संतों को सम्पत्ति से क्या वास्ता

Monday, Sep 27, 2021 - 04:08 AM (IST)

अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष व प्रयागराज के बागम्बरी पीठ के महंत नरेंद्र गिरि की रहस्यमयी मृत्यु को लेकर एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। उन्होंनेे आत्महत्या की या उनकी हत्या हुई, इसको लेकर दो अलग खेमे आमने-सामने हैं। इस हादसे में हजारों करोड़ की सम्पत्ति भी इस दुर्घटना का कारण बताई जा रही है।

गद्दी के उत्तराधिकार को लेकर दो गुटों में संघर्ष शुरू हो गया है। मामले की जांच अब सी.बी.आई. को सौंप दी गई है। अगर बिना किसी दबाव के सी.बी.आई. ईमानदारी से जांच करेगी तो सच्चाई सामने आ जाएगी। पर बड़ा प्रश्न यह है कि आध्यात्मिक गुरु या स्वयं को संत बताने वाले इतनी विशाल सम्पत्ति के मोह जाल में कैसे फंस जाते हैं। 8 बरस पहले जब आसाराम बापू की गिरफ्तारी हुई तो उसके बाद से हर टी.वी. चैनल पर धर्म के धंधे को लेकर गर्मागर्म बहसें चलती रहीं। क्योंकि तब इन बहसों में बुनियादी बात नहीं उठाई जा रही थी इसलिए मैंने इसी संदर्भ में कुछ प्रश्न उठाए थे, जो आज फिर खड़े हो गए हैं। 

धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिंदू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाइयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल व वैभव के भंडार देखता रहा। धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर अपने लिए विशाल आर्थिक साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई भी धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म अंतत: भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है। संत वह है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ, विषयी व भोगियों की वासनाएं शांत हो जाएं, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढऩे लगे। पर आज स्वयं को ‘संत’ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। 

क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, श्री गुरु नानक देव जी, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरु, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरुष, श्री श्री 1008, सद्गुरु जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वत: भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टी.वी. पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रुपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन की साधना में जुटे हैं? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई। 

अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टी.वी., अखबारों और होॄडगों पर पैप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत या गुरु कहलवाते हैं, उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है, बशर्ते देखने वाले के पास आंख हो। 

जैसे-जैसे स्व:घोषित धर्माचार्यों पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वयं पर विश्वास नहीं रहता। इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का शृंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी शृंगार करते हैं।  हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता। दरअसल पांच सितारा संस्कृति में जीने वाले ये सभी लोग संत हैं ही नहीं। ये उसी भौतिक चमक-दमक के पीछे भागने वाले शब्दों के जादूगर हैं जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चौगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगे हैं। 

जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबंध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए, पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरु कीजे जान के’। संत कबीर दास कह गए हैं ‘साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं। धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं॥’-विनीत नारायण 
 

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