके आज बकाएदार हैं और बकाएदारों को ऋण न देने की नीति के कारण वे अब इन वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने में असमर्थ हैं परंतु जब उसे अपने किसी अन्य कार्य, सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन हेतु किसी न किसी रूप में धन की आवश्यकता होती है तब वह बाध्य होकर उसी साहूकार केपास ऋण प्राप्ति के लिए जाता है जिससे मुक्ति दिलाने के लिए स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री से लेकर अब तक सभी प्रयासरत रहे हैं। दीनबंधु सर छोटूराम का सारा जीवन भी किसान को इसी भंवर से निकालने में चला गया। अंतिम बात यह है कि आंदोलन के चलते गांव बंद रहे हों या नहीं सवाल यह नहीं है, बड़ा सवाल और हकीकत यह है कि गांव बंद ही नहीं, मरणासन्न हैं। एक न एक दिन ये गांव बंद ही नहीं होंगे, मर भी जाएंगे और तब देश की इतनी बड़ी आबादी का पेट भरने के लिए रातों-रात किसान कहां से पैदा होंगे?-डा. महेन्द्र सिंह मलिक आई.पी.एस.(सेवानिवृत्त)

Pardeep

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