‘लच्छेदार भाषणों’ से तालियां मिलती हैं वोट नहीं

punjabkesari.in Monday, Apr 22, 2019 - 03:34 AM (IST)

25 वर्ष पहले महात्मा गांधी के पड़पोते तुषार गांधी मुम्बई से चुनाव लड़ रहे थे। वह समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे और उनका मुकाबला बांद्रा पूर्व सीट पर तत्कालीन विधायक शिवसेना के मधुकर सरपोतदार से था। सरपोतदार, जिनका  2010 में निधन हो गया, बाबरी विध्वंस के बाद मुसलमानों के खिलाफ हुए दंगों में संलिप्त थे और उन्हें 2 बार गिरफ्तार किया गया था तथा सेना द्वारा बंदूक ले जाते हुए पकड़ा गया था। गांधी पैदल प्रचार कर रहे थे और  मैं  रिपोर्टर के तौर पर उनके साथ था।

मैंने उनको पूछा कि उन्होंने क्या सीखा है कि रैलियों में बोलते समय किस तरह की बात की जानी चाहिए। उन्होंने बताया कि विकास के मुद्दों का ज्यादा असर नहीं पड़ता है। उन्होंने स्लम एरिया से प्रचार शुरू किया था तथा इस दौरान पानी, बिजली, सड़कों और नौकरियों के बारे में बात की। शीघ्र ही उन्हें पता चल गया कि सभी पार्टियां एक ही तरह की बातें करती हैं और इनसे मतदाता ज्यादा प्रभावित नहीं होते।

श्रोताओं की तालियों और उनके चिल्लाने से पता चल जाता है कि लोग क्या सुनना चाहते हैं? गांधी ने बताया कि जब उन्होंने अपने विरोधी पर शब्दों से प्रहार किया और मजाक भरी बातें कहीं तो श्रोता काफी खुश हुए। उन्होंने मुझे एक उदाहरण दिया। सरपोतदार अक्सर यह कहा करते थे कि वह फ्रंट फुट पर खेलेंगे, गांधी अपने भाषणों में कहा करते थे कि जो फ्रंट फुट पर खेलते हैं उनके स्टम्प्ड होने का खतरा रहता है।

जनता की नब्ज जानते हैं नेता
राजनेता, खासतौर पर जो लगातार रैलियों को संबोधित करते हैं, हम जैसे लोगों के मुकाबले इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि लोगों की रुचि किन मुद्दों में है। कुछ हद तक पत्रकार भी इन बातों से वाकिफ होते हैं, विशेष तौर पर टैलीविजन और इंटरनैट पत्रकार। उन्हें टी.आर.पी. रेटिंग से तुरन्त फीडबैक मिल जाती है कि  कौन-सी बात श्रोताओं द्वारा पसंद की जा रही है और कौन-सी नहीं। समाचारपत्रों के पत्रकार भी एक अलग तरीके से फीडबैक प्राप्त कर लेते हैं। यह फीडबैक धीमी होती है जिस कारण समाचारपत्र टैलीविजन चैनलों के मुकाबले कम सनसनीखेज होते हैं।

कुछ दिन पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह बिहार में थे। एक रिपोर्ट के अनुसार अपनी पहली रैली में उन्होंने अपना भाषण नरेन्द्र मोदी की 5 वर्ष की उपलब्धियों से शुरू किया। इसके बाद उन्होंने एक अमरीकी बैंक को उद्धृत करते हुए कहा कि भारत में गरीबी कम हुई है। इन दोनों बातों के लिए जनता का उत्साह सामान्य था। इसके बाद राजनाथ ने कहा : ‘‘भारत किसी को छेड़ता नहीं, लेकिन जो छेड़ता है, उसको छोड़ेगा नहीं।’’ यह सुनते ही भीड़ ने तालियां बजानी शुरू कर दीं। बांका, पूर्णिया, अररिया और मधेपुरा में हुई अगली चार रैलियों में राजनाथ ने अपने भाषण में इसी बात को दोहराया। उन्होंने पुलवामा हमले की बात की तथा कहा कि भाजपा ने 12 दिनों के अंदर ही जवाब दे दिया और इसे पाकिस्तान के अंदर जाकर अंजाम दिया।

इससे क्या निष्कर्ष निकलता है और मतदाता क्या सुनना चाहता है?   क्या राजनेता अपनी फीडबैक के द्वारा इस बात को अच्छी तरह भांप लेते हैं और फिर उसी बात पर केन्द्रित रहते हैं? इसका उत्तर इतना आसान नहीं है। सच्चाई यह है कि बहुत से लोग रैलियों में मनोरंजन के लिए भी जाते हैं। वे वहां कई घंटे और कई बार पूरा दिन बिताते हैं तथा आम  बातों से बोर नहीं होना चाहते। निश्चित तौर पर वे बिजली-पानी और अच्छी नौकरियां चाहते हैं। लेकिन वे यह सब नहीं सुनना चाहते और इसलिए किसी भी नेता के लिए यह पता लगाना आसान नहीं होता कि जनता क्या सुनना पसंद करेगी?

जाति आधारित राजनीति
दूसरी बात यह है कि भारतीय राजनीति जाति आधारित और साम्प्रदायिक आधारित है। ऐसे में सफल राजनेता होने के लिए अच्छा वक्ता होना जरूरी नहीं। अब तक हुए बड़े वक्ताओं में लालू, ठाकरे, मोदी, ममता, ओवैसी और कुछ अन्य शामिल हैं। अन्य जिनमें नवीन पटनायक और मायावती जैसे ताकतवर लोग भी शामिल हैं सत्ता हासिल करने के लिए अपने भाषणों की प्रसिद्धि पर निर्भर नहीं हैं। इसका अर्थ यह है कि वे अपनी फीडबैक जनसभाओं से प्राप्त नहीं करते। आज के इंटरनैट और टैलीविजन के दौर में लोगों तक पहुंच बनाने के लिए रैलियां इतना सशक्त माध्यम नहीं रह गई हैं। रैलियां केवल एक मंच प्रदान करती हैं जहां से कोई नेता एक ही बार में बड़े श्रोता वर्ग तक पहुंच सकता है।

मेरा मानना है कि सत्ताधारी दल द्वारा प्रयोग किया जा रहा पुलवामा का मुद्दा ज्यादा लाभकारी नहीं है। मुझे नहीं लगता कि मोदी और भाजपा को उस घटना तथा उसकी प्रतिक्रिया के लिए ज्यादा वोट मिलेंगे। मेरा मानना है कि जब वे इस विषय पर कड़ी भाषा का प्रयोग करेंगे और अपने विरोधियों को पाकिस्तानी एजैंट कहेंगे तो उन्हें अच्छी फीडबैक मिलेगी क्योंकि श्रोता जनसभाओं में इसी तरह की बातें सुनना चाहते हैं। हालांकि इन बातों के आधार पर अधिकतर लोग वोट देने का फैसला नहीं करेंगे।

ऐसे समय में जबकि भारत कृषि और बेरोजगारी के संकट से जूझ रहा है सरकार आर्थिक रिकार्ड के बारे में विश्वसनीयता के साथ बात नहीं कर सकती। इसलिए प्रधानमंत्री को सॢजकल स्ट्राइक्स और उनके राजनीतिक विरोधियों के विश्वासघात के बारे में बात करनी होगी। इससे श्रोताओं का काफी मनोरंजन होता है। खासतौर पर जो उनकी विचारधारा से जुड़े हैं लेकिन यह समझ लेना ठीक नहीं होगा कि इसके आधार पर लोग वोट देंगे। तुषार गांधी ने मुम्बई में उस चुनाव प्रचार के दौरान बहुत से लोगों का मनोरंजन किया। हालांकि वह न केवल चुनाव हार गए बल्कि उनकी जेब भी खाली हो गई।-आकार पटेल


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