कहां हैं चिकित्सा के सिद्धांत

punjabkesari.in Tuesday, Jun 18, 2019 - 04:00 AM (IST)

‘‘मुझे बताओ सार्जेंट को कैसे मारा जाए क्योंकि मैंने पहले कभी किसी को नहीं मारा है।’’ पीट सीगर  के इस मशहूर गाने में एक अमरीकी सिपाही का किस्सा है जो वियतनाम युद्ध के दौरान अपने वरिष्ठ से प्रश्र पूछता है। पश्चिम बंगाल में चिकित्सा के क्षेत्र में जारी अशांति को दर्शाने के लिए इस फिलॉस्फी को थोड़ा बदला जा सकता है। ये पंक्तियां इस प्रकार हो सकती हैं : ‘‘मुझे बताओ सरकार/डाक्टर को कैसे मारा जा सकता है क्योंकि मैंने पहले ऐसा कभी नहीं किया है।’’ 

क्या सरकार और मैडीकल प्रैक्टीशनर हत्यारे हो सकते हैं? इस प्रश्र का जवाब काफी मुश्किल है। एक हफ्ता पहले केन्द्रीय कोलकाता के बीबी बागान क्षेत्र के निवासी 75 वर्षीय मोहम्मद सईद की मौत पर एन.आर.एस. अस्पताल में अप्रत्याशित ङ्क्षहसा भड़क उठी। ट्रकों में भर कर कुछ लोग आए और उन्होंने अस्पताल परिसर में रैजीडैंट डाक्टरों के साथ बुरी तरह हाथापाई की। दो डाक्टर गंभीर रूप से घायल हो गए। तब से जूनियर डाक्टर सभी आऊटडोर गतिविधियां बंद कर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। बाद में प्रदेश भर के सरकारी अस्पतालों के डाक्टर भी उनके साथ शामिल हो गए। यहां तक कि कार्पोरेट अस्पतालों के मैडीकल पै्रक्टीशनर भी आंदोलन में कूद गए। 

जब लगे ममता ‘गो बैक’ के नारे
हड़ताल कर रहे जूनियर डाक्टरों ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से हस्तक्षेप की मांग की। वह स्वयं नहीं आईं लेकिन अपने सहयोगी  चंद्रिमा भट्टाचार्य, स्वास्थ्य सचिव राजीव सिन्हा और अन्य अधिकारियों को भेजा लेकिन कोई समाधान नहीं निकला। आंदोलन का दायरा और बढ़ गया तथा ममता बनर्जी के सख्त रवैये तथा चार घंटे के भीतर हड़ताल समाप्त करने के अल्टीमेटम की कड़ी आलोचना हुई। अपने जीवन में पहली बार ममता बनर्जी को ‘‘गो बैक’’ के नारे सुनने पड़े और एस.एस.के.एम. अस्पताल पहुंचने पर उन्हें काले झंडे दिखाए गए। उसके बावजूद ममता ने मानवीय दृष्टिकोण नहीं छोड़ा। उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर मरीजों का ध्यान रखते हुए दो मरीजों को उपचार के लिए बेलेव्यू  क्लीनिक भेजा। राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी ने इंस्टीच्यूट ऑफ न्यूरो साइंसिज जाकर घायल डाक्टरों से मुलाकात की। ममता बनर्जी ने पहले ऐसा नहीं किया लेकिन बाद में सहमत हो गईं। 

आई.एम.ए. का शीर्ष प्रतिनिधिमंडल  दिल्ली से अस्पताल के अधिकारियों, डाक्टरों, इंटन्र्स और हड़तालरत विद्याॢथयों से बातचीत करने के लिए कोलकाता पहुंचा। आई.एम.ए. ने हड़ताल का समर्थन किया और 14 जून को प्रदर्शन का आह्वान किया। इस हड़ताल को देशभर के डाक्टरों का समर्थन मिला तथा स्थिति और भी खराब हो गई जब सरकारी अस्पतालों के सैंकड़ों सीनियर डाक्टरों ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद आई.एम.ए. ने 17 जून को देशभर में ओ.पी.डी. बंद रखने का आह्वान किया। डा. बिनायक सेन, सरीजातो और अपर्णा सेन जैसे बुद्धिजीवी प्रदर्शनकारियों के समर्थन में सड़कों पर उतर आए। सुकुमार मुखर्जी, अभिजीत चौधरी तथा प्लाबन मुखर्जी जैसे प्रतिष्ठित सीनियर डाक्टरों द्वारा हड़ताली डाक्टरों को ममता बनर्जी से बातचीत करने के लिए मनाने की कोशिश की गई। तमाम प्रयासों के बाद 17 जून को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और डाक्टरों की बैठक हुई। बैठक के बाद ममता बनर्जी ने डाक्टरों की सुरक्षा का भरोसा दिया और अस्पतालों में नोडल अधिकारी तैनात करने की बात कही। ऐसे में अब डाक्टरों की हड़ताल समाप्त होने की संभावना बन रही है। 

डाक्टरों को सुरक्षा की जरूरत
इसमें कोई संदेह नहीं कि डाक्टरों को सुरक्षा की जरूरत है। दिल्ली, हैदराबाद और देश के अन्य भागों में डाक्टरों से हाथापाई के अनेक मामले  सामने आए हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवद्र्धन ने सुझाव दिया है कि प्रत्येक राज्य डाक्टरों और मैडीकल स्टाफ की सुरक्षा के लिए कानून बनाए। आई.एम.ए. ने सुझाव दिया है कि इसी तर्ज पर केन्द्र सरकार द्वारा भी कानून बनाया जाए। लंदन से एन.आर.आई. डाक्टरों ने भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चि_ी लिख कर इस तरह की ङ्क्षहसा रोकने के लिए कानून बनाने पर बल दिया है। 

बहरहाल, इस मामले का एक अन्य पहलू भी है। दिन-प्रतिदिन उपचार के अभाव में मरीज परेशान हो रहे हैं और कइयों की मौत भी हो रही है।  मरीजों में लापरवाह डाक्टरों के प्रति नाराजगी और शिकायतें बढ़ रही हैं। डा. कुनाल सेन पहले ही हड़ताल को चुनौती देते हुए कोलकाता हाईकोर्ट में केस दर्ज कर चुके हैं। ओडिशा, दिल्ली, हरियाणा, गुजरात और अन्य राज्यों में हड़ताली डाक्टरों पर एस्मा  लागू किए जाने के कई उदाहरण हैं। 

मानवतावादी दृष्टिकोण की जरूरत
मानवता कहां खो गई है? क्या डाक्टरों की मरीजों के प्रति कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है। कोलकाता हाईकोर्ट ने डाक्टरों को उनके द्वारा ली गई पवित्र शपथ की याद दिलाई है। यह कोई समाधान नहीं है। क्या स्वास्थ्य सेवाएं डाक्टरों के बिना जारी रह सकती हैं? क्या सरकारी अस्पतालों के डाक्टर इस बात को नहीं समझते कि  अधिकतर मरीज निजी अस्पतालों का भारी-भरकम खर्च वहन नहीं कर सकते? इसमें कोई संदेह नहीं कि ममता बनर्जी के शुरूआती घमंड और आपत्तिजनक बयानों की ङ्क्षनदा की जानी चाहिए लेकिन हड़ताली डाक्टरों और उनकी जिद का भी समर्थन नहीं किया जा सकता। मामले का सौहार्दपूर्ण हल निकालने के लिए दोनों ओर से लचीले रुख की जरूरत है। यदि यह स्थिति इसी तरह बनी रहती है और कुछ नेताओं द्वारा मामले को राजनीतिक रंग दिया जाता रहा तो इस समय डाक्टरों को जो सहानुभूति मिल रही है वह सारी खत्म हो जाएगी।-रंजन दास गुप्ता


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