‘वंदे मातरम्’ पर अनावश्यक विवाद
punjabkesari.in Monday, Feb 20, 2017 - 11:59 PM (IST)

चाय की केतली में तूफान। पिछले सप्ताह उच्चतम न्यायालय राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम् को भी राष्ट्रगान जन गण मन के समान सम्मान देने के बारे में दायर एक याचिका का सार यही है। हालांकि इस मुद्दे पर पहले भी 2 बार विचार किया जा चुका है किंतु फिर भी यह बीच-बीच में उठता रहता है और हमारे नेता इस सुंदर मधुर गीत को बेसुरा बना रहे हैं।
वंदे मातरम् ने भारत में अंग्र्रेजी हुकूमत तथा फिरंगियों को खदेडऩे में देशभक्ति की अलख जगाई तथा भारतीयों को उनके विरुद्ध एकजुट किया और भारत को स्वतंत्रता दिलाने में सहायक हुआ। तथापि विद्वान न्यायाधीशों का मानना है कि हमारे संविधान के जनकों ने जन गण मन को राष्ट्र गान घोषित किया जबकि उन्होंने वंदे मातरम् के बारे में ऐसी कोई घोषणा नहीं की। वस्तुत: न्यायालय ने गत नवम्बर में आदेश दिया कि सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्र गान की धुन बजाई जाए और वहां उपस्थित सभी दर्शकों को राष्ट्र गान के सम्मान में खड़ा होना होगा क्योंकि यह संविधान में वॢणत आदर्शों के प्रति उनका दायित्व है और उसने इसे संवैधानिक देशभक्ति की संज्ञा दी।
शायद याचिकाकत्र्ता ने 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा में हुई बहस से प्रेरणा ली जिसमें संकल्प किया गया था कि वंदे मातरम् को जन गण मन के समान दर्जा दिया जाएगा। किंतु कुछ लोगों का मानना है कि राष्ट्र गीत राष्ट्र-राज्य के उत्सव के लिए एक और गीत है और इसे अनुचित महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। वस्तुत: यू.पी.ए. सरकार के दौरान मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अगस्त 2006 में सभी राज्य सरकारों को आदेश जारी किया था कि वंदे मातरम् के 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 7 सितम्बर से सभी स्कूलोंं में वंदे मातरम् का गायन अनिवार्य बनाया जाए।
किंतु मंत्रालय को यह एहसास नहीं था कि मुसलमान इसका विरोध करेंगे। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मौलवियों ने इस आधार पर राष्ट्रीय गीत का विरोध किया कि इसका गायन इस्लाम विरोधी है और इसको गाने का मतलब मातृभूमि की पूजा करना है। फलत: सरकार ने इस आदेश को वापस ले लिया और राष्ट्र गीत का गायन स्वैच्छिक बना दिया। फिर 2009 में जमायत-उलेमा-ए-हिन्द ने वंदे मातरम् के गायन के विरुद्ध फतवा जारी किया। उत्तर प्रदेश के देवबंद में इस्लामिक मौलवियों ने 2006 के रुख को दोहराते हुए एक प्रस्ताव अपनाया और कहा कि देशभक्ति जताने के लिए स्कूलों में वंदे मातरम् गाने की जरूरत नहीं है।
इस संदर्भ में हमें यह समझना होगा कि वंदे मातरम् को कैसे और क्यों राष्ट्रीय गीत के रूप में मान्यता मिली। इस गीत को 1875 में लिखा गया और इसका प्रकाशन पहली बार बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास आनंद मठ में 1882 में हुआ। इसकी कहानी इस प्रकार है कि एक साधुओं का समूह जो स्वयं को भारत माता की संतान कहता था उनके गुरु सत्यानंद को नवाब ने बंदी बना लिया था। साधुओं ने अपने गुरु को मुक्त कराने की प्रतिज्ञा ली और नारे लगाए कि वे मुसलमानों को नदियों में फैंक देंगे और उनके घरों को जला देंगे। वे न केवल अपने गुरु को मुक्त कराने में सफल रहे अपितु उन्होंने भारत में अंग्रेजी शासन का स्वागत भी किया। इस उपन्यास में मुसलमानों के विरुद्ध अत्याचारों का वर्णन है।
1770 में जब बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के वास्तविक शासन में अकाल पड़ा तो उसने किसानों को खाद्यान्नों की जगह नील की खेती करने के लिए बाध्य किया क्योंकि उससे कम्पनी को निर्यात कर अच्छी आय हो रही थी। नील की खेती से खेत दूसरी फसल के लायक नहीं रह जाते थे जिसके चलते गोरों के विरुद्ध किसान विद्रोह हुआ तथा खेतों से लेकर गलियों तक वंदे मातरम् अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति पाने का गीत बन गया। देश भर में रैलियों के दौरान इस गीत को गाया जाता था। अनेक लोगों को जेल में डाल दिया गया और इस गीत पर प्रतिबंध लगा दिया गया। किंतु इससे लोगों की देशभक्ति की भावना टूटी नहीं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस गीत को 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया और लाला लाजपत राय ने लाहौर से वंदे मातरम् नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।
कांग्रेस ने 7 सितम्बर 1905 को अपने वाराणसी अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया और उसके बाद कांग्रेस की प्रत्येक बैठक और अधिवेशन की शुरूआत में इसका गायन किया जाने लगा। इस गीत की शक्तिशाली पंक्तियों ने सारे देश में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी तथा नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इसे इंडियन नैशनल आर्मी का गीत बनाया और उनका सिंगापुर स्थित रेडियो स्टेेशन इसे नियमित रूप से प्रसारित करता था। अक्तूबर 1937 में कुछ मुस्लिम नेताओं ने वंदे मातरम् का इस आधार पर विरोध किया कि इसमें कुछ पद्य ऐसे हैं जो इस्लाम की भावना के विरुद्ध हैं।
नेहरू अपने मुस्लिम भाइयों की धार्मिक दुविधा को समझते थे और उन्होंने एक समझौता फार्मूला निकाला। उन्होंने कहा कि हालांकि यह गीत स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय महत्व का गीत है, फिर भी कांग्रेस कार्यसमिति की 1937 में नेहरू के नेतृत्व में कलकत्ता में हुई बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि इस गीत के केवल पहले 2 पद्य गाए जाएंगे। इसके अलावा आयोजकों को यह स्वतंत्रता दी गई कि वे वंदे मातरम् के स्थान पर किसी भी अनापत्तिजनक अन्य गाने को गा सकते हैं। लंबे समय तक वंदे मातरम् को भारत का राष्ट्र गान माना जाता रहा किंतु स्वतंत्रता के बाद जन गण मन को भारत का राष्ट्र गान बनाया गया। इस गीत को राष्ट्र गान बनाने के बारे में यह भी आपत्ति दर्ज की गई कि यह आनंद मठ का भाग है जिसे एक मुस्लिम विरोधी उपन्यास समझा जाता है।
कुल मिलाकर हमें यह समझना होगा कि भारत का बहुलवादी जीवंत लोकतंत्र तथा नागरिक समाज न तो कठोर है और न ही उसमें समय के साथ ठहराव आ पाया है। इसमें निरंतर सुधार हो रहा है। 2 गीत किसी भी राष्ट्र या उसकी जनता के भविष्य को बना या बिगाड़ नहीं सकते हैं, हालांकि हम वंदे मातरम् को राष्ट्र गीत और राष्ट्रीय गौरव के रूप में जन गण मन के समान सम्मान देते हैं।