हम राजनीतिक प्रभाव वाली न्यायपालिका नहीं चाहते

Saturday, Sep 22, 2018 - 12:57 AM (IST)

संविधान द्वारा प्रदत्त एक स्वतंत्र अधिकरण के तौर पर सुप्रीम कोर्ट किसी मुद्दे के महत्व के अनुसार काफी हद तक अपनी भूमिका निभा रही है। फिर भी, मेरी प्रमुख चिंता यह है कि कब शीर्ष अदालत सबसे निचली अदालतों से शुरू कर ऊपर की तरफ, जिसमें इसकी खुद की कार्यप्रणाली भी शामिल है, में सुधारों की प्रक्रिया शुरू करने के लिए अपने भीतर झांकेगी।

हाल ही के वर्षों के दौरान कई सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक मुद्दे सामने आए हैं, जिन पर करीबी नजर डालने तथा तेजी से कार्रवाई करने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका ने समय-समय पर अपने सामने आए महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रतिक्रिया न दी हो। यद्यपि मेरा मानना है कि हमारे समाज के सुविधाहीन तथा वंचित वर्गों के खिलाफ बढ़ते जा रहे आपराधिक मामलों में तीव्र न्याय सुनिश्चित किया जाए।

महत्वपूर्ण विंदु यह है कि क्या हमारी राजनीति अधिक से अधिक आपराधिक हो रही है? मैं आशा करता हूं कि नहीं। मगर महिलाओं और यहां तक कि नाबालिग लड़कियों के खिलाफ दुष्कर्मों के बढ़ते मामलों को देखना हमारे कार्यशील लोकतंत्र का एक सबसे तकलीफदेह पहलू है। कानून के डर के अभाव तथा न्याय की धीमी प्रक्रिया के कारण जमीनी स्तर पर कानून लागू करने वाले अधिकारियों की कार्यप्रणाली पर कई मुद्दे उठाए जा रहे हैं। केवल व्यापक पुलिस सुधार ही हमें उत्तर उपलब्ध करवा सकते हैं। मगर कौन परवाह करता है? पुलिस सुधारों पर बनी समितियों की कई रिपोर्टें दफ्तरों में धूल फांक रही हैं।

देश की बदली राजनीति में हमें दुष्कर्मियों तथा उन लोगों, जो बर्बर कार्रवाइयां करने के लिए कानून को अपने हाथों में लेते हैं, के खिलाफ तुरंत तेजी से कड़ी कार्रवाई करनी होगी।  यह वह भारत नहीं है जिसका सपना हमने देखा था। हम शरारती तथा विकृत मानसिकता के लोगों को अपने सामाजिक ताने-बाने से खेलने की इजाजत नहीं दे सकते, चाहे वे गौरक्षक हों या अल्पसंख्यकों तथा असहमति की आवाजों को दबाने वाले  रूढि़वादी। असहमति हमारे जीवंत लोकतंत्र का एक हिस्सा है, जो आपसी समझ, सहिष्णुता तथा विचारों के स्वतंत्र आदान-प्रदान पर फल-फूल रहा है। यह हिंदूवाद का सार भी है, जिसे स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर 1893 को शिकागो में अपने सम्बोधन के दौरान गौरवान्वित  किया था।

विवेकानंद ने कहा था कि ‘‘मैं एक ऐसे धर्म से संबंध रखने पर गर्व महसूस करता हूं जिसने विश्व को सहनशीलता तथा वैश्विक स्वीकार्यता दोनों ही सिखाए हैं। हम न केवल वैश्विक सहनशीलता में विश्वास करते हैं बल्कि सभी धर्मों को सच के तौर पर स्वीकार करते हैं। मैं एक ऐसे देश से संबंधित होने पर गर्व महसूस करता हूं जिसने सताए तथा धरती पर सभी धर्मों तथा देशों के लोगों को शरण दी है।’’

मैं राजनीति की एक निराशाजनक तस्वीर नहीं बना रहा। मेरी चिंता समाज के बढ़ते क्षरण को लेकर है जिसे प्रशासन के सभी औजारों के संयुक्त प्रयासों से रोका जाना चाहिए, जिनमें न्यायपालिका भी शामिल है।

चूंकि नौकरशाही तथा राजनीति से ग्रस्त सिस्टम की विश्वसनीयता निम्नतम स्तर पर है, नागरिकों को मीडिया के अतिरिक्त न्यायपालिका से कुछ आशा है। यदि राजनीतिक दखल के बिना न्यायिक प्रणाली को आवश्यक सुधारों के साथ मजबूत किया जाए तो न्यायपालिका प्रभावपूर्ण तरीके से कार्य कर सकती है।

हालांकि जब तक सभी स्तरों पर न्यायपालिका की ताकत में वर्तमान अंतरों को भरा नहीं जाता तब तक कुछ काम नहीं आएगा। जरा कुछ कड़े तथ्यों पर नजर डालें। केवल हाईकोर्ट में ही 427 पद खाली पड़े रहने से 31 अगस्त 2018 तक रिक्तियां बढ़ कर 40 प्रतिशत तक हो गईं। इसका मतलब यह हुआ कि हाईकोर्ट्स में जजों की कार्यशक्ति 1079 के स्वीकार्य कुल पदों के मुकाबले कम होकर 652 रह गई है। तथ्य अपने आप बोलते हैं कि कैसे न्याय की प्रक्रिया में देरी होती है।

बड़ी संख्या में ये रिक्तियां सरकार के साथ-साथ उच्च न्यायपालिका के लिए भी चिंता का कारण हैं, जहां हाईकोर्ट्स में 39.52 लाख मामले लम्बित हैं जिनमें से 22 प्रतिशत 10 वर्षों से भी अधिक समय से लटके हुए हैं। कितनी शर्म की बात है। इन परिस्थितियों में गरीब याचिकाकर्ताओं की स्थिति बद से बदतर हो गई है। समस्या संचालन स्तर पर है। हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट कालेजियम द्वारा प्रस्तावित व्यक्तियों की गुणवत्ता तथा निष्ठा को लेकर सरकार के अपने विचार तथा बाध्यताएं हैं, जिस कारण सभी स्तरों पर नियुक्ति की प्रक्रिया रुकी हुई है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है। एक तरह से यह ‘न्याय में देरी, न्याय से इंकार’ की प्रक्रिया शुरू करता है। इस मामले को अवश्य सुलझाना चाहिए। हम सरकार तथा न्यायपालिका को एक-दूसरे के साथ सींग फंसाकर काम करते नहीं देखना चाहते।

हम निश्चित तौर पर एक राजनीतिक प्रभाव वाली न्यायपालिका नहीं चाहते। इंदिरा गांधी ने एक बार इस विचार के साथ खेलना चाहा था मगर असफल रहीं। मोदी सरकार को भी यह एहसास करना चाहिए कि इसका एकमात्र उद्देश्य एक पारदर्शी तथा जवाबदेह प्रणाली स्थापित करना होना चाहिए न कि राजनीति का खेल खेलना।

निश्चित तौर पर सभी नियुक्तियां केवल गुणवत्ता के आधार पर की जानी चाहिएं न कि वंशवाद, जाति अथवा साम्प्रदायिक बाध्यताओं के आधार पर। इस संदर्भ में मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि लोगों के पास निश्चित तौर पर जानने का अधिकार है। इसका इस्तेमाल  जोरदार तरीके से करना चाहिए। सार्वजनिक कार्यप्रणाली के सभी स्तरों पर गोपनीयता की वर्तमान स्थिति को समाप्त करना चाहिए। रहस्यमयता लोकतंत्र की विरोधी है। भारत में राजनीतिक वर्ग ने इसे एक नैतिक गुण बना लिया है। जो स्थिति है उसमें ईमानदारी भी सस्ती हो गई है।

प्रश्न संविधान को बचाने का नहीं है, बल्कि देश को सिस्टम में कई कार्यशील पथभ्रष्टताओं से बचाने का है। हमें एक ऐसी राजनीति के लिए काम करना चाहिए जो न्यायपूर्ण, पारदर्शी, काम करने में कुशल, लोकतांत्रिक रूप से उदार तथा आम व्यक्ति की परवाह करने वाली।

हम जो चाह रहे हैं वह प्रशासन के अच्छे औजार नहीं, बल्कि एक गतिशील तथा आगे देखने वाली प्रणाली है। एक उत्प्रेरक के तौर पर यह आज के भारत की आंदोलित राजनीति के गुणवत्तापूर्ण तथा प्रतिक्रियाशील प्रबंधन  के लिए गति निर्धारित करने में सक्षम हो तथा इसके साथ ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुनिश्चित करे ताकि सभी स्तरों पर और अधिक  सहभागी लोकतांत्रिक ढांचे हों। दाव पर है पांच वर्षों में एक बार वोट डालने का विशेषाधिकार देने से आगे बढ़कर लोकतांत्रिक संस्थानों में सामान्य  नागरिक की आशा को फिर से जगाना।

ऐसा नहीं है कि भारत के पास पर्याप्त लचीलापन नहीं है। इसके पास पर्याप्त लचीलापन है और झटकों को सहन करने की एक असीम क्षमता।  इस मामले में भारतीय सभ्यता की शक्ति राजनीति के शरीर पर समय-समय पर जाने-अनजाने खलनायकों द्वारा दिए जाने वाले घावों को सहने की क्षमता में निहित है।

एक तरह से असफलता मुख्य रूप से राजनीतिक है। जैसा कि बम्बई हाईकोर्ट के पूर्व जज बी. लेंटिन ने एक बार कहा था कि ‘संविधान ने लोगों को असफल नहीं किया, न ही भारत के लोगों ने संविधान को असफल बनाया। केवल विवेकहीन राजनीतिज्ञों ने दोनों को असफल बनाया है।’  इसी में निहित है बड़ी चुनौती। - हरि जयसिंह

shukdev

Advertising