पश्चिम बंगाल में आज भी प्रासंगिक हैं विद्यासागर

Saturday, May 18, 2019 - 02:20 AM (IST)

विद्यासागर का बर्ण परिचय (बंगाली भाषा की वर्ण माला) आज भी पहली किताब होती है जो किसी बच्चे के हाथ में थमाई जाती है। यह किताब उन्होंने 160 वर्ष पहले लिखी थी। व्याकरणविद्, विद्वान, शिक्षाविद्, सुधारक और बंगाल में पुनर्जागरण के पुरोधा आज भी बंगाल में एक आदर्श माने जाते हैं। 

प्रत्येक बच्चे को उनके जीवन की कहानी सुनाई जाती है कि कैसे गरीब परिवार में पैदा होने वाले विद्यासागर ने स्ट्रीट लाइट की रोशनी में पढ़ाई की क्योंकि उनके घर में गैस लैम्प नहीं था। 1820 में मिदनापुर में जन्मे ईश्वर चंद्र बंदोपाध्याय को संस्कृत कालेज से स्नातक करने के बाद उनकी शैक्षणिक उपलब्धियों के लिए विद्यासागर (ज्ञान का सागर) की उपाधि मिली। 

संस्कृत के विद्वान विद्यासागर ने कानून में भी डिग्री हासिल की और फिर उसके बाद 1841 में फोर्ट विलियम कालेज  में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष बने। इसके बाद वह संस्कृत कालेज के प्रिंसीपल बने तथा उन्होंने परम्परा के खिलाफ जाते हुए छोटी जाति के विद्यार्थियों को भी संस्कृत की पढ़ाई के लिए दाखिला दिया। उन्होंने विधवा विवाह तथा महिलाओं की शिक्षा जैसे सुधार भी किए। इसके लिए उन्हें राजा राम मोहन राय के समान समाज सुधारक माना जाता है। उन्होंने बाल विवाह का भी विरोध किया। साहित्य के क्षेत्र में भी विद्यासागर का काफी योगदान है। वर्णमाला के अलावा उन्होंने कालीदास के शकुंतला नाटक सहित कई किताबों का संस्कृत से बंगाली में अनुवाद किया। 

‘‘अपना काम स्वयं करो’’ के प्रवर्तकविद्यासागर को लीजैंड माना जाता है जो अपने समय से बहुत आगे था। विद्यासागर ने वर्तमान झारखंड के संथाल कबीलों के बीच 18 साल बिताए जहां उन्होंने भारत में लगभग सबसे पहले संथाल लड़कियों के लिए स्कूल शुरू किए। 1891 में 70 वर्ष की उम्र में उनका निधन हुआ।

Advertising