पिता-पुत्र के संबंधों की व्याख्या क्या हो
punjabkesari.in Saturday, Mar 04, 2023 - 05:22 AM (IST)

एक कहावत है कि अगर बेटा कुपुत्र है तो उसके लिए धन संपत्ति जुटाना और छोड़कर क्यों जाना क्योंकि वह तो इसे नष्ट ही करेगा। इसके विपरीत अगर सुपुत्र है तो भी क्यों यह सब करना क्योंकि वह तो अपनी योग्यता से सब कुछ जुटा ही लेगा। इस सोच का आधार यही रहा होगा कि जीवन में जो कुछ जमा करो, वह अपने अर्थात् माता-पिता के उपयोग और उपभोग के लिए ही है। मतलब यह कि संतान के लिए जमीन-जायदाद, रुपया पैसा जमा करने का कोई अर्थ नहीं, यह सब जोडऩा अपने सुख और आरामदायक जिंदगी बिताने के लिए ही होना चाहिए। अपने मरने के बाद कौन इसका कैसा इस्तेमाल करेगा, यह सोचकर अपना वर्तमान बिगाडऩे की जरूरत नहीं है।
पुत्र दिवस : आज यह विषय इसलिए चुना क्योंकि कुछ वर्षों से अमरीका और इंगलैंड जैसे विकसित देशों और अब भारत में भी चार मार्च को राष्ट्रीय पुत्र दिवस मनाने की परंपरा चल पड़ी है। पश्चिमी देशों में वयस्क होने पर बेटे को अपना डेरा तंबू अलग गाडऩे की परम्परा उनके विकसित देश होने के दौर से पड़ती गई और अब वहां यह मामूली बात है। पिता यह सोचकर अपने को परेशान महसूस नहीं करता कि बेटा बालिग होकर अपनी दुनिया अलग बसाने जा रहा है बल्कि वह सहयोग करता है कि अलग होने की प्रक्रिया के दौरान बेटे को कुछ मदद चाहिए तो पिता इसके लिए तैयार है।
कह सकते हैं कि एकल परिवार यानी अब बड़ा हो गया हूं तो मुझे अपने जीवन की दिशा स्वयं तैयार करनी है और मेरी जो भी दशा होगी वह मेरी अपनी बनाई होगी, इसके लिए खुद जिम्मेदार हूं और माता-पिता तो कतई नहीं। इसके साथ ही उन्होंने अब तक मुझे जो जीवन दिया, उसके लिए उनका आभार मानने या ऋणी महसूस करने की न तो आवश्यकता है और न ही उसकी उम्मीद की जाती है। फलसफा यही है कि मैं यह करूं, वह करूं, मेरी मर्जी, इसमें किसी की दखलअंदाजी नहीं और माता-पिता की तो बिल्कुल नहीं।
अलग रहने और अकेले सभी फैसले करने की आजादी मिलने की आदत पड़ जाने से बाप-बेटे को एक-दूसरे पर निर्भर रहने से मुक्ति मिल जाती है। वे न तो सोचते और कहते हैं कि हमने तेरे लिए यह किया और तू हमारे साथ यह कर रहा है या आपने मेरे लिए किया ही क्या है, जैसी बातें दोनों के दिमाग में आम तौर से नहीं आतीं। भावुक होकर या भावनाओं में बहकर अपने मन या इच्छा के खिलाफ कुछ कहने या करने की जरूरत नहीं पड़ती। जो कुछ होता है या जैसे भी संबंध बनते या बनाए जाते हैं, वे प्रैक्टिकल यानी व्यावहारिक आधार पर बनते हैं।
भारतीय व्यवस्था : अब जहां तक हमारे देश की बात है, हम अभी विकासशील हैं मतलब विकसित होने की राह पर चल रहे हैं। हम संयुक्त परिवार व्यवस्था में पालन-पोषण होने के लिए जाने जाते हैं। पारिवारिक परंपराओं को मानने और उन पर चलने को मजबूर तक कर दिए जाने की बाध्यता रहती है। पुत्र पर तो इसकी ज्यादा ही जिम्मेदारी रहती है। उसके किसी भी व्यवहार या कदम से जिसमें पिता की सहमति या आज्ञा न ली गई हो, पिता के लिए नाक कटने जैसा हो जाता है।
पुत्र चाहे कितना भी संभलकर चले, पिता के लिए उसके किसी भी काम को नकारना बहुत सामान्य-सी बात है। पुत्र पर पिता की पगड़ी उछालने, इज्जत की बखिया उधेडऩे और सरेआम मुंह पर कालिख पोतने के आरोप लगना भारतीय परिवारों में आम बात है। पुत्र यही सोचता रहता है कि उसने आखिर ऐसा किया ही क्या है जो पिता इतना बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं। यहीं से दोनों के बीच अनबोलेपन अर्थात् बोलचाल बंद होने से लेकर एक-दूसरे की सूरत तक न देखने की परंपरा शुरू हो जाती है। संयुक्त परिवार में यह स्थिति असहनीय हो जाती है और हरेक सदस्य पर इसका असर पडऩा स्वाभाविक है।
संबंध और तनाव : हमारे परिवारों में पिता को सबसे ज्यादा चिढ़ या परेशानी अपने बेटे के दोस्तों से होती है। वह मान कर चलते हैं कि यही वे लोग हैं जिनकी संगत में बेटे का बिगडऩा तय है। इसी के साथ वे अपनी जानकारी में आए या जान पहचान वालों के बेटों की तुलना अपने बेटे और उसके मित्रों से करने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि पुत्र अपना कोई दोस्त बना ही नहीं पाता।
पिता द्वारा पुत्र को लेकर अक्सर गैर-जरूरी टिप्पणी करना, उसकी सराहना के स्थान पर आलोचना और हरेक काम में मीनमेख निकालना तथा पुत्र को चाहे वह कितना भी बड़ा हो जाए, नादान, नासमझ मानकर कुछ भी करने से पहले उसकी हिम्मत तोड़ देने जैसा है। नतीजा यह होता है कि जाने-अनजाने पुत्र धीरे-धीरे हीनभावना का शिकार होने लगता है, उसमें अपने स्तर पर या बलबूते कुछ करने का साहस कमजोर पड़ता जाता है और वह एक तरह से जीवन भर पिता की उंगली थामे अर्थात् प्रत्येक निर्णय के लिए उन पर निर्भर रहने की आदत का गुलाम बनने लगता है।
पिता और पुत्र दोनों को स्वीकार करना ही होगा कि अब संयुक्त परिवार व्यवस्था का टूटना ही भविष्य है। एकल परिवार के रूप में निजी संबंधों की व्याख्या करनी होगी जिसमें अलग-अलग रहते हुए भी मिलना-जुलना होता रहे और बिखराव के स्थान पर अच्छा-बुरा वक्त आने पर आपस में जुड़ाव का अनुभव कर सकें। पिता को अपने पुत्र की तरफदारी से बचना होगा और पुत्र को अपने पिता या परिवार से कुछ मिलने की उम्मीद रखने से दूर रहना होगा। आपसी तनाव न होने देने के लिए न तो किसी चीज की अपेक्षा हो और न ही इसे लेकर एक-दूसरे की उपेक्षा हो, यही राष्ट्रीय पुत्र दिवस का लक्ष्य होना चाहिए। -पूरन चंद सरीन