2019 के लोकसभा चुनाव आखिर किन मुद्दों पर लड़े जाएंगे

Monday, Mar 19, 2018 - 03:17 AM (IST)

2019 के चुनाव किस मुद्दे पर लड़े जाएंगे? यह चुनाव अभी एक वर्ष दूर हैं और कुछ ही महीनों में पार्टियां और गठबंधन अपनी-अपनी तैयारियां पूरी कर चुके होंगे। अपने चुनावी संदेश को अधिकतम प्रभावशीलता प्रदान करने के लिए वह इस प्रकार की पैकेजिंग करें और किस तरीके से इसे कार्यान्वित करें-यह पता लगाने के लिए वह विज्ञापन एजैंसियों के साथ-साथ पोलिंग एजैंसियों और मार्कीटिंग विशेषज्ञों के पास जाएंगे। 

2014 के अपने सफल चुनावी अभियान के लिए भाजपा ने चुनावी विज्ञापन एजैंसी ओगिल्वी एंड मैथर की सेवाएं ली थीं जबकि कांग्रेस ने ‘दैंत्सू’ का हाथ थामा था। जहां तक मुझे याद है भारतीय राजनीति में पहली बार किसी विज्ञापन एजैंसी की सेवाएं ली गई थीं जब राजीव गांधी ने ‘रीडिफ्यूजन’ नामक विदेशी एजैंसी को चुनावी प्रचार की कमान सौंपी थी। अबकी बार एक बार फिर राजनीतिज्ञ सूट-बूट धारी व्यक्तियों के साथ मीटिंगें करेंगे जो ‘पावर प्वाइंट’ प्रस्तुतियों के माध्यम से ऐसा संदेश तैयार करेंगे जो नागरिकों को सबसे अधिक अपील करता हो।

‘यह दिल मांगे मोर’ तथा ‘यह अंदर की बात है’ अथवा ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसे चुनावी नारों के साथ मार्कीटिंग की उस्ताद ऐसा प्रचार मुहावरा तैयार करेंगे जो हर किसी के मुंह पर चढ़ सके। 2014 के चुनाव से सीखे हुए सबक दोहराए जाएंगे यानी कि सोशल मीडिया एवं टैक्नोलॉजी पर भारी निवेश बहुत लाभदायक होता है। 2019 के चुनाव में यह रुझान प्रचुर मात्रा में देखने को मिलेगा। इस तरह ढेर सारे लोग चुनावों में ढेेर सारी कमाई करेंगे। भाजपा ने चुनाव आयोग को जानकारी दी थी कि 2014 के चुनावी अभियान में इसने 714 करोड़ रुपए खर्च किए थे जबकि कांग्रेस ने 516 करोड़ रुपए खर्चे। शरद पवार की राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (राकांपा)जैसी केवल एक ही राज्य तक सीमित पार्टी ने 51 करोड़ रुपए खर्च करने की रिपोर्ट दी थी। 2019 में इन खर्चों के दोगुनी या तिगुनी होने की उम्मीद करनी चाहिए। वैसे इसमें वह पैसा शामिल नहीं होगा जो उम्मीदवारों द्वारा नकद रूप में खर्च किया जाएगा या बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा पार्टियों की ओर से खर्च किया जाएगा (जैसा कि भारत में आम ही होता है।) 

प्रमुख उम्मीदवारों में से हर कोई बहुत आसानी से 15 करोड़ रुपए खर्च करेगा। इसमें वह पैसा शामिल नहीं होगा जो उसे टिकट हासिल करने की कीमत के रूप में अदा करना पड़ा होगा। समूचे रूप में मेरा अनुमान है कि मई 2019 से पहले-पहले कम से कम 25 हजार करोड़ रुपए का लेन-देन केवल चुनाव के संबंध में ही होगा। यदि आपको यह लगता हो कि यह संख्या अविश्वसनीय है तो मैं आर्थिक दैनिक समाचार पत्र इक्नामिक टाइम्स के उस पत्र का उल्लेख करना चाहूंगा जिसमें बताया गया था कि 2017 के यू.पी. के चुनाव में लगभग 5500 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। चुनाव के दौरान समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों को राजनीतिक विज्ञापनबाजी से बहुत अधिक अतिरिक्त आय होगी। वैसे इस विज्ञापनबाजी का बहुत बड़ा हिस्सा खबरों के रूप में पेश किया जाएगा। अनेक सौदेबाजियां होंगी और जैसा कि नीरव मोदी के स्कैंडल से जाहिर हुआ है, भ्रष्टाचार की शुरूआत और अंत गैर भ्रष्ट नेता के आने से नहीं हो जाता। 

राजनीतिक पार्टियां भावनाओं को ताक पर रखकर इस मामले में कठोर गणित लड़ाएंगी कि किस गठबंधन से उन्हें सबसे अधिक लाभ पहुंचेगा। कुछ नेता अपने विकल्प खुले रखेंगे ताकि प्रारम्भ में उन्हें अच्छा लाभ मिल सके और चुनाव के बाद वह अधिक लचकदार सौदेबाजी भी कर सकें। 2019 से पहले चुनाव में से गुजरने वाले चार राज्यों मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजे बहुत-सी क्षेत्रीय पाॢटयों को यह निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करेंगे कि वह राहुल गांधी से कितनी समीपता या कितनी दूरी बनाकर रखें। गत 6 वर्षों दौरान भाजपा ने जो बड़ी-बड़ी चुनावी जीतें दर्ज की हैं, उनके कारण अब इसके विरोधियों को भी पूरी तरह समझ आ चुका है और उन्होंने अपनी-अपनी पार्टी को चाक-चौबंद बना लिया है। इसी कारण ऐसे गठबंधन बन रहे हैं जिनकी कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी, जैसे कि यू.पी. में मायावती और अखिलेश के बीच गठबंधन सम्भव होना। 

फिर से उस प्रश्र की ओर मुड़ते हैं जहां से हमने बात शुरू की थी कि 2019 के चुनाव किस मुद्दे पर लड़े जाएंगे? यह बात इस तथ्य पर निर्भर करेगी कि इस चुनाव में मुख्य मुहावरे (विमर्श) पर किसका नियंत्रण होगा।  2014 में इस पर सत्तारूढ़ पार्टी का नहीं बल्कि विपक्षी पार्टी का नियंत्रण था। सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस को अपने भ्रष्टाचार के मामले में अपनी कारगुजारी का समर्थन करने को मजबूर होना पड़ा था और अपने नेता की शानदार काबिलियतों पर भाजपा हर ओर से हल्ले पर हल्ला बोल रही थी। 2009 में भाजपा ने दो विज्ञापन एजैंसियों ‘फ्रैंक सिमोय-टॉग’ और ‘यूटोपिया’ से अनुबंध किया था और दोनों ने लाल कृष्ण अडवानी को सशक्त नेता के रूप में प्रस्तुत करने वाले चुनावी अभियान की परिकल्पना की थी। तब भाजपा का नारा था ‘मजबूत नेता, निर्णायक सरकार’ जो स्पष्ट रूप में मनमोहन सिंह को असमंजस के शिकार नेता के रूप में प्रस्तुत करता था जबकि वास्तविक रूप में ऐसा नहीं था। उसी वर्ष में कांग्रेस ने ‘जे. वाल्टर थामसन’ नामक एजैंसी की सेवाएं ली थीं जिसने ‘आम आदमी’ का नारा गढ़ा था। वैसे बाद में अरविंद केजरीवाल ने इस नारे का अपहरण कर लिया। 

कभी-कभार ऐसा होता है कि चुनावी अभियान पर छाया हुआ विमर्श भी जीत नहीं दिला पाता। 2004 में ‘ग्रे वल्र्डवाइड’ नामक एजैंसी ने अटल बिहारी वाजपेयी के लिए ‘इंडिया शाइनिंग’ अभियान का सृजन किया था। लेकिन इसका नतीजा एक ऐसी पराजय के रूप में सामने आया जिसकी किसी ने भी परिकल्पना नहीं की थी और आज तक इसके कारणों की भी पूरी तरह थाह नहीं पाई जा सकी। मुझे नहीं लगता कि 2019 के चुनाव किसी सकारात्मक विमर्श के आधार पर लड़े जाएंगे। इससे मेरा अभिप्राय यह है कि इस चुनाव में ‘अच्छे दिन’ जैसा नारा न तो सरकारी पक्ष द्वारा प्रस्तुत किया जा सकेगा और न ही विपक्ष द्वारा। अर्थव्यवस्था में कोई खास बात अवघटित नहीं हो रही और मुझे नहीं लगता कि नागरिकों के रूप में हमारा जीवन 2014 की तुलना में कोई अधिक भिन्न है। कुछ दिन पूर्व मैं एक भाजपा नेता से बातचीत कर रहा था और उसने बताया कि अयोध्या मुद्दा बहुत उभर कर फोकस में आएगा।

फिलहाल भाजपा इसे बिल्कुल नहीं छू रही लेकिन बहुत जल्दी यह स्थिति बदल रही है। सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कर रहा है और सम्भव है कि इस पर फैसला बहुत जल्द आ जाएगा। कुछ दिन पूर्व शीर्षस्थ अदालत ने सुब्रमण्यम जैसे व्यक्तियों के आवेदन खारिज कर दिए थे जो इस मामले में विपक्ष बनने का प्रयास कर रहे थे। न्यायालय ने किसी बीच-बचाव की अवधारणा को भी रद्द कर दिया और बुद्धिमतापूर्ण टिप्पणी  की कि ‘‘भूमि विवाद के मामले में बीच का रास्ता कैसे ढूंढा जा सकता है?’’ सुप्रीम कोर्ट का फैसला चाहे कुछ भी हो लेकिन पूरी सम्भावना है कि अगले चुनाव में यह मुद्दा बनेगा और मैं तो यह सोचकर ही कांप जाता हूं कि इस स्थिति में चुनावी अभियान का संदेश क्या होगा।-आकार पटेल

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