1971 के युद्ध की जीत का राका इंदिरा-मानेकशॉ के बीच हुई गुफ्तगू

Thursday, Nov 25, 2021 - 04:06 AM (IST)

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बंगलादेश की आजादी की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर गत 26 मार्च को ढाका में मुख्य मेहमान के तौर पर नवाजा गया, जोकि उचित भी था क्योंकि बंगलादेश का निर्माण ही तब हुआ जब भारत की सशस्त्र सेनाओं ने पाकिस्तान के साथ दिसम्बर 71 में लड़ी गई तेजस्वी जंग के दौरान चमत्कारिक विजय हासिल की और पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए। 13 दिन तक चली निर्णायक जंग के बाद पूर्वी पाकिस्तान की सेना के कमांडर लैफ्टिनैंट जनरल ए.के. नियाजी ने अपनी सेना के लगभग 93000 फौजियों तथा कुछ सिविलियन्स सहित 16 दिसम्बर को भारतीय सेना के लैफ्टिनैंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। 

दूसरे विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि जब किसी देश की सेना ने एक सीमित युद्ध के बाद इतनी बड़ी संख्या में विरोधी सेना के सामने आत्मसमर्पण किया हो। भारत की इस विश्वस्तरीय विजय को याद करते हुए 16 दिसम्बर को विजय दिवस के तौर पर मनाया जाता है। इस वर्ष भारत में यह स्वर्ण जयंती पूरे जोशो-खरोश के साथ मनाई जाएगी। 

युद्ध क्यों : पाकिस्तानी हुकूमत द्वारा कई दशकों से अपने पूर्वी हिस्से को आॢथक, सामाजिक तथा समूचे विकास के पक्ष से नजरअंदाज करने के साथ-साथ मतभेद बढ़ते गए और प्रजातंत्र प्रणाली को ठेस पहुंचनी शुरू हो गई। पूर्वी पाकिस्तान (बाद में बंगलादेश) की राजनीतिक पार्टी आवामी लीग ने 169 में से 167 सीटें जीतीं मगर सत्ता फिर भी उसे नहीं सौंपी गई इसलिए वहां की जनता ने शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में आंदोलन शुरू कर दिया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति याहिया खान ने तुरन्त मार्शल लॉ लागू करके पूर्वी पाकिस्तान की बंगाली जनसंख्या के साथ कई तरह के अत्याचार किए। जैसे कि नस्लघात, बलात्कार, लूट-खसूट जैसी वारदातें शुरू हो गईं। 

लाखों की संख्या में वहां के नागरिकों ने भारत में दाखिल होकर पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, मेघालय तथा त्रिपुरा जैसे राज्यों में स्थापित शरणार्थी कैंपों में आसरा लेना शुरू कर दिया। इस कारण भारत पर आॢथक बोझ पडऩा स्वाभाविक था मगर कई अन्य समस्याएं भी पैदा हो गईं जो अभी तक भी सुलझ नहीं सकीं। 

गुप्त वार्तालाप : पूर्वी पाकिस्तान में बड़ी तेजी से बिगड़ती स्थिति के मद्देनजर प्रधानमंत्री ने कैबिनेट मीटिंग बुलाई जिसमें सेना प्रमुख को विशेष तौर पर शामिल होने के लिए कहा गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तथा सेना प्रमुख जनरल एस.एच.एफ. जे. मानेकशॉ के बीच हुई गोपनीय वार्ता बारे कुछ लेखकों तथा माहिरों ने भी अनुमान लगाए हैं मगर दिल्ली में 1995 में फील्ड मार्शल मानेकशॉ ने फील्ड मार्शल करियप्पा यादगारी समारोह में हिस्सा लेते हुए भारत-पाकिस्तान की 1971 की जंग बारे अपनी आपबीती का वर्णन कुछ इस तरह किया : अपने कार्यालय में हुई कैबिनेट मीटिंग के शुरू में इंदिरा गांधी ने बड़ी सख्ती से पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा के मुख्यमंत्रियों से प्राप्त तारें (उस समय मोबाइल कल्चर नहीं था) पढ़ कर सुनाईं। बेहद गुस्से में अपना रुख सेना प्रमुख की ओर करते प्रश्र किया, ‘‘आप इस बारे क्या कर रहे हो?’’ मानेकशॉ ने उत्तर दिया, ‘‘कुछ नहीं क्योंकि मेरा इससे कोई संबंध नहीं।’’ 

सेना प्रमुख फिर कहने लगे, ‘‘प्रधानमंत्री जी जब बी.एस.एफ., सी.आर.पी.एफ. तथा रॉ जैसी खुफिया एजैंसियों को प्रोत्साहित करके पाकिस्तानियों को बगावत करने के लिए कहा तो क्या उस समय मेरे साथ कोई सलाह-मशविरा किया था?’’ अपने अनोखे अंदाज के लिए जाने जाते मानेकशॉ ने कहा, ‘‘वैसे मेरी नाक बहुत लम्बी है और जो कुछ हो रहा है उस बारे मुझे पूरी जानकारी है।’’ फिर प्रधानमंत्री कहने लगीं, ‘‘मैं चाहती हूं कि आप पाकिस्तान में दाखिल हों।’’ मानेकशॉ बोले, ‘‘इसका मतलब जंग शुरू?’’ इंदिरा ने उत्तर दिया, ‘‘अगर युद्ध भी लडऩा पड़े तो मुझे कोई ऐतराज नहीं।’’ 

सेना प्रमुख कहने लगे, ‘‘क्या आप इसके लिए तैयार हो? मैं तो फिलहाल तैयार नहीं हूं।’’ फिर प्रधानमंत्री को समझाने लगे  कि, ‘‘कुछ दिन बाद बर्फ पिघलने से हिमालय पर्वत वाले दर्रे खुलने शुरू हो जाएंगे। तब चीन पाकिस्तान की सहायता के लिए हमारे ऊपर हमला कर सकता है। इसके साथ ही पूर्वी पाकिस्तान में बारिशें शुरू हो जाएंगी जिस कारण संभावित युद्ध वाला इलाका बाढ़ प्रभावित हो जाएगा और मौसम की खराबी के कारण हवाई सेना की सहायता लेनी भी मुश्किल हो जाएगी।’’ 

इंदिरा ने अपने दांत भींचते हुए कहा कि कैबिनेट दोबारा चार बजे मिलेगी। दस्तूर के अनुसार अंत में जब सेना  प्रमुख कार्यालय से निकलने लगे तो पीछे से आवाज आई, ‘‘सेना प्रमुख आप ठहरिए।’’ मानेकशॉ ने पीछे मुड़ते ही यूं कहा, ‘‘प्रधानमंत्री जी, इससे पहले कि आप अपना मुंह खोलें, मैं आपको अपने इस्तीफे की पेशकश करता हूं।’’ 

फिर इंदिरा कहने लगीं कि जो कुछ भी आपने मुझे बताया है सब सच है। उत्तर में मानेकशॉ कहने लगे, ‘‘यह मेरी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि मैं आपको वास्तविकता से अवगत करवाऊं। युद्ध लडऩा मेरी ड्यूटी है और फिर युद्ध लड़ कर विजय प्राप्त करने का भी मैं जिम्मेदार हूं।’’ आखिर मानेकशॉ की आंखों में आंखें डाल कर अपनी मुस्कुराहट बिखेरते हुए  प्रधानमंत्री बोलीं, ‘‘सैम, आपको पता है कि मैं क्या चाहती हूं?’’ अपने सुंदर लहजे में मानेकशॉ कहने लगे कि मैं सब कुछ समझता हूं और आपकी आशाओं पर पानी नहीं फिरने दूंगा और आपको निराशापूर्ण चेहरा लेकर मेरी ओर नजर घुमाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। परिणामस्वरूप लगभग 7 महीनों बाद अक्तूबर 1971 में सशस्त्र सेनाओं में हलचल शुरू हो गई। 

यह एक कड़वी सच्चाई है कि जब भी राजनीतिज्ञों ने सेना के जनरलों की सलाह लिए बिना फैसले लिए, उसका खमियाजा देश को भुगतना पड़ा। मिसाल के तौर पर 1962 की भारत-चीन जंग। उससे पहले 1947-48 में घुसपैठियों को वापस धकेलते समय यदि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जनरल कुलवंत सिंह जैसों की सिफारिश मान लेते तो समूचा कश्मीर हमारे पास होता। जनरलों को चाहिए कि फील्ड मार्शल मानेकशॉ तथा जनरल हरबख्श सिंह जैसा जिगर व दमखम रखें। वर्तमान हालात में राजनीतिज्ञों व जनरलों के बीच तालमेल तो है मगर हौसला और शक्ति नहीं कि वे देशवासियों के सामने सच्चाई पेश कर सकें। जिंदा और ताजा मिसाल गलवान घाटी तथा अरुणाचल प्रदेश हैं। परमात्मा इन्हें सद्बुद्धि बख्शें।-ब्रिगे. कुलदीप सिंह काहलों (रिटा.)
 

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