कब मिटेगा ‘भूख’ का कलंक

Friday, Oct 16, 2020 - 02:24 AM (IST)

आजादी के 74 बरस बीत जाने के बाद भी भुखमरी देश के लिए कलंक बनी हुई है। बीते सात दशक से भारत इस कलंक को मिटाने के प्रयास में लगा हुआ है जबकि स्थिति में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ है। विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत अभी भी गरीबी और भुखमरी जैसी बुनियादी समस्याओं की चपेट से बाहर नहीं निकल सका है। समय-समय पर होने वाले अध्ययन और रिपोर्टें भी इस बात का खुलासा करती हैं कि तमाम योजनाओं के ऐलान के बावजूद देश में भूख व कुुपोषण की स्थिति पर लगाम नहीं लगाई जा सकी है। 130 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले भारत जैसे देश में आज भी स्थिति यह है कि देश में खाद्यान्न का उत्पादन बड़े स्तर पर होने के बावजूद बहुत बड़ी आबादी भुखमरी का संकट झेल रही है। 

विश्व खाद्य उत्पादन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में मजबूत आर्थिक प्रगति के बावजूद भुखमरी की समस्या से निपटने की रफ्तार बहुत धीमी है, जबकि संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न का इतना भंडार है, जो प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चे का पेट भरने के लिए पर्याप्त है। मगर इसके बावजूद करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो दीर्घकालिक भुखमरी और कुपोषण या अल्प पोषण की समस्या से जूझ रहे हैं। 

एक तरफ तो हम भारत की मजबूत आॢथक स्थिति के बारे में विश्वभर में कसीदे पढ़ रहे हैं  वहीं दूसरी तरफ सच यह है कि इतने सालों की आजादी के बाद भी हम वास्तव में भुखमरी व गरीबी के कलंक से आजाद नहीं हुए हैं। यह कितना दु:खद है कि संयुक्त राष्ट्र अपनी रिपोर्ट में भुखमरी के कारणों को अघोषित युद्ध की स्थिति, जलवायु परिवर्तन, ङ्क्षहसा, प्राकृतिक आपदा जैसे कारणों की तो बात करता है लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था, बाजार का ढांचा, नव साम्राज्यवाद और नव उदारवाद भी एक बड़ी वजह है इस पर  वह अपनी खामोशी क्यों रखता है? यह अत्यंत सोचनीय मुद्दा है। 

खाद्य संकट के कारण आज भूख का एक नया चेहरा सामने आया है। पहले भूख व गरीबी ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ी समस्या थी, आज उसका विस्तार शहरी क्षेत्रों में भी हो रहा है। खाद्य और कृषि संगठन तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से जारी की जाने वाली खाद्य सुरक्षा और पोषण अवस्था संबंधी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014 से 2019 तक खाद्य असुरक्षा का दायरा 3.8 प्रतिशत तक बढ़ गया है। वर्ष 2014 के सापेक्ष वर्ष 2019 तक 6.2 करोड़ अन्य लोग खाद्य असुरक्षा के दायरे में आ गए हैं।

इसके अनुसार भारत सबसे बड़ी खाद्य असुरक्षित आबादी वाला देश है। रिपोर्ट के अनुसार,वैश्विक महामारी कोविड-19 के कारण वर्ष 2030 तक शून्य भुखमरी के लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन प्रतीत हो रहा है। साथ ही आॢथक मंदी के कारण विश्वभर में लगभग 8-13 करोड़ अन्य लोगों के इस वर्ष भुखमरी के कगार पर पहुंचने की संभावना व्यक्त की गई है। वर्तमान समय में भारत की लगभग एक चौथाई जनता गरीबी से जूझ रही है। 

विश्व की आबादी वर्ष 2050 तक नौ अरब होने का अनुमान लगाया जा रहा है और इसमें करीब 80 फीसदी लोग विकासशील देशों से होंगे। एक ओर हमारे और आपके घर में रोज सुबह रात का बचा हुआ खाना बासी समझकर फैंक दिया जाता है तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का खाना तक नसीब नहीं होता। कमोबेश हर विकसित और विकासशील देश की यही कहानी है। बहरहाल, भारत की इस स्थिति के कई कारण हैं जिनमें बेतहाशा बढ़ती गरीबी, महिलाओं की खराब स्थिति, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का बुरा प्रदर्शन, पोषण के लिए जरूरी न्यूट्रीशन का निम्न स्तर, लड़कियों की निम्नस्तरीय शिक्षा और नाबालिग विवाह भारत में बच्चों में कुपोषण बढऩे के कारण हैं। 

भारत की यह विरोधाभासी छवि वाकई सोचने को बाध्य कर देती है। देश में भुखमरी मिटाने पर जितना धन खर्च हुआ वह कम नहीं है। केन्द्र सरकार के प्रत्येक बजट का बड़ा भाग आॢथक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के उत्थान हेतु आबंटित रहता है किंतु अपेक्षित परिणाम देखने को नहीं मिलते। ऐसा लगता है कि प्रयासों में या तो प्रतिबद्धता नहीं है या उनकी दिशा ही गलत है। सवाल यह है कि भारत जो खाद्य सुरक्षा की प्राप्ति के लिए ‘हरित क्रांति’ और ‘श्वेत क्रांति’ के दौर में काफी प्रभावशाली प्रगति कर चुका है, क्या वह अब अपने सामने खड़ी देशव्यापी कृषि-औद्योगिक क्रांति की फौरी आवश्यकता की एक नई चुनौती देख रहा है या नहीं? एक तरफ तो भारत के लोग दुनिया भर में अरबपतियों की लिस्ट में शुमार हो रहे हैं, दूसरी तरफ इसी देश के लोग भूख से तड़पकर जान देने को विवश हैं। 

विकास के इस भयावह असंतुलन को दूर करने के लिए नीतियों और प्राथमिकता में बदलाव करने की जरूरत है लेकिन हमारी राजनीति और तंत्र में वह भरोसा नहीं दिखता, जिसमें भूखे भारत से सुखी भारत की तस्वीर दिखाई देती हो। भूख जिंदगी भर रहने वाली शायद एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज दिन में तीन बार रोटी खाने से ही हो सकता है। वक्त और विकास के साथ भूख भी बढ़ रही है लेकिन ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता, जिसमें भूख से निजात दिलाने का वादा हो। भारत को विकसित राष्ट्रों की सूची में शामिल होना है तो उसे अपनी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। इसके साथ ही इस वैश्विक समस्या को तभी हल किया जा सकता है, जब इस लड़ाई में केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ वैश्विक संगठन अपने-अपने कार्यक्रमों को और भी प्रभावी व बेहतर ढंग से लागू करें। 

कुपोषण का रिश्ता गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि से भी है। इसलिए इन मोर्चों पर भी एक मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा। हमने निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण को ही विकास का बुनियादी आधार मान लिया है और इस अंधी दौड़ में अधिकार कहीं कोने में दुबके नजर आते हैं।-रवि शंकर

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