वाजपेयी जनता की ओर से बेहतर अलविदा के हकदार थे

Sunday, Aug 19, 2018 - 03:50 AM (IST)

अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम यात्रा एक ऐसे शहर, जिसने पहले उनकी पार्टी को सत्ता का स्वाद चखाया, में अधिक रोमांचकारी नहीं रही। आशा थी कि दिल्लीवासी लाखों की संख्या में बाहर निकल कर एक ऐसे व्यक्ति को अंतिम विदाई देंगे जो दशकों तक उनका प्रिय बना रहा हो।

भारत में किसी भी अन्य शहर में वाजपेयी तथा उनकी पार्टी जनसंघ, जिसमें से वर्तमान की भाजपा निकली है, को उतना गले नहीं लगाया जितना राष्ट्रीय राजधानी ने। 1967 में जब जनसंघ ने दिल्ली मैट्रोपोलिटन काऊंसिल (डी.एम.सी.) का नियंत्रण जीता, शहर ने असल उत्सव से महीनों पहले दीवाली मना ली तथा इस घटना की खुशी में दीए तथा मोमबत्तियां जलाईं। 

शुक्रवार को जब वाजपेयी की शवयात्रा भाजपा मुख्यालय से राष्ट्रीय स्मृति स्थल, जो मुश्किल से 4 किलोमीटर की दूरी है, की ओर जा रही थी तो प्रधानमंत्री व भाजपा के अन्य कई दिग्गज नेताओं, जिनमें कई मुख्यमंत्री भी शामिल थे, की उपस्थिति के बावजूद अपेक्षाकृत भीड़ कम थी। यह दिवंगत आत्मा की बहुपक्षीय उपलब्धियों का छोटा-सा हिस्सा भी प्रतिबिबिंत नहीं कर रही थी। यह बढ़ती जा रही कुटिलता पर एक टिप्पणी थी जिसने लोगों को अपने शिकंजे में ले लिया है। ऐसा दिखाई देता है कि वह अब परवाह नहीं करते, खुद में मस्त रहते हैं। 

एक दैवीय राजनीतिक व्यक्तित्व की उपलब्धियां अथवा विचारधारा, जिसका वह प्रतिनिधित्व करते थे अब पृष्ठभूमि में चली गई है और यहां तक कि लोग भी अब अपनी सामान्य दिनचर्या में व्यस्त रहते हैं। किसी असामान्य नेता के निधन का शोक मनाने के लिए छुट्टी का इस्तेमाल अब आराम करने, शवयात्रा को टैलीविजन पर देखने या परिवार अथवा मित्रों से मिलने के लिए किया जाता है। लोग अब विरक्त बन गए हैं। केवल समाज विज्ञानी ही तमिलनाडु में राजनीतिज्ञों के निधन पर जनता द्वारा मनाए जाने वाले अत्यंत शोक का खुलासा करने में सक्षम हो सकते हैं। 

वाजपेयी स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े कद के नेता थे। अन्य भी बहुत से नेता थे, कुछ सक्षम सांसद भी थे जिनमें से कुछ लोकप्रिय भी थे मगर उनमें से किसी में भी उस लोकप्रियता को सरकार बनाने के लिए चुनावी विजय में बदलने की क्षमता नहीं थी। स्वतंत्र भारत में कोई भी अन्य नेता कांग्रेस के बाहर अपने बूते पर अपनी पार्टी को सत्ता नहीं दिला पाया जैसा कि वाजपेयी ने किया। उन्होंने वर्तमान भाजपा के लिए इतनी मजबूती से आधार तैयार किया कि नेताओं की वर्तमान फसल के लिए उस पर इमारत खड़ी करना एक आसान काम बन गया है, विशेषकर विपक्षी खेमे में अव्यवस्था को देखते हुए। 

इसलिए उनके अंतिम संस्कार के समय कम भीड़ देखना निराशाजनक था। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि वह वास्तविक तौर पर एक दशक से भी अधिक समय से सार्वजनिक जीवन से बाहर थे, न तो दिखाई देते थे और न ही आम लोगों के मन में थे। लोग भी चढ़ते सूरज को ही सलाम करते हैं। वह काफी बूढ़े भी हो गए थे। अंत स्वाभाविक था जो लम्बी बीमारी के बाद आया। भावनात्मक गुस्से को भड़काने के लिए उनके निधन पर कोई हिंसक गतिविधि नहीं हुई। जो भी कारण हो, वाजपेयी जनता की ओर से बेहतर अलविदा के हकदार थे। हालांकि सभी रस्मों तथा विधियों के साथ सरकारी अंतिम संस्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी गई। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने गुरु के प्रति अपना धर्म अत्यंत अच्छी तरह से निभाया। लोगों को उनका आभारी होना चाहिए। 

पीछे देखें तो वाजपेयी हमेशा एक उदार अथवा संयत व्यक्ति नहीं थे। जो लोग इन शब्दावलियों को मशीनी तौर पर उगलते हैं उन्हें वापस जाकर संसदीय लाइबे्रेरी में उनके 50 तथा 60 के दशकों के भाषणों को पढऩा चाहिए ताकि पता चले कि वह किस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे। अपने तीसरे दशक के मध्य में उन पर आर.एस.एस.-जनसंघ के जोश का रंग चढ़ा था, एक ऐसा रंग जो विभाजन के खूनी परिणाम के बाद भारतीयों की पीढिय़ों में गुंजायमान हो रहा था। गांधी की हत्या अथवा कांग्रेस नेताओं पर स्वतंत्रता संग्राम का रंग चढ़ा होने के कारण जनसंघ का उत्थान सम्भवत: अस्थिर और यहां तक कि धीमा हो सकता था मगर इस बात का श्रेय वाजपेयी के कुशल नेतृत्व तथा नानाजी देशमुख, लाल कृष्ण अडवानी जैसे व्यक्तियों के संगठनात्मक कौशल को जाता है कि पार्टी कांग्रेस को हाशिए पर धकेलने में सफल रही। 

नानाजी देशमुख तथा अडवानी दोनों ही संगठनात्मक कौशल के महारथी थे और जब तक जनसंघ-भाजपा में सक्रिय रहे संघ के करीब रहे, जबकि वाजपेयी ने अपना खुद का रास्ता चुना। हालांकि वह हमेशा सतर्क रहे कि संगठन की मूल विचारधारा से बहुत दूर न हों। वाजपेयी को जनसंघ-भाजपा के किसी अन्य व्यक्ति के पीछे छिपाने के बार-बार प्रयास सफल नहीं हो पाए क्योंकि लोग वाजपेयी को पार्टी के किसी भी अन्य नेता के मुकाबले खुद का अपना समझते थे। 

जनसंघ तथा भाजपा में कई बहुत अच्छे जनवक्ताओं के होने के बावजूद कोई भी वाजपेयी की वाकपटुता, उनकी हाजिरजवाबी, मसखरेपन, श्रोताओं के साथ उनके सम्पर्क का मुकाबला नहीं कर सकता था। वर्षों के दौरान अडवानी एक अत्यंत सुयोग्य सांसद के रूप में उभरे मगर एक जनवक्ता के तौर पर वह अपने वरिष्ठ नेता की बराबरी नहीं कर सके  जिन्होंने भारतीयों की कई पीढिय़ों को अपने मंत्रमुग्ध करने वाले भाषणों से रोमांचित किया। वाजपेयी को सच्ची श्रद्धांजलि यह दी जा सकती है कि सब कुछ के बावजूद वह एक भद्रपुरुष थे।-वरिन्द्र कपूर

Pardeep

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