विलुप्त होती मोहल्ला संस्कृति
punjabkesari.in Tuesday, Nov 18, 2025 - 06:00 AM (IST)
‘हाई -राइज सोसायटी किसी जेल जैसी लगती है। घर से बाहर निकलो तो बस सीमैंट की दीवारें हैं, लिफ्ट में चढ़ो तो अजनबी चेहरों की चुप्पी।’ शहरी विकास का खोखलापन उजागर करता एक वीडियो बीते दिनों सोशल मीडिया पर खासा चर्चित रहा। एकाकीपन से जूझती महिला के हृदय की व्यथा जग-जाहिर करता यह वीडियो दरअसल, आधुनिक युग की कटु वास्तविकता है, जिसे निदा फाजाली ने कुछ यूं बयां किया था-
हर तरफ, हर जगह बेशुमार आदमी,
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी।।
वीडियो में तन्हाई की कसक है, जिसे अमूमन आज हर व्यक्ति महसूस कर रहा है। कारण स्पष्ट है, बदलते परिवेश के साथ हमारी प्राथमिकताएं भी बदलीं। संतुष्टि से इतर हम संपन्नता में जिंदगी तलाशने लगे। व्यस्तताओं व विलासिता में बढ़ते रुझान ने हमें हमारे उस सामाजिक दायरे से अलग-थलग कर डाला, जिसे मोहल्ला संस्कृति का नाम दिया गया था। विभिन्न परिवारों को एकसूत्र में पिरोती इस संस्कृति में सभी के सुख-दुख सांझे थे। किसी भी घर में बड़ों की आवाज गूंजती तो आस-पड़ोस में अपनापन जताते नाते-रिश्ते स्वयं ही सृजित हो जाते। शादी-ब्याह के ढोल की थाप पूरे मोहल्ले को उल्लसित कर डालती। पारस्परिक परामर्श बड़ी से बड़ी समस्याएं चुटकी में सुलझा देता। कुल मिलाकर भावनात्मक लगाव ही इस संस्कृति की विलक्षण पहचान था।
इसी थीम पर निर्मित आधुनिक फ्लैट संस्कृति का जायजा लें तो स्थिति सर्वथा विपरीत नजर आएगी। दीवारें परस्पर सटी होने के बावजूद संवेदनात्मक जुड़ाव नदारद महसूस होगा। शब्द शालीन, मगर अजनबीपन का अहसास लिए। संक्षेप में, हमारा वजूद मोहल्ला संस्कृति की उदारवादी ‘हम’ प्रवृत्ति से सिमटकर ‘मैं’ तक जा पहुंचा है। यही कारण है कि वर्तमान में अवसाद व आत्महत्या के मामले अपेक्षाकृत बढ़ चुके हैं, वह भी उस दौर में, जब तकनीकी साधनों के माध्यम से लोगों से संपर्क साधना पहले की बजाय कहीं सरल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के सोशल कनैक्शन कमीशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व का हर छठा व्यक्ति खुद को सामाजिक रूप से एकाकी महसूस कर रहा है। अकेलापन प्रतिवर्ष 8 लाख 70 हजार से अधिक लोगों का जीवन लील रहा है। प्रति घंटे 100 से ज्यादा लोगों की मृत्यु का कारण एकाकीपन रहा। विशेषज्ञों के मुताबि$क, मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा अकेलापन शिक्षा, रोजगार तथा अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर डाल रहा है।
शाब्दिक भ्रम से उबरने हेतु अकेलेपन तथा सामाजिक अलगाव की परिभाषा में अंतर जानना भी आवश्यक है। रिपोर्ट के अनुसार, अकेलापन वह पीड़ा है जो अपेक्षित सामाजिक जुड़ाव नहीं मिलने पर महसूस होती है, जबकि सामाजिक अलगाव की स्थिति में व्यक्ति के पास संबंधों का ही अभाव होता है। यह समस्या कमोबेश समाज के हर वर्ग को प्रभावित कर रही है लेकिन युवाओं, बुजुर्गों तथा गरीब देशों में रहने वाले लोगों में इसका प्रभाव सर्वाधिक देखने में आए।
एक रिपोर्ट के तहत, 5 प्रतिशत से 15 प्रतिशत किशोर अकेले हैं। अफ्रीका में 12.7 प्रतिशत किशोर अकेलेपन का अनुभव करते हैं, जबकि यूरोप में यह दर 5.3 प्रतिशत है। भारत में भी यह समस्या दिनों-दिन बढ़ रही है। वैश्विक स्तर पर हर चौथा बुजुर्ग अकेलेपन की समस्या से पीड़ित है, जिस कारण मानसिक दबाव बढ़ा है। बुजुर्गों में अकेलेपन के कारण मनोभ्रंश विकसित होने का खतरा 50 प्रतिशत ज्यादा होता है। हार्ट अटैक या स्ट्रोक का खतरा 30 प्रतिशत बढ़ जाता है। स्कूल में अकेलापन अनुभव करने वाले युवाओं में विश्वविद्यालय छोडऩे की संभावना अधिक होती है। अलग-थलग महसूस करने से नौकरी में संतुष्टि तथा प्रदर्शन खराब हो सकता है। परिवार में टकराव की संभावनाएं पनपती हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, इस समस्या के अनेक कारण हैं। स्वास्थ्य की स्थिति, कम आय, कम शिक्षा, अकेले रहना, कमजोर सामुदायिक ढांचा, उपेक्षित सरकारी नीतियां, आर्थिक चुनौतियां, महंगाई, बेरोजगारी, बढ़ती डिजिटल निर्भरता आदि। खास तौर पर युवाओं में अत्यधिक मोबाइल एवं स्क्रीन टाइम तथा नकारात्मक ऑनलाइन व्यवहार मानसिक तनाव को अत्यधिक बढ़ा रहे हैं। सम्पूर्ण विकास हेतु सामाजिक जुड़ाव अत्यंत आवश्यक है। यह जीवन को लंबा, स्वस्थ और खुशहाल बनाने में सहायक सिद्घ होता है, वहीं अकेलापन स्ट्रोक, हृदय रोग, मधुमेह, स्मृति की समस्या तथा समय से पूर्व मृत्यु का जोखिम बढ़ा देता है। डिप्रैशन, चिंता, और आत्मघात जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न करने वाला अकेलापन प्रतिदिन 15 सिगरेट पीने से कम घातक नहीं। फैसला अब हमें करना है, आभासी दुनिया और अहम् के दायरों में बंद रहेंगे या फिर आस-पड़ोस के दरवाजों पर दस्तक देकर मोहल्ला संस्कृति के अपनत्व भरे स्वरूप को पुनर्जागृत कर, अकेलेपन के दानव को मात देंगे?-दीपिका अरोड़ा
