ट्विटर प्रयुक्त करने वाले ‘चूं-चूं करने’ के सिवाय कुछ नहीं कर सकते

Sunday, Feb 26, 2017 - 12:31 AM (IST)

मैं एक स्वीकारोक्ति से शुरूआत करना चाहूंगा। मैं ट्विटर प्रयुक्त नहीं करता और अक्सर मैं यह मजाक करता हूं कि जो ट्विटर प्रयुक्त करते हैं वे खुद ‘ट्विट’ से बढ़कर कुछ नहीं हैं। यानी कि वे सिवाय ‘चूं-चूं’ करने के अलावा किसी भी घटनाक्रम पर प्रभावी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के सक्षम नहीं। वास्तव में मेरे लिए तो ‘हैशटैग’ (प्त) भ्रमित करने वाला शब्द है। इसलिए मुझे कहना पड़ता है कि जिस प्रकार राजनीतिज्ञ मुंह उठाए ट्विटर की ओर  भागे चले आ रहे हैं और इसे संदेश भेजने का पसंदीदा माध्यम बना रहे है, उससे मैं सकते में हूं। 

केवल हमारे नरेन्द्र मोदी या अमरीका के डोनाल्ड ट्रम्प ही ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो अपने संदेश ट्विटर द्वारा तय 140 अक्षरों की सीमा में कैद करने को प्राथमिकता देते हैं। ऐसा लगता है कि दुनिया भर के अग्रणी राजनीतिज्ञ इसी रास्ते पर चल रहे हैं। आजकल राजनीतिज्ञ बोलते नहीं बल्कि ट्वीट करना पसंद करते हैं बेशक वे जो शब्द लिख रहे हों उनमें नन्हे पक्षी की आवाज वाली मिठास जैसी कोई अनुभूति न भी होती हो। हाल ही के अपने एक आलेख में आतंकवाद के विषय पर पाकिस्तान विशेषज्ञ अहमद राशिद ने कहा कि नवाज शरीफ और पाकिस्तानी सेना प्रमुख ट्विटर के बहुत घाघ यूजर बन गए हैं। वह उनके शासन को ‘ट्वीट द्वारा गवर्नैंस’ का नाम देते है। 

अब इसमें कोई संदेह नहीं रह गया कि ट्विटर प्रयुक्त करने के कितने राजनीतिक लाभ हैं। यह त्वरित और पूरी तरह फोकस टिप्पणियों की अनुमति देता है और वह भी ढेर सारे विषयों पर। किसी भी समय, किसी के भी द्वारा बिना कोई पैसा खर्च किए अपने स्मार्ट फोन पर ट्विटर की सुविधा का लाभ लिया जा सकता है। इसके प्रयोग से सोशल मीडिया का जो दायरा सृजित हुआ है वह सभी को आपस में त्वरित और सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की अनुमति देता है। 

फिर भी इसके नुक्सान न केवल बहुत बड़े हैं बल्कि इनके बारे में मुश्किल से कभी कोई चर्चा होती है। इस संबंध में मैं पाकिस्तान में गवर्नैंस के ‘ट्विटरीकरण’ के विषय पर अहमद राशिद की टिप्पणी का उल्लेख करना चाहूंगा: ‘‘ट्विटर के अभूतपूर्व प्रयोग ने पाकिस्तान में मीडिया की स्वतंत्रता को एक बहुत बड़ा खतरा खड़ा कर दिया है। यह पत्रकारों को कोई भी सवाल पूछने से बाधित कर देता है, किसी प्रकार की पारदर्शिता उपलब्ध नहीं करवाता और जिन मुद्दों पर सरकार चर्चा नहीं करना चाहती उन पर सरकारी सैंसरशिप को बढ़ावा देता है... जनरलों और राजनीतिज्ञों ने अब संवाददाता सम्मलेन करना या ब्रीफिंग करना बंद कर दिया है। हर कोई यही मान रहा है कि 140 अक्षरों की सीमा में जानकारी का आदान-प्रदान करना ही एकमात्र रास्ता रह गया है और मीडिया को भी इसी बात पर संतोष करना पड़ रहा है।’’ 

इस बारे में बहुत ध्यानपूर्वक चिंतन-मनन करें क्योंकि ऐसा भारत में भी हो सकता है। हम अभी पाकिस्तान जैसी स्थिति से तो बहुत दूर हैं, फिर भी मुझे डर है कि हम बिना सोचे-समझे उसी दिशा में बढ़ते चले जा रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री संवाददाता सम्मेलन आयोजित नहीं करते और केवल मुटठी भर भरोसेमंद पत्रकारों को ही इंटरव्यू देते हैं। वैसे ट्विटर पर वह न केवल फटाफट प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं बल्कि उनके द्वारा इसका प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है।  फिर भी इसका तात्पर्य यही है कि हम 140 अक्षरों की सीमा में केवल वही बातें जान पाएंगे जो मोदी कहना चाहते हैं। 

मोदी चाहे कई बातों पर विश्वास रखने का दावा करें तो भी ट्विटरीकरण किसी न किसी तरह पारदॢशता की कमी का ही मार्ग प्रशस्त करता है। जब भी कोई राजनीतिज्ञ ट्वीट करने का विकल्प चुनता है या यूं कहें कि पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर देने पर सहमत होता है तो वह मीडिया के प्रति (और इस प्रकार व्यापक जनसमूह प्रति)अपनी जवाबदारी को परिसीमित कर रहा होता है। बेशक संवाददाता सम्मेलन में प्रश्नों के उत्तर जानबूझकर नहीं दिए जाते। तो भी इतना तो तय है कि कम से कम प्रश्र पूछे तो जाते हैं और जब इनका उत्तर टाल दिया जाता है तो दर्शक इसका संज्ञान लेने से नहीं चूकते। फिर भी परेशानी की बात तो यह है कि ट्विटर पर आप सवाल पूछ ही नहीं सकते यानी कि आप किसी नेता की जवाबतलबी करते हुए उसे कुरेद नहीं सकते। परिणाम यह होता है कि राजनीतिज्ञ जो भी कहना चाहें वही चल जाता है बेशक वह कितना भी बेवकूफी भरा अथवा गलत क्यों न हो। 

मैं चाहूंगा कि आप मुझे एक भविष्यवाणी करने दें: राजनीतिज्ञ जितना अधिक ट्वीट करेंगे उतना ही वे सीधे प्रश्रोत्तर के लिए कम उपलब्ध होंगे और इसका मीडिया के अधिकारों पर बहुत अधिक बुरा प्रभाव पड़ेगा। यह सिलसिला जितना आगे बढ़ता है उतना ही प्रैस की स्वतंत्रता कम होती जाएगी। वैसे स्वाभाविक रूप में हम यह जानना चाहते हैं कि हमारे राजनीतिज्ञ क्या सोचते हैं और किस बात पर आसानी से ट्वीट कर सकते हैं। लेकिन उनके विचारों का ट्विटरीकरण ही इस प्रक्रिया के रास्ते का रोड़ा बन जाता है। जानकारी हासिल करना महत्वपूर्ण है। लेकिन सीधे सवाल उठा सकना उससे अधिक महत्वपूर्ण है। जब ऐसी अनुमति हासिल न हो तो जो ट्वीट आपको भेजे जाते हैं वे आपको भी एक लाचार चिडिय़ा से बढ़कर कुछ नहीं समझते जो सिवाय चूं चूं के और कुछ नहीं कर सकती। 

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