अमरीका-चीन ‘व्यापार युद्ध’ से भारत को क्या मिलेगा

Thursday, Jul 26, 2018 - 04:36 AM (IST)

संयुक्त राज्य अमरीका और चीन  द्वारा माल एवं सेवाओं के प्रवाह को प्रतिबंधित करने के जबरदस्त प्रयासों के चलते समकालीन विश्व राजनीति में ‘व्यापार-युद्ध्र’ एक जीवंत रूपक की तरह बन गया है। यह वातावरण शीत युद्ध की तरह है जहां कोई वास्तविक युद्ध तो नहीं है लेकिन अनिश्चितता का जाल फैला हुआ है। 

किसी भी नुक्ता-ए-नजर से यह आसानी से कहा जा सकता है कि व्यापार युद्ध में कोई विजेता नहीं है, क्योंकि टैरिफ या शुल्क लगाने के लिए एकतरफा कार्रवाई कभी सफल रणनीति नहीं रही है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापारों के बीच बनती इस अदृश्य दीवार के मद्देनजर, भारत को लाभ का हिस्सेदार होने के लिए बारीक प्रतिवादों तथा निगरानी और कार्रवाई के न्यायसंगत मिश्रण के बारे में सोचना है। 

संयुक्त राज्य अमरीका से आगे निकल जाने का चीनी पूर्वानुमान समस्याग्रस्त लगता है क्योंकि यह उसकी गहन कमजोरियों में स्पष्टत: परिलक्षित है। इसका विकास मॉडल भी अपनी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए खतरा है। ऋण, जोकि इसके विकास का मुख्य इंजन है, बैंकिंग प्रणाली पर बढ़ते कई गुणा बोझ की गति को देखते हुए अब अप्रबंधनीय लगता है। इसकी महत्वाकांक्षी परियोजनाएं जो निर्यात पर अत्यधिक निर्भर हैं, को मद्देनजर रखते हुए व्यापार युद्ध अमरीका के लिए चीन से अधिक हितकारी है। बाजार के रुझानों के अनुसार चीनी युआन और चीनी स्टॉक इन व्यापारीय मामलों से प्रभावित होते हैं। 

उसी क्रम में, संयुक्त राज्य अमरीका चीनी सामानों पर अधिक टैरिफ की योजनाओं के लिए प्रयास करता है, जो ग्रामीण अमरीका को भी प्रभावित करेगा। अपेक्षाएं अधिक हैं कि चीन इसका प्रतिशोध करेगा। विश्व व्यापार संगठन सतत् वर्षों की वार्ता की उपज है। नियमों के इन समुच्चयों का उद्देश्य व्यापार-वार्ता में समानता हासिल करना है। संयुक्त राज्य अमरीका ने पूर्व में सहमति दी लेकिन समय बीतने के साथ, वर्तमान ट्रम्प शासन ने खुद की इसके प्रति समक्षता में आनाकानी करनी शुरू कर दी। किसी भी विश्वस्तरीय प्रोजैक्ट के लिए, गतिरोध पैदा होता ही है और अपनी डफली अपना राग की स्थिति पैदा हो जाती है।

हालांकि किसी भी संकट का इस्तेमाल उसको समाप्त करने के प्रयास के रूप में निश्चित तौर पर वैश्विक राजनीति में मुद्दों के लिए अपरिपक्वता को व्यक्त करना है। संयुक्त राज्य अमरीका ने ट्रांस-प्रशांत भागीदारी, पैरिस जलवायु समझौते जैसे वैश्विक और क्षेत्रीय समझौतों में व्यापार-बंदियों में असमानताओं के प्रति असंतोष व्यक्त किया है। अस्थिरता सदैव ही राष्ट्रपति ट्रम्प के निर्णयों की बानगी रही है। अफसोस की बात है कि इन रूढ़ चालों में कोई अभिनव प्रयोग तो दूर बल्कि इसने स्थिति को एक चिंताजनक ठहराव की ओर धकेल दिया है। इसके प्रतिकूल प्रभाव को देखा जाए तो यह विश्व मामलों में पारस्परिक सहयोग की भावना को खंडित करेगा। 

चीन का ईरान से तेल खरीदने या यूरोपीय संघ की तरफ रुख करने या रूस से सोयाबीन खरीदने जैसी छोटी पहलें, कुछ ऐसे विकास हैं जो बड़े पैमाने पर इसका परिचालन दिखाते हैं। व्यापार युद्ध के साथ-साथ वैश्विक व्यवस्था के लिए और भी चुनौतियां हैं। मसलन उत्तरी कोरिया जैसे राष्ट्र की परमाणु हथियारों के साथ दुनिया को खत्म करने की धमकी, भारत-प्रशांत क्षेत्र में उपजते नए तनाव आदि। इसके बीच यह भी देखा जा सकता है कि बढ़ते उपभोक्ता बाजारों के साथ, यूरोप और एशिया वैश्विक अर्थव्यवस्था को फिर से नया रूप देंगे। 

अब जब एशिया संयुक्त राज्य अमरीका के परे इस आर्थिक एकीकरण परियोजना का नेतृत्व कर रहा है तो भारत इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का अग्रणी होने के साथ-साथ मामला चाहे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अलोकतांत्रिक रवैये का हो, भारत ने हमेशा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सकारात्मक योगदान दिया है। साथ ही भारत को अपने वैश्विक लक्ष्यों के प्रति उदासीन रहने का रवैया छोडऩा होगा। उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की क्षमता विशाल है। अतीत में, भारतीय उद्योग, जैसे फार्मास्युटिकल्स, आई.टी. सेवाओं को चीनी टैरिफ  के कारण संकट का सामना करना पड़ा था। 

भारत को इस स्थिति को सुधारने के अवसर का इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही अमरीका ने भारतीय एल्युमीनियम और इस्पात आयात पर टैरिफ लगाए जो व्यापारी समुदाय को निराश कर रहे हैं। मोदी-ट्रम्प के अच्छे समीकरण के बावजूद, इसका कोई ठोस लाभ नहीं मिला है। यही कारण है कि भारत को अमरीका की मनमानी टैरिफ अराजकता के प्रति रक्षात्मक होना चाहिए। व्यापार एकतरफा नहीं चल सकता, जब कोई बाजार बंद हो जाता है तो अन्य बाजार खुले होते हैं। अगर अमरीका संरक्षणवादी नीतियों का रास्ता अपनाता है, तो भारत को परेशानियों को लेकर मुखर होना होगा। 

भारत को न्यायसंगत घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों द्वारा अपनी अर्थव्यवस्था का नियमन करना है। हम जी.एस.टी. के निराशाजनक कार्यान्वयन और थोक मुद्रास्फीति में वृद्धि के साथ विमुद्रीकरण की असफलता पर जार-जार हैं। बड़े किन्तु महत्वपूर्ण इन्फॉर्मल सैक्टर से नकदी का अचानक गायब हो जाना एकीकृत आर्थिक क्षेत्रों के लिए घातक झटका था। इन सभी में सुधार किया जाना चाहिए क्योंकि कोई भव्य दृष्टि या चुनावी वादे काम नहीं करेंगे यदि पहले से ही अस्थिर अर्थव्यवस्था बाहरी तंत्र की अशांति के कारण और अधिक अस्थिर हो जाती है। प्रौद्योगिकी को प्रभुत्व के नए बुनियादी ढांचे के रूप में देखा जा रहा है। 

अमरीका चीन की तकनीकी उन्नति को बाधित करने की कोशिश कर रहा है। 5जी के बारे में समाचार और स्पैक्ट्रम आबंटन अब सामने आ रहे हैं। भारत को इसके प्रति संजीदा होना चाहिए क्योंकि स्वयं इसके सामने एक महत्वाकांक्षी डिजीटल लक्ष्य है। यह वाजिब समय है कि वैश्विक क्षेत्र में हमारे बकाया रह गए संक्रमण के बारे में बात करनी चाहिए तथा इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि भारतीय प्रौद्योगिकी उद्योग हमले के लिए तैयार है या नहीं, क्योंकि अमरीका या अन्य हितों को प्रभावित करने पर इस पर भी आक्रमण किया जा सकता है। विश्व पर मंडराती अनिश्चितता के साथ, वैश्विक खपत में गिरावट आई है। भारतीय उपभोक्ता को नवीन रूप से सोचने और अधिक खर्च करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए।

सरकार को इस बाहरी इनपुट को उपयुक्त घरेलू नीति के माध्यम से समर्थन देना चाहिए। बैंकिंग संकट को अधिभूत करने वाली विशाल गैर-निष्पादित संपत्तियों और ऋण-दोषियों के मामले को मद्देनजर रखते हुए हमारे नीतिज्ञों को इसे दूर करते हुए तंत्र और अधिक मजबूत बनाने के लिए काम करने की जरूरत है। भारतीय उत्पाद अमरीकी बाजार के लिए प्रतिस्पर्धी बन गए हैं और चीन वैश्विक स्तर पर अमरीकी प्रभुत्व को विफल करने के लिए भारत के करीब आ रहा है। यह व्यापार युद्ध भारत की ओर चीनी नीतियों में बदलाव ला रहा है। अपने उत्पादों के लिए बाजारों की नई जरूरतों की तलाश में, चीन मुक्त व्यापार क्षेत्र के विचार-विमर्श के रास्ते पर भी है। भारत को इस संबंध में अपनी सौदा-शक्ति का सावधानी से उपयोग करना होगा, ताकि वाणिज्यिक संबंध और भू-राजनीति के बीच का तनाव संतुलित रहे।-डा. आमना मिर्जा  

Pardeep

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