अंतर्जातीय विवाह को लेकर यह कैसी मानसिकता

Saturday, Jul 31, 2021 - 05:58 AM (IST)

भारतीय समाज में लड़कियों को अपने करियर के चुनाव की भरपूर छूट है। माता-पिता को भरोसा भी होता है कि उनकी बेटी पायलट, डाक्टर और कलैक्टर आदि अवश्य बन जाएगी। मगर जब उसी बेटी की शादी की बात आती है तो माता-पिता उसे नासमझ मानकर उसके जीवन में अपने झूठे सम्मान और स्वाभिमान की दीवार खड़ी कर उसके अधिकारों का हनन करते दिखते हैं। जो माता-पिता अथवा भाई ताली बजाते हुए महिला सशक्तिकरण का बखान करते नहीं थकते थे, अब उनके भीतर एक संभावित हत्यारा आ छिपता है। 

हाल में ऐसी अनेक घटनाएं सामने आई हैं जिसमें अपनी पसंद के विवाह की वजह से लड़की की हत्या कर दी गई। बहरहाल, भारतीय समाज में आज भी लोगों को ऐसा कहते सुना जा सकता है कि मेरे खानदान में लड़कियां लव मैरिज अथवा अपनी मनमर्जी से शादी नहीं करतीं। अक्सर ऐसे ही खानदान अपनी बेटियों के प्रति बंधुआ मजदूर जैसी भावनाएं रखते हैं और उनको अपनी मनमर्जी से चलाने की कोशिश करते हैं। 

सी.एन.एन. की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में आज भी 95 फीसदी शादियां माता-पिता की मर्जी से होती हैं। क्या यह बात हैरानी वाली नहीं है? सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर बेटियां सही मायने में कब आत्मनिर्भर बनेंगी? क्या उनको अपना वर चुनने के लिए सदैव माता-पिता पर निर्भर रहना पड़़ेगा? हमारा समाज बेटियों को त्याग और बलिदान की मूर्ति तो मानता है लेकिन जब बेटियों की आजादी की बात आती है तो वही समाज कसमसाता जरूर है। बेटियों के बालिग होते हुए भी क्या नाबालिग मानकर उनकी इच्छाओं को अपने झूठे स्वाभिमान के जूतों तले रौंदते रहना न्यायोचित कहा जा सकता है? यह कैसा सशक्तिकरण है, जहां बेटियां अपनी मनमर्जी से शादी तक नही कर सकतीं। 

मनोविज्ञानियों का मानना है कि चूंकि भारतीय समाज में अक्सर कहा जाता है कि बेटियां पराई होती हैं, उन्हें दूसरे के घर जाना होता है, इसीलिए उसकी परवरिश एक अलग प्रकार से होने लगती है। इसी बात को लेकर फ्रांसीसी लेखिका और दार्शनिक सिमोन द बोउआर ने अपनी पुस्तक ‘द सैकेंड सैक्स’ में लिखा था कि ‘महिला पैदा नहीं होती बल्कि समाज द्वारा बनाई जाती है’। वास्तव में, आज भी लोग इस मानसिकता से बाहर नहीं निकल सके हैं, चाहे वह ग्रामीण समाज हो या शहरी। इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि आज भी बेटियों को अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने के लिए छोटे-मोटे पारिवारिक युद्ध से गुजरना ही पड़ता है। 

प्राय: देखा जाता रहा है कि परवरिश दौरान लड़कों के लिए कोई बंधन नहीं होते लेकिन लड़कियों के लिए बहुत सारे देखे जा सकते हैं। बेटियों को हिदायत दी जाती है कि उनको लड़कों के साथ घूमना-फिरना नहीं है, घर की इज्जत उसके ही हाथों में है। ऐसे में लड़कियां माता-पिता की इच्छा के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकतीं। बहुत से परिवारों में सजातीय विवाह का भी बहुत दबाव होता है। इसे वे घर की इज्जत, मान-सम्मान के साथ जोड़ कर देखते हैं। 

बच्चों के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा, ये माता-पिता उनके पैदा होने से पहले ही सोचने लगते हैं। फिर सालों का तजुर्बा, रिश्तों को समझना वे बच्चों से बेहतर जानते हैं। इसलिए बेटियां माता-पिता पर हमेशा भरोसा करती हैं। लेकिन बेटियों का भी अपना एक अलग अस्तित्व और पसंद होती है, माता-पिता इस बात को क्यों भूल जाते हैं? बेटियों को त्याग की मूर्ति बता कर उनकी पसंद को दबाना क्या उचित है?

 माता-पिता को चाहिए कि अपने झूठे दंभ को लेकर अपनी बेटियों के जीवन से न खेलें क्योंकि बेटियां माता-पिता का स मान और स्वाभिमान होती हैं, उनको खुश रखकर ही माता-पिता खुशी का अनुभव कर सकते हैं। कोई भी गलत निर्णय माता-पिता के साथ-साथ बेटी का जीवन भी नरक बना सकता है। इसलिए खासकर शादी के मामले में माता-पिता को उदार होने की जरूरत है। जाति-धर्म आदि के बंधनों में बंधकर बेटियों के जीवन को दांव पर लगाना कभी भी सही नहीं हो सकता। अगर बेटी खुश रहेगी तो ही परिवार मे खुशियां बिखरेंगी। 

बहरहाल, बेटियों को भी ध्यान रखना होगा कि परिवार के खिलाफ जाकर शादी करना समस्या का समाधान नहीं हो सकता। अगर प्रेम विवाह ही करना है तो जरूरी यह होगा कि अपने माता-पिता से आराम से बात की जाए। उनके मन में बसे जाति और समाज विरोधी सवालों को मिटाने की जरूरत होगी क्योंकि आज की पीढ़ी में लव मैरिज कोई नई बात नहीं है। 

इंडियन ह्यूमन डिवैल्पमैंट सर्वे के मुताबिक भारत में सबसे ज्यादा अंतर्जातीय विवाह मिजोरम में होते हैं तथा 46 प्रतिशत के साथ मेघालय दूसरे और 38 प्रतिशत के साथ सिक्किम तीसरे पायदान पर है तो वहीं ज मू-कश्मीर चौथे और गुजरात 5वें पायदान पर है। सर्वे में भारत के 33 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के कुल 41,554 घरों को शामिल किया गया था। सर्वे में शामिल 27 फीसदी लोगों ने माना है कि वे अपने समुदाय में ऐसे लोगों को जानते हैं, जिन्होंने दूसरी जाति में शादी की है। शहरों में यह आंकड़ा 36 फीसदी तक पहुंचता है। 

परिणामस्वरूप, अब माता-पिता को बदलते सामाजिक परिदृश्य के साथ कदमताल करनी ही होगी। आज के परिवेश में अंतर्जातीय विवाह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन इसके आड़े व्यक्ति का अहं और श्रेष्ठतावादी मानसिकता आती है और अक्सर बेटियों को त्याग के लिए तैयार किया जाता है। बजाय इसके, हम सब उदार बनें और अपने बच्चों के प्रेम को स्वीकार करें, तभी सही मायनों में आज के भारतीय समाज में उभरते पीढ़ी के अंतराल को पाटा जा सकेगा और एक स्वस्थ और सामंजस्य से परिपूर्ण समाज का निर्माण भी संभव हो सकेगा।-लालजी जायसवाल

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