कमजोर वर्ग तभी तरक्की कर सकते हैं यदि शक्तिशाली लोग कुछ रियायतें दें

punjabkesari.in Monday, Apr 09, 2018 - 02:59 AM (IST)

प्रधानमंत्री ने भारतीय जनता पार्टी के सांसदों को दलितों तक पहुंचने के लिए  प्रोत्साहित किया है। वह चाहते हैं कि प्रत्येक सांसद बाबा साहेब अम्बेदकर की जयंती के आसपास दलित वर्चस्व वाले गांव में 2-2 रातें गुजारें। नरेन्द्र मोदी ने भाजपा सांसदों से अनुरोध किया है कि वह दलितों को स्मरण करवाएं कि भाजपा ही ऐसी पार्टी है जिसने बाबा साहेब अम्बेदकर को सम्मानित करने के लिए कदम उठाए थे। हाल ही में सरकार के विरुद्ध दलितों के सड़कों पर उतरने जैसी घटनाओं के कारण ही मोदी अपने सांसदों को ऐसा करने के लिए पे्ररित कर रहे हैं। 

दलित यह मानते हैं कि गत 3 वर्षों के दौरान जिस तरह हिन्दुत्व की शक्तियां रेंग-रेंग कर आगे बढ़ती रही हैं उसी के कारण सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष कानून के अंतर्गत दलितों को मिलने वाला सुरक्षा कवच हटा दिया है। प्रधानमंत्री दलितों को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि भाजपा को भी उनके हितों की सबसे अधिक चिंता है और इसीलिए वह अपने सांसदों को उनके साथ प्रतीकात्मक रूप में कुछ समय बिताने को कह रहे हैं। लेकिन क्या इतना करना ही काफी होगा? हम भाजपा के दृष्टिकोण से ही इस पर दृष्टिपात करते हैं क्योंकि हम ऐसे शुभचिंतक हैं जो समस्याएं हल होती देखना चाहते हैं। भाजपा का लक्ष्य सभी हिन्दुओं को राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एकजुट करना है। यही इसकी विचारधारा है और सही अर्थों में इसी पर श्रद्धा रखती है। आखिर यह काम भाजपा किस तरह कर सकेगी? 

हिन्दुओं की सही-सही संख्या तय कर पाना आसान नहीं है क्योंकि सिख और जैन (और अब शायद लिंगायत भी) खुद को हिन्दू नहीं मानते। फिर भी हम इन सभी को हिन्दुओं में शामिल कर लेते हैं और यह मान लेते हैं कि देश की 85 प्रतिशत आबादी हिन्दू है और उसे एकजुट किए जाने की जरूरत है। 85 प्रतिशत आबादी को शेष 15 प्रतिशत के विरुद्ध एकजुट कर पाना आसान है और सामान्यत: इस उपमहाद्वीप में यही होता आया है। सभी दक्षिण एशियाई देशों में अल्पसंख्यकों को एकजुट बहुमत के हाथों प्रताडि़त होना पड़ता है। बंगलादेश हो या पाकिस्तान, भारत हो या श्रीलंका सभी जगह  विधायिकाओं, सरकार, पुलिस, सशस्त्र सेनाओं और यहां तक कि प्राइवेट सैक्टरों की नौकरियों में अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है और उन्हें घर बनाने की जगह तलाशने में भी सामान्यत: समस्याएं दरपेश आती हैं क्योंकि उन्हें देश के दुश्मन समझा जाता है। 

लेकिन हम केवल ‘आज’ के संबंध में ही बात नहीं कर रहे। आइए हम 85 प्रतिशत आबादी को एकजुट करने की समस्याओं पर उस समय दृष्टिपात करें जब दलित आंदोलन के कारण आंतरिक विभेद सामने आए हैं। वास्तविकता यह है कि भाषा, संगीत एवं खान-पान जैसी अति जरूरी बातों पर भी एकता का दावा कर पाना आसान नहीं है। लता मंगेशकर को बहुत आसानी से भारत के एक छोर से दूसरे तक लोकप्रियता हासिल होती है जबकि एम.एस. सुब्बालक्ष्मी को नहीं। पूर्वोत्तर के लोगों को बॉलीवुड और क्रिकेट आकर्षित नहीं करते। राष्ट्रवाद हमें एकजुट कर सकता है लेकिन यह एकता बाहरी लोगों के विरुद्ध होगी। जब हमें आंतरिक समस्याएं दरपेश हों तब यह एकता किस रूप में हो सकेगी? 

हिन्दुत्ववादी सभी हिन्दुओं को एक झंडे तले इकट्ठा करना चाहते हैं लेकिन यह समावेशन उनकी अपनी शर्तों पर आधारित होगा। उदाहरण के लिए हिन्दू का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो गौमांस भक्षण न करता हो और संभवत: शाकाहारी हो। प्रधानमंत्री गुजरातियों के एक ऐसे समुदाय से संबंधित हैं जो मांसाहारी है लेकिन फिर भी उन्होंने इस संस्कृति का परित्याग करने और आर.एस.एस. की विचारधारा के सांचे में खुद को ढालने का रास्ता चुना है (यानी कि वह अधिक दमनवादी बन गए) ऐसा करने से उनकी स्वीकार्यता बढ़ गई है। यदि वह गौमांस भक्षक आदिवासी होते तो आर.एस.एस. के लिए उन्हें गुजरात का मुख्यमंत्री बनाना आसान न होता। 

अब तक केशव बलिराम हेडगेवार, लक्ष्मण परांजपे, गुरु गोलवरकर, बाला साहिब देवव्रत, राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया), के.एस. सुदर्शन और मोहन भागवत जैसे महानुभावों के हाथों में संघ की बागडोर रह चुकी है। इनमें से रज्जू भैया को छोड़ कर शेष सभी ब्राह्मण थे। रज्जू भैया ठाकुर  थे। कोई भी दलित अब तक आर.एस.एस. प्रमुख नहीं बना। पार्टी के शुभचिंतक के रूप में मेरा यह सोचना शायद  अच्छा ही होगा कि भाजपा आर.एस. एस. को यह उलाहना दे सकती है कि वह किसी दलित या आदिवासी को और इससे बढ़कर किसी दलित या आदिवासी महिला को सरसंघ चालक के पद पर आसीन करे। समस्त हिन्दुओं को एकजुट करने के मामले में एक अन्य समस्या यह है कि सवर्ण जाति हिन्दू स्वाभाविक तौर पर भाजपा के समर्थक हैं। भाजपा का यह कट्टर समर्थक वर्ग दलित अधिकारों का मूल रूप में विरोधी है। बेशक ये लोग स्पष्ट रूप में ऐसा नहीं कहते लेकिन जब हम रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातों पर आते हैं तो इनका दलित विरोधी रवैया स्वत: स्पष्ट हो जाता है। 

क्या सवर्ण जातियां आरक्षण का समर्थन करती हैं? उत्तर है, नहीं। क्योंकि दलितों और आदिवासियों को आरक्षण इसी उच्च वर्ग की कीमत पर मिलता है। यह विभेद इतना आधारभूत है कि हिन्दू एकता के नाम पर इसकी अनदेखी नहीं हो सकती। संसद का एक भी ऐसा दलित या आदिवासी सदस्य नहीं जो आरक्षण भंग किए जाने का समर्थन करेगा। यहां तक भाजपा में भी ऐसा कोई दलित या आदिवासी नहीं मिलेगा। अनुसूचित जाति एवं जनजाति (उत्पीडऩ निरोध) अधिनियम की जड़ में भी बिल्कुल यही समस्या कार्यशील है। सुप्रीम कोर्ट ने बहुत दिलेरी दिखाते हुए ऐसा फैसला लिया है जिसके कारण दलित और आदिवासियों ने इसके विरुद्ध बगावत कर दी है। ये दोनों समुदाय इस कानून को एक ऐसा रक्षा कवच मानते हैं जो उच्च जाति हिन्दुओं के हाथों एक कर्मकांड की तरह होने वाले उनके अपमान के विरुद्ध मजबूत किलाबंदी है। 

यह सच है कि इस कानून का अनुपालन बहुत घटिया ढंग से होता है और इस कानून के अंतर्गत उसके लिए कोई आपराधिक मामला दर्ज कर पाना भी कठिन है लेकिन बेशक कागजी रूप में ही सही, यह कानून इन दोनों संवेदनशील समुदायों के लिए एक मजबूत दुर्ग जैसा था। सुप्रीम कोर्ट के दोनों जजों ने इस दुर्ग को कमजोर कर दिया है। इस मुद्दे पर ऊपर से नीचे तक विभेद की रेखा स्पष्ट दिखाई देती है। उच्च जातियों में ऐसे कितने लोग होंगे जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करेंगे? कोई अधिक नहीं। क्योंकि इस कानून का निशाना उच्च जातियों को ही बनना पड़ता है। यह कानून दलितों और आदिवासियों का सशक्तिकरण करता है और इसीलिए हम में से अधिकतर लोगों को यह स्वीकार्य नहीं। 

ऐसी स्थिति में ‘सबका साथ’ संभव ही नहीं। कमजोर वर्ग तभी तरक्की कर सकते हैं यदि शक्तिशाली लोग कुछ रियायतें देने को तैयार होंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। पता नहीं कितनी ही बार आर.एस.एस. प्रमुख या किसी अन्य संघ नेता द्वारा आरक्षण के विरोध में की गई टिप्पणी के चलते भाजपा को बचाव की मुद्रा में जाना पड़ा है। सरकार कहती है कि यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध समीक्षा याचिका दायर करेगी लेकिन इस दावे में कोई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। भाजपा ऐसा केवल इसलिए कह रही है कि यह चिंताओं से घिरी हुई है। यह चिंता उन्हीं भावनाओं की पैदावार है जिनके अंतर्गत सांसदों को दलित गांव में दो रातें गुजारने को कहा गया है। 

इस सप्ताह मैं ऐसे विभिन्न गुटों द्वारा आयोजित एक समारोह में उपस्थित था जो यह चाहते थे कि अ.जा./अ.ज.जा. उत्पीडऩ निरोध अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा जाए। वक्ताओं में से एक डी. राजा थे जो भाकपा सांसद हैं। भाजपा को अम्बेदकर को सम्मान देने वाली पार्टी बताने के मोदी के दावे पर राजा ने कहा, ‘‘अम्बेदकर को किसी सम्मान की जरूरत नहीं। जरूरत तो इस बात की है कि आप दलितों के लिए क्या कर रहे हैं?’’ यह है ऐन निशाने पर तीर लगाने वाली बात। यदि सरकार सचमुच दलितों की पक्षधर है तो वह निश्चय ही इस तथ्य से अवगत होगी। यदि दलितों के लिए कुछ किया जाता है तो गांव में सांसदों को  2-2 रातें बिताने की कोई जरूरत नहीं।-आकार पटेल


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