यू.पी. में भाजपा को महंगी पड़ सकती है ‘आवारा पशुओं की समस्या’

Friday, May 10, 2019 - 12:53 AM (IST)

पवित्र गाय एक पवित्र आतंक बन गई है। उत्तर प्रदेश के एक दौरे ने दिखाया कि जिन बहुत से मुद्दों पर नई दिल्ली में गर्मा-गर्म बहस होती है, गांवों में शायद ही उनका जिक्र होता हो। दूसरी ओर सम्भवत: सबसे बड़ी ग्रामीण समस्या आवारा पशुओं का डर है। प्रत्येक पार्टी इसे स्वीकार करती है लेकिन कोई भी इसका समाधान पेश करने की हिम्मत नहीं करती। ग्रामीणों का कहना है कि बेकार पशुओं के मालिक उन्हें झुंडों में खुला छोड़ देते हैं और वे गांवों में घूमते हुए फसलें खा जाते हैं। वे सम्भवत: भाजपा के चुनावी अवसरों को भी खा रहे हैं।

भाजपा का मानना है कि गाय सुरक्षा एक लोकप्रिय आंदोलन है जो हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण तथा चुनाव जीतने में मदद करेगा। सच इसके बिल्कुल उलट हो सकता है। आवारा पशुओं के खतरे ने बहुत से ग्रामीणों को परेशान कर दिया है और उनमें से कुछ सम्भवत: भाजपा सरकार के खिलाफ हो गए हैं। भारत में सत्ताधारी पाॢटयों के लिए सत्ता विरोधी लहर हमेशा ही एक समस्या रही है। पशुओं के खतरे ने उत्तर प्रदेश में सत्ता विरोधी मूड को और भी गहरा दिया है, यहां तक कि उनमें भी, जो किसी समय मोदी के प्रशंसक थे।

2014 के आम चुनावों में राजग ने उत्तर प्रदेश में 43 प्रतिशत वोट जीते थे। समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) तथा राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) ने मिलकर लगभग इतने ही प्रतिशत वोट हासिल किए थे। सत्ता विरोधी लहर का अर्थ यह हुआ कि राजग की वोट हिस्सेदारी कुछ कम हो सकती है जबकि महागठबंधन के सदस्यों की कुछ बढ़ सकती है। मत हिस्सेदारी के मामले में अंतर बेशक नाटकीय नहीं होगा लेकिन सीटें जीतने के मामले में अत्यंत नाटकीय हो सकता है।

प्रियंका गांधी के राजनीति में प्रवेश ने बड़े शहरों में सुर्खियां बनाईं लेकिन ऐसा दिखाई देता है कि ग्रामीण उत्तर प्रदेश में वह काफी हद तक अप्रासंगिक रहीं। कांग्रेस पार्टी के लिए, प्रियंका के आने से शायद मनोबल बढ़े लेकिन उत्तर प्रदेश में लड़ाई अधिकांश भाजपा तथा सपा-बसपा गठबंधन के बीच है, केवल कुछ ग्रामीण कांग्रेस उम्मीदवारों को गम्भीरता से ले रहे हैं। प्रियंका सोनिया अथवा राहुल गांधी से बेहतर वक्ता हैं और वह लोगों के साथ नजदीकियां बनाने का भी प्रयास करती हैं लेकिन इससे बहुत कम मदद मिल रही है।

हाथ में नकदी
उल्लेखनीय रूप से बहुत कम ग्रामीण ‘न्याय’ के बारे में जानते अथवा उसकी परवाह करते हैं, जो जीतने पर कांग्रेस का प्रत्येक छोटे तथा मध्यम किसान को प्रति वर्ष 72000 रुपए देने का चुनावी वायदा है। पार्टी या तो संदेश को प्रसारित करने में असफल रही है या इसे उत्तर प्रदेश में इतनी अप्रासंगिक देखा जा रहा है कि कोई भी इसके वायदों को नहीं सुनना चाहता।

दूसरी ओर अधिकतर किसानों को भाजपा की प्रधानमंत्री किसान योजना से एक या दो किस्तें मिल चुकी हैं। 6000 रुपए प्रति वर्ष के साथ प्रधानमंत्री किसान योजना ‘न्याय’ के वायदे का केवल 12वां हिस्सा पेश करती है लेकिन ऐसा दिखाई देता है कि ग्रामीणों का मानना है कि 12 पंछी टहनी पर बैठे होने की बजाय एक हाथ में होना अच्छा है।

नरेन्द्र मोदी के समर्थक मजबूती से बने हुए हैं। उनके कट्टर प्रशंसक कहीं भी उनके साथ जाएंगे। दूसरी ओर मुसलमान उन्हें दानव के तौर पर देखते हैं और भाजपा के विरोधी उम्मीदवार को वोट देना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति आधारित होने के लिए कुख्यात है लेकिन 2014 में मोदी लहर ने जाति के बंधनों को तोड़ते हुए उन्हें शानदार जीत दिलाई। इस बार कोई मोदी लहर दिखाई नहीं देती। अधिकतर लोग जाति के आधार पर वोट देंगे जिससे महागठबंधन को लाभ होगा।

ग्रामीणों की शिकायत
ग्रामीणों को शिकायत है कि उन्हें दिन-रात पशुओं को खदेड़ कर अपनी फसलों की रक्षा करनी पड़ती है। यह बहुत परेशानीजनक तथा खर्चीला कार्य है। यदि वे अपने खुद के खेतों को बचाने में सफल हो भी जाते हैं तो वे जानते हैं कि पशु किसी अन्य के खेतों को नष्ट कर देंगे। राज्य सरकार बूढ़े हो चुके पशुओं की देखरेख के लिए और अधिक गऊशालाएं बनाने की बात करती है। लेकिन वर्तमान गऊशालाओं के पास भी अपने पशुओं के लिए चारा खरीदने हेतु कोष नहीं है।

ग्रामीणों का कहना है कि कुछ गऊशालाएं सांझ ढले अपने पशुओं को छोड़ देती हैं ताकि वे खुद अपने लिए चारा ढूंढ लें। राज्य में 3 करोड़ पशु हैं, जिनमें से प्रति वर्ष सम्भवत: 20 लाख अनुत्पादक बन जाते हैं। उनकी जरूरतें केवल मनुष्यों की जरूरतों की कीमत पर पूरी की जा सकती हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बेशक इसे हिन्दुओं की विजय के तौर पर देखते हों लेकिन यह एक आर्थिक विनाश है, जो शताब्दियों से बने सामाजिक, आर्थिक संतुलन को नष्ट कर रहा है, जिसने सदियों से पशुओं को एक वरदान बनाए रखा था न कि अभिशाप।     स्वामीनाथन एस.ए. अय्यर (साभार ‘इकोनॉमिक टाइम्स’)

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