आखिर कब जागेगा दलित समाज

Friday, Jun 01, 2018 - 04:55 AM (IST)

क्या मतांतरण के बाद दलितों को सम्मान और न्याय मिल पाया है? यदि वर्तमान समय में दलितों की स्थिति संतोषजनक नहीं है, तो क्या भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम या ईसाई मत उन्हें सामाजिक न्याय दिला सकता है? यह प्रश्न केरल की उस घटना से जनित है, जिसमें गत दिनों एक दलित-ईसाई केविन पी. जोसेफ की निर्मम हत्या केवल इसलिए कर दी गई क्योंकि उसने ईसाई मत की एक उच्च जाति की युवती से प्रेम विवाह करने का ‘दुस्साहस’ किया था। 

वामपंथी दशकों से और आज भी दलित-मुस्लिम गठजोड़ की वकालत कर रहे हैं। चर्च भी दलितों को मतांतरण के बाद एक आदर्श और सम्पन्न समाज का स्वप्न दिखाता है। स्वाधीनता पूर्व से दलित इस प्रोपेगंडा का शिकार होते रहे हैं। वामपंथियों के समर्थन से मुस्लिम लीग ने इसी कुत्सित गठबंधन में बंगाल के दलित नेता जोगेंद्रनाथ मंडल को शामिल किया था, जो पाकिस्तानी संविधान सभा के अध्यक्ष और बाद में वहां की पहली सरकार में मंत्री भी बनाए गए। मंडल को ‘दलित-मुस्लिम भाई-भाई’ नारे का भयावह रूप तब दिखा, जब मुस्लिम लीग अपने मजहबी एजैंडे के अंतर्गत पाकिस्तान को काफिरों से मुक्त करने में जुट गया।

ताजा मामला केरल के कोट्टायम से संबंधित है। 2 वर्षों के प्रेम-प्रसंग के बाद केविन ने 25 मई को अपनी 20 वर्षीय प्रेमिका नीनु चाको से एट्टुमनूर स्थित सब-रजिस्ट्रार कार्यालय में शादी कर ली। इसे लेकर युवती के परिजनों ने थाने में शिकायत भी दर्ज करवाई, जिसके बाद पुलिस ने नीनु को जबरन उसके माता-पिता के पास भेजने की कोशिश भी की किन्तु वह नहीं गई। 27 मई (रविवार) की सुबह तीन वाहनों में सवार होकर हथियारों से लैस कुछ बदमाश आए और उन्होंने मारपीट के बाद केविन और उसके चचेरे भाई अनिश का अपहरण कर लिया। जब परिजन शिकायत करने स्थानीय पुलिस थाने पहुंचे, तब सहायक-अधीक्षक ने मुख्यमंत्री के दौरे में व्यस्त होने की बात कहकर मदद करने से इंकार कर दिया। 

अनिश को उन लोगों ने छोड़ दिया, किन्तु 28 मई को कोल्लम की एक नहर से केविन का शव क्षत-विक्षत स्थिति में मिला। हत्या का मामला सामने आने के बाद पुलिस-प्रशासन ने शिकायत दर्ज नहीं करने वाले आरोपी सहायक-अधीक्षक को निलंबित कर अपहरण और हत्या के आरोप में दर्जन भर लोगों को नामजद कर लिया। मामले में युवती के पिता-भाई के अतिरिक्त जिन तीन लोगों-नियाज, रियाज और इशान को गिरफ्तार किया गया है, वे सभी वामपंथी छात्र संगठन डैमोक्रेटिक यूथ फैडरेशन ऑफ  इंडिया के सक्रिय कार्यकत्र्ता हैं। 

यह सच है कि यदि पुलिस लापरवाही नहीं दिखाती तो केविन आज जीवित हो सकता था, किन्तु इस घटनाक्रम को केवल पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता का परिणाम बताना और पूरे मामले को उसी चश्मे से देखना, क्या उचित है? जब भी भारत में दलितों पर अत्याचार की घटना सामने आती है, विकृत तर्क-कुतर्कों की झड़ी लगा दी जाती है। क्या केविन हत्या मामले पर निष्पक्ष चर्चा की आवश्यकता नहीं? दलित-ईसाई केविन की नृशंस हत्या ने चर्च और ईसाई मिशनरियों के उस खोखले दावे व मतांतरण के बाद की सच्चाई को उजागर किया है, जिसमें वह देश के शोषित वर्गों, विशेषकर दलितों को छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति दिलाने का भरोसा देकर संपन्न समाज का स्वप्न दिखाकर छल, भय और प्रलोभन के माध्यम से मतांतरण के लिए प्रेरित करते हैं। 

मई 2014 के बाद जिन गिने-चुने दलित-अत्याचारों को लेकर देश के स्वघोषित सैकुलरिस्ट, वामपंथी और तथाकथित उदारवादियों-प्रगतिशीलवादियों ने अपनी छाती पीटकर और भारत को कलंकित कर भाजपा-संघ की दलित विरोधी छवि बनाने की कोशिश की है, उसी विकृत समाज की केविन हत्याकांड पर कैसी प्रतिक्रिया है? देश में शांति है। असहिष्णुता नाम की कोई चीज नहीं है। आंदोलन नहीं हो रहा है। बुद्धिजीवी पुरस्कार नहीं लौटा रहे हैं। अधिकतर समाचारपत्र और न्यूज चैनल खबर देने तक सीमित हैं। मृतक के परिजनों को न करोड़ों की वित्तीय और आवासीय सहायता मिली है और न ही किसी सदस्य को नौकरी का प्रस्ताव। 

केविन हत्याकांड पर देश में इस उपरोक्त परिदृश्य के 4 प्रमुख कारण हैं। पहला-घटनाक्रम में शामिल दोनों परिवार घोषित रूप से गैर-हिन्दू हैं। दूसरा-दलित-ईसाई केविन की हत्या करने वाले अधिकतर वामपंथी छात्र इकाई के सक्रिय नेता/कार्यकत्र्ता हैं, जिनकी विचारधारा का मूल ही हिंसा है। तीसरा-जिस राज्य में केविन की हत्या हुई, वहां भाजपा की सरकार नहीं है। चौथा और सबसे महत्वपूर्ण-चर्च की भूमिका। दिसम्बर 2016 को कैथोलिक बिशप कांफ्रैंस ऑफ  इंडिया (सी.बी.सी. आई.) के नीति-पत्र में स्वीकार किया गया है कि चर्च में दलित-ईसाइयों से छुआछूत और भेदभाव बड़े स्तर पर मौजूद है। केरल में दलित ईसाई को उच्च ईसाई जातियों, विशेषकर सीरियाई ईसाई समाज में शादी करने की अनुमति नहीं है। दलित ईसाइयों का सीरियाई चर्चों और कब्रिस्तान में प्रवेश वर्जित है। उनके लिए केरल और अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों में अलग से व्यवस्था की गई है। आखिर ईसाई समाज में व्याप्त इस कटु सत्य रूपी जातिभेद को स्वीकार करने में देश के तथाकथित सैकुलर क्यों हिचकते हैं? 

भारत में ईसाई मत का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा मसीह के देहांत के दो दशक बाद ही सेंट थॉमस केरल के तट पर पहुंचे, जिसके बाद कालांतर में स्थानीय लोगों ने ईसाई मत को अंगीकार किया। वे सभी सीरियाई चर्च को मानने वाले थे। कई शताब्दियों तक वे सभी अन्य मत-मतांतरों के साथ शांति और भाईचारे के वातावरण में रहे। समस्या तब पैदा हुई जब क्रूसेड के नाम पर पुर्तगाली, डच और अंग्रेज भारतीय तटों पर उतरे और उनके साथ रोमन कैथोलिक चर्च का भी आगमन हुआ। पुर्तगालियों को यहां ईसाई मत का तत्कालीन स्वरूप, जो किसी तरह से यूरोप से संचालित नहीं था और न ही वहां के रीति-रिवाजों को मानता था, बिल्कुल भी पसंद नहीं आया। उन्होंने साम, दाम, दंड, भेद के साथ लोगों को ईसा के चरणों में शरण लेने के लिए बाध्य किया, जिसके बाद भारत में कैथोलिक ईसाइयत का विस्तार होने लगा। 

क्या भारत में ईसाइयत अपनाने वाले दलितों की स्थिति सुधरी है? दलित ईसाइयों की हालत आज उन दलित जातियों से भी अत्यधिक दयनीय है, जो चुनौतियों से संघर्ष का मार्ग स्वीकार कर आगे बढऩे के लिए प्रयासरत हैं। विदेशी धन-बल और स्वघोषित सैकुलरिस्टों के आशीर्वाद से चर्चों का देश के 30 प्रतिशत शिक्षा और 22 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिकार है। भारत सरकार के बाद चर्च के पास सर्वाधिक भूमि है और वह भी अधिकतर देश के पॉश क्षेत्रों में। भारत में कैथोलिक चर्च के 6 कार्डिनलों में से एक भी दलित नहीं है। 30 आर्कबिशप (लाट पादरियों) में से कोई दलित नहीं है। 175 बिशप में केवल 9, तो 25 हजार कैथोलिक पादरियों में 1,130 दलित-ईसाई हैं। क्या चर्च व्यवस्था में दलित-ईसाइयों की भागीदारी सुनिश्चित किए बिना मतांतरित ईसाइयों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बदलाव संभव है?-बलबीर पुंज

Pardeep

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