हम गुलाम थे तो एक थे, आजाद होते ही बंट क्यों गए

Wednesday, Jan 26, 2022 - 07:50 AM (IST)

भारत की त्रासदी है कि बंटवारे की राजनीति आज भी यहां फल-फूल रही है। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए भी हम इस रोग से मुक्त नहीं हो पाए हैं। यह सोचना कितना व्यथित करता है कि जब हम गुलाम थे तो एक थे, आजाद होते ही बंट गए। यह बंटवारा सिर्फ भूगोल का नहीं था, मनों का भी था, जिसकी कड़वी यादें आज भी तमाम लोगों के जेहन में ताजा हैं। आजादी का अमृत महोत्सव वह अवसर है कि हम दिलों व मनों को जोडऩे का काम करें। साथ ही विभाजनकारी मानसिकता को जड़ से उखाड़ फैंकें और राष्ट्र प्रथम की भावना के साथ आगे बढ़ें। 

भारत 14वीं सदी में पुर्तगाली आक्रमण के बाद से ही लगातार आक्रमणों का शिकार रहा है। इस लंबे कालखंड में भारत ने अपने तरीके से इनका प्रतिवाद किया। संघर्ष चलते रहे, जो राष्ट्रव्यापी, समाजव्यापी और सर्वव्यापी भी थे। तब आपदाओं, अकाल से भी लोग मरते रहे। गोरों का यह वर्चस्व तोडऩे के लिए हमारे राष्ट्र नायकों ने संकल्प के साथ संघर्ष किया और आजादी दिलाई। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय सवाल उठता है कि क्या हमने अपनी लंबी गुलामी से कोई सबक भी सीखा है? 

जड़ों की ओर लौटें : आजादी के आंदोलन में हमारे नायकों की भावनाएं क्या थीं? भारत की अवधारणा क्या है? यह जंग हमने किसलिए और किसके विरुद्ध लड़ी थी? क्या यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन का अभियान था? इन सवालों का उत्तर देखें तो हमें पता चलता है कि यह लड़ाई स्वराज-सुराज के लिए थी, स्वदेशी की थी, स्वभाषाओं की थी, स्वावलंबन की थी। यहां ‘स्व’ बहुत ही खास है। समाज, जीवन के हर क्षेत्र, वैचारिकता, हर सोच पर ‘अपना विचार’ चले। यह भारत के मन की और उसकी सोच की स्थापना की लड़ाई भी थी। 

आज देश को जोडऩे वाली शक्तियों के सामने एक गहरी चुनौती है देश को बांटने वाले विचारों से मुक्त कराना। भारत की पहचान अलग-अलग तंग दायरों में बांट कर समाज को कमजोर करने के कुत्सित इरादों को बेनकाब करना। नए विमर्शों और नई पहचानों के माध्यम से नए संघर्ष भी खड़े किए जा रहे हैं। 

न भूलें आजादी का मोल : देशविरोधी, विघटनकारी मुद्दे उठाए जा रहे हैं। जेहादी और वामपंथी विचारों के बुद्धिजीवी भी इस अभियान में आगे दिखते हैं। भारतीय जीवनशैली, आयुर्वेद, योग, भारतीय भाषाएं, भारत के मानबिंदू, गौरव पुरुष,  प्रेरणापुंज सब इनके निशाने पर हैं।

राष्ट्रीय मुख्यधारा में सभी समाजों, अस्मिताओं का एकत्रीकरण और विकास की बजाय इसे तोडऩे के अभियान तेज हैं। इस षड्यंत्र में अब देशविरोधी विचारों की आपसी नैटवर्किंग भी साफ  दिखने लगी है। संस्थाओं को कमजोर करना, अनास्था, अविश्वास और अराजकता पैदा करने के प्रयास भी इन गतिविधियों में दिख रहे हैं। 1857 से 1947 तक के लंबे कालखंड में लगातार लड़ते हुए, आम जन की शक्ति पर भरोसा करते हुए हमने यह आजादी पाई है। इसलिए इसका मोल हमें हमेशा स्मरण रखना चाहिए।

भारतीयता हमारी पहचान : दुनिया के सामने लेनिन, स्टालिन, माओ के शासन के उदाहरण हैं। मानवता का खून बहाने के अलावा इन सबने क्या किया? यही मानवता विरोधी और लोकतंत्र विरोधी विचार आज भारत को बांटने का स्वप्न देख रहे हैं। आजादी के अमृत महोत्सव और गणतंत्र दिवस का संकल्प यही हो कि हम लोगों में भारत भाव, भारत प्रेम, भारत बोध जगाएं। भारत और भारतीयता हमारी सबसे बड़ी और एकमात्र पहचान है, इसे स्वीकार करें। कोई किताब, पंथ इस भारत प्रेम से बड़ा नहीं है। हम भारत के बनें और भारत को बनाएं। भारत को जानें और भारत को मानें। इसी संकल्प में हमारी मुक्ति है। हमारे सवालों के समाधान हैं। छोटी-छोटी अस्मिताओं और भावनाओं के नाम पर लड़ते हुए हम कभी एक महान देश नहीं बन सकते। 

गणतंत्र दिवस को संकल्पों का दिन बनाएं : समाज को तोडऩे, उसकी सामूहिकता को खत्म करने के प्रयासों से अलग हट कर हमें अपने देश को जोडऩे के सूत्रों पर काम करना है। जुड़ कर ही हम मजबूत रह सकते हैं। समाज में देश तोडऩे वालों की एकता साफ दिखती है, बंटवारा चाहने वाले अपने काम पर लगे हैं। इसलिए हमें ज्यादा काम करना होगा-पूरी सकारात्मकता के साथ, सबको साथ लेते हुए, सबकी भावनाओं का मान रखते हुए। 

यह बताने वाले बहुत हैं कि हम अलग क्यों हैं। हमें यह बताने वाले लोग चाहिएं कि हम एक क्यों हैं, हमें एक क्यों रहना चाहिए। देश में भारत बोध का जागरण इसका एकमात्र मंत्र है। गणतंत्र दिवस को हम अपने संकल्पों का दिन बनाएं, एक भारत-श्रेष्ठ भारत और आत्मनिर्भर भारत का संकल्प लेकर आगे बढ़ें तो यही बात भारत मां के माथे पर सौभाग्य का तिलक बन जाएगी। हमारी आजादी के आंदोलन के महानायकों के स्वप्न पूरे होंगें, इसमें संदेह नहीं।-प्रो. संजय द्विवेदी
 
 

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