कैसी होगी विपक्ष की भावी तस्वीर

Monday, Mar 21, 2022 - 04:39 AM (IST)

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद भारतीय राजनीति के परिदृश्य को नए सिरे से देखने की जरूरत है। यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठ रहा है कि आखिर भाजपा के समक्ष विपक्ष की तस्वीर क्या होगी। विपक्ष की बड़ी तस्वीर की संभावना भाजपा के कमजोर होने और विपक्षी पार्टियों के बेहतर प्रदर्शन तथा आपसी एकजुटता की ईमानदार मानसिकता पर निर्भर करती है। चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस की किसी तरह की राजनीतिक मोर्चाबंदी या समीकरणों में प्रभावी भूमिका  की संभावना तत्काल खत्म हो गई। 

पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद से तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी शीर्ष पर दिख रही थीं। उन्होंने अपनी आक्रामकता और पहलकदमियों से यह आभास कराया कि वह बंगाल के बाहर अन्य राज्यों में अपनी उपस्थिति का विस्तार करते हुए भाजपा विरोधी संभावित मोर्चा का नेतृत्व करने की ओर अग्रसर हैं। उन्होंने विरोधी पार्टियों के नेताओं से मुलाकातें भी कीं। इस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस का दांव गोवा और मणिपुर में था। दोनों जगह असफलता हाथ लगी। इससे पहले त्रिपुरा के स्थानीय निकाय चुनाव में भी तृणमूल कांग्रेस को सफलता नहीं मिली। इसके समानांतर अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली से बाहर निकलकर पंजाब में सफलता के शानदार झंडे गाड़े हैं। 

वास्तव में पश्चिम बंगाल की लोकसभा सीटों के कारण ममता बनर्जी की हैसियत अभी भी विपक्ष के बीच बड़ी है। 2024 लोकसभा चुनाव के पहले जिन राज्यों में चुनाव हैं उनमें त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम में तृणमूल हाथ आजमा सकती है। गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना जैसे राज्यों में अभी तक तृणमूल के लिए संभावना बिल्कुल नहीं है। ममता बनर्जी जिस तरह उत्तर प्रदेश में वाराणसी आईं वैसा वह दूसरे कुछ राज्यों में जाकर विपक्षी दलों के साथ खड़ी हो सकती हैं, लेकिन उससे चुनाव परिणामों में ज्यादा अंतर नहीं आएगा। अगर त्रिपुरा में ममता बनर्जी ने थोड़ी सफलता प्राप्त कर ली तो पूरे देश में भाजपा विरोधी गैर-राजनीतिक शक्तियों एवं ऐसे दल, जिनका केंद्रीय राजनीति में अपना कुछ दांव पर नहीं है, उनका समर्थन करेंगे। लेकिन भाजपा नेतृत्व वाला राजग पूर्वोत्तर की प्रमुख शक्ति बन चुका है, उसे डिगाना कठिन है। 

दूसरी ओर आम आदमी पार्टी ने कर्नाटक में तैयारी शुरू कर दी है। वहां पूरी राजनीति भाजपा, कांग्रेस और जनता दल (सैक्युलर) के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है। केंद्रीय स्तर पर कमजोर होने के बावजूद कांग्रेस अभी वहां बची है, हालांकि अंदरूनी कलह जारी है। अरविंद केजरीवाल की राजनीति का तौर-तरीका ऐसा है, जिसका दूसरी पार्टियों के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाता है। हालांकि जिन राज्यों में चुनाव है, उनमें उनका कोई जनाधार नहीं है। केजरीवाल हिमाचल, गुजरात और कर्नाटक में जरूर जोर आजमाइश करेंगे। इन तीनों जगह उनके मुख्य निशाने पर कांग्रेस ही है। 

काफी संख्या में कांग्रेस के नेता भाजपा में चले गए हैं या जाने की कतार में हैं। दूसरी ओर उनके सामने अब ‘आप’ के रूप में एक विकल्प उपलब्ध हो गया है। हो सकता है काफी नेता ‘आप’ में जाएं तथा  इसका थोड़ा बहुत लाभ उसे मिल जाए। कर्नाटक में भी वह कांग्रेस की कमजोरी का लाभ उठाने की कोशिश कर रही है। ‘आप’ के पास चुनाव लडऩे और प्रचार के लिए संसाधन की कभी कमी नहीं रही। गुजरात, कर्नाटक और हिमाचल तीनों जगह वह जितना भी वोट काटेगी, उसमें ज्यादा कांग्रेस का होगा। अगर उसने कुछ सीटें भी खींचीं तो स्वयं को अखिल भारतीय पार्टी के रूप में प्रचारित कर लोकसभा में चुनाव में दमखम से उतरेगी। इससे भाजपा को बड़ी क्षति की संभावना नहीं लेकिन विपक्ष के अंदर समस्या जरूर पैदा होगी।

लोकसभा चुनाव में केजरीवाल की योजना अन्य राज्यों में भी उम्मीदवार खड़ी करने की है इसमें वे महाराष्ट्र भी जा सकते हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव अचानक मोदी विरोधी अभियान के लिए विपक्षी राज्यों का दौरा करने लगे। यह कहना मुश्किल है कि विधानसभा चुनाव में उनकी हैसियत क्या रहती है। भाजपा वहां पहले से ज्यादा शक्तिशाली हुई है। चंद्रशेखर राव अगर सत्ता में बने रहते हैं तभी उनकी हैसियत विपक्ष में बढ़ेगी। शरद पवार क्या करेंगे, यह कहना कठिन है। महाराष्ट्र के बाहर राकांपा की कोई हैसियत नहीं बन पाई। शिवसेना भी वहीं टिकी है। दक्षिण में द्रमुक की सीमा तमिलनाडु तक है और वह शायद ही कांग्रेस से स्वयं को अलग करे। आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी और ओडिशा में नवीन पटनायक को विपक्षी खेमेबंदी से कोई लेना-देना नहीं। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव और झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन दोनों ऐसे नेता हैं जो विपक्ष के साथ जाएंगे, पर अपनी ओर से समीकरण बनाने की कोशिश नहीं करेंगे। 

कुल मिलाकर विपक्षी खेमे में 4 चेहरे सामने रह जाते हैं-राहुल गांधी, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और  शरद पवार। राहुल गांधी और कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर इन तीनों में से शायद ही कोई साथ लेने पर विचार करे। केजरीवाल ममता का नेतृत्व स्वीकार करेंगे, इसकी संभावना कम है। उनका चरित्र स्वयं के नेतृत्व में ही दूसरों से काम करवाने का है, इस कारण उनकी पार्टी के सारे बड़े नाम वाले नेताओं को बाहर जाना पड़ा। शरद पवार अपनी ओर से कोई बड़ी और प्रभावी पहल करने की स्थिति में नहीं। गुजरात में भाजपा को क्षति की संभावना नहीं है। विपक्षी पाॢटयां कर्नाटक और उसके बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनाव परिणामों की प्रतीक्षा करेंगी, जहां बहुत बड़े उलट-फेर की संभावना अभी तक दिखाई नहीं पड़ रही। सारी परिस्थितियों का तात्कालिक निष्कर्ष यही है कि 2024 से पूर्व विपक्ष की ओर से किसी बड़ी गोलबंदी की संभावना नहीं है।-अवधेश कुमार
 

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