उत्तराखंड कांग्रेस अपनों के ही बुने मकडज़ाल में फंसी

Saturday, Apr 02, 2016 - 01:22 AM (IST)

(मास्टर मोहन लाल): उत्तराखंड में कभी बहुगुणा को हरीश रावत ने पटखनी दी तो कभी बहुगुणा रावत को धूल चटा गए। अब समय आया तो नौ कांग्रेसी विधायक हरीश रावत की सरकार के लिए खतरा बन गए। कांग्रेस का इतिहास अपनों द्वारा किश्ती डुबोने का इतिहास है। भाजपा तो मात्र उत्तराखंड में नाहक मुद्दा बन गई। आसमान तो गिरने वाला नहीं था यदि 28 मार्च को विधानसभा के सभागार में बहुमत का निर्णय भाजपा होने देती। 

 
व्यर्थ में कांग्रेस को उंगली पर खून लगाकर शहीद बना दिया। 28 मार्च के निर्धारित दिन को कांग्रेस बहुमत सिद्ध नहीं कर सकती थी परन्तु आज जब उच्च न्यायालय के निर्देश पर 6 अप्रैल को बहुमत सिद्ध करने का अवसर आया तो शायद सहानुभूति की लहर पर सवार हो कांग्रेस अपना बहुमत सिद्ध कर जाए। 
 
अनुच्छेद 356 संविधान में सिर्फ केन्द्रीय मंत्रिमंडल को बहाना उपलब्ध करवाता है किसी भी राज्य सरकार को भंग करने का, सो कांग्रेस ने उत्तराखंड में वह बहाना थमा दिया। नौ विधायक कांग्रेस विधायक दल से बागी हो गए। इसके अलावा एक तथाकथित सी.डी. मुख्यमंत्री की सौदेबाजी की जगजाहिर हो गई। भाजपा को इससे अच्छा अवसर धारा 356 को लागू करने का भला और क्या चाहिए था?
 
फिर उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू करने का यह कोई पहला मौका तो है नहीं। पैंतीस राज्यों में 125 अवसरों के लगभग राष्ट्रपति राज को दोहराया गया है। 119 बार तो मैं स्वयं देख चुका हूं। संविधान लागू होने के दो वर्षों के भीतर राष्ट्रपति शासन की गिरफ्त में आने वाला पंजाब पहला प्रांत था। केरल नौ बार राष्ट्रपति राज के अधीन रहा। पंजाब मई, 1987 से लेकर साढ़े तीन साल राष्ट्रपति शासन के अधीन रहा। अभी हाल ही में जम्मू-कश्मीर अढ़ाई महीने राष्ट्रपति राज के अन्तर्गत रहा। उड़ीसा सबसे कम समय यानी केवल 15 दिन राष्ट्रपति राज के अधीन रहा। समय-समय पर कभी कर्नाटक, कभी राजस्थान, कभी मध्य प्रदेश, कभी हिमाचल प्रदेश, कभी तमिलनाडु तो कभी आंध्र प्रदेश राष्ट्रपति राज के भुक्तभोगी रहे। 
 
2 मार्च 1980 को तमिलनाडु में 16 राजनीतिक दलों ने विधानसभा भंग करने के विरुद्ध महारैली की। ङ्क्षहसा हुई। एन.टी. रामा राव की आंध्र प्रदेश में सरकार भंग करने के विरुद्ध सभी विरोधी दल इक_े हो गए। तत्कालीन राज्यपाल आंध्र प्रदेश की खूब गत बनी। राज्यों के उच्च न्यायालयों में पटीशन राष्ट्रपति शासन के विरुद्ध दाखिल की गई। परिणाम स्वरूप गोहाटी, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्टों की तमाम पटीशन्ज को सर्वोच्च न्यायालय को सौंप दिया गया। 
 
सर्वोच्च न्यायालय ने 11 मार्च 1994 को बोम्मई बनाम यूनियन आफ इंडिया केस में अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि बहुमत का निर्णय राजभवन या राष्ट्रपति भवन में नहीं अपितु विधानसभा के भवन में ही होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक और नागालैंड विधानसभाओं को भंग करने को असंवैधानिक ठहराया था। अत: उत्तराखंड को उदाहरण मान कर  संविधान के अनुच्छेद 356 पर राजनेताओं, राजनीति के विद्वानों द्वारा पुन: विचार किया जाना चाहिए।
 
क्या केवल राज्यपाल की संतुष्टि मात्र से किसी राज्य के जनमत को कुचला जा सकता है? क्या अकेला राज्यपाल यह निर्णय लेने में समर्थ है कि किसी राज्य विशेष की सरकार संविधान अनुसार चल रही है या नहीं? या राज्यपाल मात्र केन्द्र सरकार की कठपुतली बनकर काम कर रहा है? क्या राज्यपाल गलतियों से ऊपर है? क्या राज्यपाल की भूमिका निष्पक्ष है? इत्यादि संवैधानिक प्रश्रों का तर्कसंगत उत्तर ढूंढना अनिवार्य है। यह सत्य है कि राज्यपाल केन्द्र का एजैंट है। फिर भी यह नहीं हो सकता कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल एक झटके से राष्ट्रपति को राज्य सरकार भंग करने की सिफारिश कर दे। तर्कसंगत ढंग से धारा 356 को अंतिम परिणाम तक पहुंचाना चाहिए।
 
तनिक ध्यान दें कि संविधान की धारा 356 का जन्म गवर्नमैंट आफ इंडिया एक्ट 1935 के शरारती सैक्शन 93 के गर्भ से हुआ था। तब विदेशी हुकूमत थी। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि हिन्दोस्तान में लोगों द्वारा चुनी हुई सरकारें राज्यों में काम करें। यही कारण था कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर अंग्रेजी हुकूमत ने सैक्शन 93 की आड़ में पांच प्रदेशों मुम्बई, मद्रास, यूनाइटेड प्रोविन्स (यू.पी.), बिहार और सैंट्रल प्रोविन्स (सी.पी.) की लोकप्रिय राज्य सरकारों को भंग कर दिया था। 
 
इसी अनुच्छेद 356 के अधीन 1977 में जनता पार्टी के चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस शासित प्रदेशों की सरकारों को भंग किया और 1980 में जब श्रीमती इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आईं तो उन्होंने जनता पार्टी द्वारा शासित राज्य सरकारों को झटका दे दिया था। यह गिराने-उठाने का खेल धारा 356 की आड़ में न किया जाए। भारत के प्रजातंत्र में केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। केन्द्र की अपनी शक्तियां हैं और राज्यों की अपनी। दोनों सरकारों को ‘इन बिटवीन द लाइन्ज’ चलना है। दोनों किसी की शक्तियों का अतिक्रमण न करें। यद्यपि संविधान केन्द्र सरकार को राज्यों के कार्यों में हस्तक्षेप का पूर्ण अधिकार देता है ताकि संघीय ढांचा मजबूत बना रहे तो भी प्रजातंत्र में जनमत को प्राथमिकता दी गई है।
 
संविधान निर्माताओं को डर था कि अनुच्छेद 356 की आड़ में केन्द्र में विरोधी दल की सरकार आने पर इस धारा का दुरुपयोग हो सकता है इसलिए एच.वी. कामत, हृदय नाथ कुंजरू और स्वयं संविधान निर्माता बाबा साहिब भीमराव अम्बेदकर ने अनुच्छेद 356 का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करने का मत व्यक्त किया था। संविधानवेत्ता नहीं चाहते थे कि किसी भी केन्द्रीय सरकार को इतना अधिकार दे दिया जाए कि वह राज्य की निर्वाचित सरकार को पंगु बना दे। उत्तरदायी सरकार देना सबसे कठिन कार्य है और इसके लिए सरकार का सहनशील और साहसी होना आवश्यक है। 
 
संविधान निर्माताओं ने धारा 356 को राज्य के विकास और निष्पक्ष मतदान के लिए अंकुश बताया था। अनुच्छेद 356 के अधीन केन्द्र सरकार अनधिकृत रूप से राज्य सरकार के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है अत: भारतीय जनता पार्टी जोकि स्वयं लोकतांत्रिक मूल्यों को अधिमान देती है इस धारा 356 का पुनरावलोकन करे। भारतीय जनता पार्टी के वयोवृद्ध एवं वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण अडवानी ने ठीक कहा है कि  ‘‘विशाल जनमत की राय है कि धारा 356 को चालू रखा जाए परन्तु इस धारा का बड़ी सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाए। सरकारिया कमीशन की सिफारिशों को धारा 356 लागू करने से पहले विचार लिया जाए।’’ राष्ट्रपति राज लागू करने में जल्दबाजी और पूर्वाग्रह से काम न लिया जाए। 
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