जब वाजपेयी एक ‘युग निर्माण यात्रा’ पर निकले

Wednesday, Jun 24, 2020 - 03:47 AM (IST)

चीन को कमजोर करने की रणनीति को महाराष्ट्र के सांसद और सामाजिक न्याय व अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास अठावले द्वारा प्रायोजित किया गया है। उन्होंने देश के सबसे लोकप्रिय एक करंट शो में इस बात पर जोर दिया कि रेस्तरां को चीनी भोजन परोसना बंद कर देना चाहिए। 

अठावले का यह फरमान वर्तमान क्षण में निरर्थक है क्योंकि कोरोना वायरस के संदर्भ में सभी रेस्तरां बंद हैं, जिसमें चीनी व्यंजनों के लिए प्रख्यात भी शामिल हैं। यह बयान यह सवाल खड़ा करता है कि क्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ रहे मोमोका स्टाल की भी जांच होगी? क्या इसकी पाक् कला में यह जांच कराई जाएगी कि मोमोका चीनी है, तिब्बती है या फिर लद्दाखी है। लद्दाख में चीनी गतिरोध 1979 में पेइचिंग की यात्रा पर गए विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का स्मरण कराता है। 

एक संदर्भ में उस यात्रा की कल्पना की गई थी। 1971 तक शीत युद्ध के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच एक थकाऊ समानता थी। जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बंगलादेश को बनाने में मदद की तथा हस्तक्षेप किया। इससे उपमहाद्वीप का भूगोल बदल गया। भारत छोटे-छोटे देशों से घिरा एक बड़ा देश बन गया। शक्ति को संतुलित करने के लिए क्षेत्रीय देशों ने चीन कार्ड को विकसित करना शुरू कर दिया, जिसे शक्ति राजनीति का शास्त्रीय संतुलन कहा जाता है। यह सार्क की उत्पत्ति का एक आयाम था। दूसरे देश इस बात पर भी निर्भर थे कि भारत ने किस तरह स्थिति को बदल कर रख दिया। 

यह चुनौती और अवसर दोनों थे। क्या होता अगर वाजपेयी पेइचिंग के साथ किसी तरह के प्रवेश की ओर आगे बढ़ते? इस बीच रिचर्ड निक्सन की 1972 की पेइचिंग यात्रा ने वैश्विक शक्ति संतुलन में द्विध्रुवीयता को तोड़ दिया था। हैनरी किसिंजर ने शक्ति का एक त्रिकोणीय संतुलन खाका खींचा, जिसमें वाशिंगटन, मास्को तथा पेइचिंग शामिल थे। निक्सन अपमान में औंधे गिर गए। इसके बाद मोरारजी देसाई और जिमी कार्टर की शर्तों का मेल हुआ। कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज्बिगनियु ब्रेजैजनिस्की ने किसिंजर के डिजाइन को बदलना शुरू किया। उन्होंने क्षेत्रीय प्रभावशालियों से बात करनी शुरू की। भारत के मोरारजी देसाई तथा ईरान के शाह बामुश्किल इस फ्रेम में फिट हुए। अयातुल्ला खुमैनी का इस फ्रेम की ओर झुकाव हो रहा था, जब वाजपेयी ने पेइचिंग की यात्रा की शुरूआत की थी। यह समय खराब था। 

जब वाजपेयी चीन पहुंचे तो देंग शियाओ पिंग थोड़ा विचलित हुए। सर्वोच्च नेता ने कृषि, उद्योग, रक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी को मजबूत करने के लिए इनको लांच किया था। उन्होंने साथ ही वियतनाम को सबक सिखाने का जिम्मा भी खुद पर ले लिया था। वाजपेयी अपनी खुद की रोशनी के अनुसार एक युग निर्माण यात्रा पर थे। मगर देंग के लिए वियतनामी स्थिति उच्च प्राथमिकता वाली थी। पेइचिंग में भारत के राजदूत राम साठे को आने वाले समय के बारे में समझ थी कि क्या होने वाला है। उन्होंने नई दिल्ली को चेतावनी दी थी कि यात्रा का समय ठीक है और परिवर्तन वाला है। चीन के सांस्कृतिक केंद्र हांग झू में कुछ समय बिताने के बाद हम अपने होटलों में लौट गए। 

उस समय टाइम्स ऑफ इंडिया के सुभाष चक्रवर्ती ने अपने सम्पादक गिरि लाल जैन से मुम्बई में बात की। जैन ने कहा कि कहानियां अच्छा किरदार निभा रही हैं और सभी समाचार पत्रों के मुखपृष्ठों पर सुर्खियां बनी हुई हैं। बातचीत समाप्त करने से पहले जैन ने एक उल्लेख किया,‘‘सुभाष आप अपने प्रतिनिधिमंडल में अधिकारियों के साथ जांच करना पसंद कर सकते हैं। लगता है किसी प्रकार का आक्रमण हुआ है।’’ क्या? चक्रवर्ती ने एक चीख मारी। वह सीधे विदेश सचिव जगत मेहता के कमरे में चले गए। वह अपने पायजामे में थे। विदेश सचिव भी पायजामा पहने हुए थे। यात्रा पर गए विदेश मंत्री को विश्वास में लेने के बिना चीन ने वियतनाम पर आक्रमण कर दिया। 

वाजपेयी ने क्षुब्ध होकर यात्रा के अंतिम चरण को रद्द कर दिया और नई दिल्ली लौट आए। हिन्दू के एन. राम और मैं चीन के साथ अपना अनुरोध रखने के बाद रुके। हमने चीन-वियतनाम मोर्चे पर जाना पसंद किया। शुरू-शुरू में चीनी उत्साही थे लेकिन हम 2 दिनों तक इंतजार करने के बाद आधिकारिक प्रतिक्रिया के बाद वापस लौट आए। आगे की यात्रा संभव न थी। मैंने बैंकाक के लिए अपना रास्ता ढूंढ लिया। आबिद हुसैन जो बाद में वाशिंगटन में राजदूत बने, संयुक्त राष्ट्र की एक एजैंसी के साथ थे। 

आबिद हुसैन ने मुझे अपने एक सहयोगी के रूप में पेश किया। मुझे बाओ दाई परिवार के सदस्य के रूप में पेश किया, जो वियतनाम के अभिजात वर्ग में से एक था। बैंकाक में आबिद भाई का बाओ दाई दोस्त एक अच्छी पहुंच वाला व्यक्ति था। मेरे आगमन के एक दिन बाद मुझे वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी शुआन थाई के सैक्रेटरी जनरल का इंटरव्यू करने के लिए अनुमति प्रदान की गई। उन्होंने मेरे लिए सभी द्वार खोल दिए। मैं एकमात्र जर्नलिस्ट था, जो निर्णायक युद्ध समाप्ति वाले स्थल पर पहुंचा था जोकि वियतनाम के हक में रहा। वहां पर जश्न का माहौल था और यंत्रों को युद्ध स्थल से इधर से उधर किया जा रहा था। 

अमरीकी पत्रकारों ने कुछ भी न कहा क्योंकि वह वहां नहीं थे। वास्तव में हनोई के चित्रों को जिन्हें मैंने अपने कैमरे से खींचा था, का इस्तेमाल टाइम मैगजीन ने किया। अमरीकी समाचार पत्रों में इस बारे में कुछ नहीं कहा। इस युद्ध ने संभवत: वैश्विक शक्ति के समीकरणों को बदल दिया था। यहां तक कि अमरीकी अपने दोस्त की हार से खुश न थे वह भी अपने पुराने अपराधी वियतनाम के हाथों से।-सईद नकवी
     

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