मुख्तार का सपा से जाना और बसपा में आना

Saturday, Jan 28, 2017 - 06:08 PM (IST)

बहन मायावती ने कमाल कर दिया। जिस मुख्तार अंसारी को पार्टी में शामिल करने के मुद्दे पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम  यादव से बगावत कर दिया, उसी मुख्तार अंसारी को बहन जी ने आदर-सम्मान के साथ बहुजन समाज पार्टी में शामिल कर लिया। बहन जी की दरियादिली यहीं नहीं रुकी। भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या के आरोप में जेल में बंद मुख्तार अंसारी को उन्होंने मऊ सीट से बसपा का टिकट भी दे दिया। मुख्तार अभी इसी सीट से विधायक हैं।

चुनाव के समय राजनीति में रंग बदलने का यह खेल नया नहीं है। अखिलेश ने खुद को अपराध और अपराधियों के खिलाफ साबित करने के लिए मुख्तार को सपा से दूर रखने की कोशिश की, लेकिन बहन जी को इसकी चिंता नहीं है। इस वक्त उन्हें सिर्फ  विधानसभा में बहुमत की चिंता दिखाई दे रही है, ताकि वह फिर से मुख्यमंत्री बन सकें। उनकी रणनीति को समझें तो मुख्तार का कुनबा इस रणनीति में मददगार साबित हो सकता है। पूर्वी यूपी की कई सीटों पर मुस्लिम वोटरों का दबदबा है। मुख्तार इसी इलाके के बाहुबली नेता हैं। मुख्तार और उनका परिवार पहले भी बसपा में रह चुका है। मुख्तार की खासियत ये है कि वह आमतौर पर सत्ताधारी पार्टी के साथ रहते हैं। इस तरह से मुख्तार के बाहुबल एजेंडा को सरकार और प्रशासन की मदद मिलती रहती है। करीब 6 महीने पहले सपा नेता और मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल की मदद से मुख्तार ने अपनी पार्टी कौमी एकता दल का विलय सपा में कर दिया था। अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव के बीच दंगल का खुला ऐलान इस विलय के साथ ही हुआ। 

मजेदार बात ये है कि मायावती ने भी कौमी एकता दल के बसपा में विलय की घोषणा की। गजब की पार्टी है कौमी एकता दल, 6 महीने के अंदर पहले सपा और फिर बसपा में विलय हुआ। मुख्तार का एजेंडा बहुत साफ है। उन्हें अपने बाहुबल प्रोग्राम को चलाते रहने के लिए किसी बड़े राजनीतिक दल का साफ चाहिए, लेकिन मुलायम या फिर मायावती को मुख्तार से क्या चाहिए? साफ है - मुस्लिम वोट। प्रदेश की आबादी में करीब 18 फीसदी मुस्लिम हैं। पश्चिमी यूपी के रामपुर जिले में तो 51 प्रतिशत मुसलमान हैं। सपा नेता आजम खां का गढ़ यही रामपुर है। प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से करीब 73 सीटों पर मुसलमान निर्णायक स्थिति में हैं। 2002 से लेकर 2014 के आंकड़ों के मुताबिक 50 प्रतिशत से ज्यादा वोटर सपा का साथ देते रहे हैं। कांग्रेस को भी आम तौर पर चुनावों में 7 से 10 फीसदी वोट मिलता रहा है। बसपा को लगभग 30 प्रतिशत वोटों से संतोष करना पड़ा है। 

सपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन ने मायावती की मुसीबत बढ़ा दी है। 2012 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनावों में मुसलमानों के वोट विभाजन से मुस्लिम बहुल करीब 22 प्रतिशत सीटों पर भाजपा को जीत हासिल हुई। लेकिन 2012 में कुल मिलाकर मुसलमानों का झुकाव सपा की तरफ ही रहा, जिससे मायावती की हार हुई। बसपा अब इस आंकड़े को बदलने की पुरजोर कोशिश में जुटी है। मायावती ने इस बार 100 से ज्यादा सीटों पर मुसलमानों को टिकट दिया है। 2012 में बसपा ने 83 सीटों पर मुसलमानों को खड़ा किया था। अखिलेश राज में मुज्जफरनगर दंगों ने सपा पर मुसलमानों का भरोसा तोड़ दिया। अखिलेश इस भरोसा को दोबारा जीतने की कोशिश में हैं, लेकिन अपराधी छवि के लोगों को राजनीति से अलग रखना उनके एजेंडा में ऊपर है। प्रदेश की जनता राजनीतिक संरक्षण प्राप्त अपराधियों से त्रस्त रही है।

 2012 में मायावती की हार का एक बड़ा कारण ये भी था। वैसे अपराधियों से परहेज सपा को भी नहीं रहा है। आपराधिक छवि वाले अनेक नेताओं को इस बार भी पार्टी का टिकट मिला है लेकिन अनी आक्रामक रणनीति के लिए मशहूर मायावती को अपराधियों को पार्टी में लेने, उनकी मदद से चुनाव जीतने और जरूरत पड़े तो पार्टी से निकालने में भी गुरेज नहीं रहा है। अखिलेश की कोशिश है कि यादव, अन्य पिछड़े और मुसलमानों का मोर्चा बने। दूसरी तरफ मायावती दलित- मुसलमान- ब्राह्मण धुरी को फिर कायम करने की कोशिश में हैं। मुख्तार को बसपा में लाना इसी रणनीति का हिस्सा

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