समान नागरिक संहिता लागू करना आवश्यक

punjabkesari.in Wednesday, Nov 24, 2021 - 04:26 AM (IST)

इस चुनावी मौसम में प्रत्येक समुदाय अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए पहचान की राजनीति का मुद्दा उठा रहा है और 2022 के आरंभ में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपने वोट बैंक को लुभा रहा है। किंतु यदि एक समान नागरिक संहिता लागू की जाए तो यह सब कुछ समाप्त हो सकता है। समान नागरिक संहिता पुन: सुॢखयों में है और इसका श्रेय इलाहाबाद उच्च न्यायालय को जाता है जिसने केन्द्र सरकार से आग्रह किया है कि वह इस संबंध में शीघ्रता से कदम उठाए क्योंकि यह एक आवश्यकता है और इसे करना अनिवार्य है। न्यायालय ने केन्द्र से यह आग्रह उस समय किया जब उसने शुक्रवार को अंतर-धर्म में विवाह करने वाले विभिन्न 17 दंपत्तियों को राहत दी, जिन्होंने जीवन, स्वतंत्रता और निजता की रक्षा की मांग की थी। इससे पूर्व दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी जुलाई में आशा व्यक्त की थी कि एक समान नागरिक संहिता केवल सपना नहीं रहेगी। 

जो लोग एक समान नागरिक संहिता का पक्ष लेते हैं वे संविधान के अनुच्छेद 44 का हवाला देते हैं जिसमें कहा गया है कि राज्य भारत के संपूर्ण भूभाग में सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा। वस्तुत: इसका तात्पर्य है कि व्यक्तिगत मामले, जैसे विवाह, तलाक, दत्तक ग्रहण, उत्तराधिकार आदि के मामलों में धर्म को ध्यान में रखे बिना सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून हो। एक समान नागरिक संहिता का तात्पर्य है कि एक सभ्य समाज में धार्मिक और पर्सनल कानूनों के बीच आवश्यक रूप से कोई संबंध न हो। इसके अलावा विभिन्न समुदायों के लिए अलग कानूनों को रद्द किया और सुधार लाया जाना चाहिए। यह कानून न केवल पर्सनल कानूनों में लैंगिक आधार पर भेदभाव को समाप्त करेगा अपितु सभी पर्सनल कानूनों के एक सामान्य कानून के रूप में मिला देगा जो सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होगा, चाहे वे किसी भी समदुाय या धर्म के हों। 

समान नागरिक संहिता के बारे में अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पहले ही आपत्ति व्यक्त कर दी है। उसका कहना है कि भारत एक बहु सांस्कृतिक और बहु धार्मिक समाज है और प्रत्येक समूह को अपनी पहचान बनाए रखने का संवैधानिक अधिकार है। उसका कहना है कि समान नागरिक संहिता भारत की विविधता के लिए खतरा है और यह उनकी धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का अतिक्रमण है जिसमें परंपराओं को सम्मान नहीं दिया जाएगा और बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय द्वारा प्रभावित नियमों को थोपा जाएगा। एक समान नागरिक संहिता को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में अतिक्रमण के रूप में क्यों देखा जाता है या इसे अल्पसंख्यक विरोधी क्यों कहा जाता है? यदि हिन्दू पर्सनल लॉ का आधुनिकीकरण किया जा सकता है, यदि परंपरागत ईसाई प्रथाओं को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है तो फिर मुस्लिम पर्सनल लॉ को धर्मनिरपेक्षता के लिए पवित्र क्यों माना जाए? 

देश में गोवा एकमात्र राज्य है जहां पर धर्म, लिंग, जाति आदि को ध्यान में रखे बिना एक समान नागरिक संहिता लागू है। हिन्दू, मुस्लिम और ईसाइयों को विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के मामले में इसी कानून को मानना पड़ता है। जब वर्ष 1961 में गोवा एक संघ राज्य क्षेत्र बना तो संसद ने पुर्तगाल सिविल कोड 1867 में संशोधन करने की अनुमति दी। हैरानी की बात यह है कि उदार मुसलमानों ने इसके अंतर्गत रहने का निर्णय किया। क्या उन्हें पता नहीं था कि अनेक इस्लामी देशों ने मुस्लिम पर्सनल लॉ का दुरुपयोग रोकने के लिए इसको संहिताबद्ध और इसमें सुधार किया है। सीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को, ईरान और यहां तक पाकिस्तान में बहुविवाह प्रथा पर प्रतिबंध है। 

समय आ गया है कि हम अपने आदर्शों और असहमतियों को रेखांकित करें और एक समान नागरिक संहिता लाएं। पिछले 7 दशकों में इस संबंध में वार्ता करने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया। लोगों को यह समझना होगा कि धर्म और कानून दो अलग-अलग बातें हैं। उदाहरण के लिए धार्मिक ग्रंथों में अपराधों के लिए दंड निहित किया गया है किंतु भारतीय दंड संहिता 1860 देश में एकमात्र दांडिक कानून है जिसका पालन किया जाता है। नि:संदेह एक समान नागरिक संहिता का मुद्दा संवेदनशील और कठिन है किंतु इस संबंध में एक शुरूआत की जानी चाहिए। परंपराओं और प्रथाओं के नाम पर भेदभाव को उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह राज्य का कत्र्तव्य है कि वह एक समान नागरिक संहिता लागू करे और केवल उसी के पास ऐसा करने की विधायी क्षमता है। 

एक समान नागरिक संहिता विभिन्न प्रकार के कानूनों के प्रति निष्ठा हटाकर राष्ट्रीय एकता को भी मजबूत करेगी। इस संबंध में बाबा साहिब अंबेडकर का अनुसरण किया जाना चाहिए जिन्होंने वैकल्पिक एक समान नागरिक संहिता का पक्ष लिया था, जो पूर्णत: स्वैच्छिक होगी। किसी भी समुदाय को एक प्रगतिशील विधान को वीटो करने या अवरुद्ध करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, विशेषकर जब यह स्वैच्छिक हो और यह किसी समुदाय पर किसी मत या जीवन शैली को स्वैच्छिक ढंग से नहीं थोप रहा हो। अतीत में खोए रहने से आप प्रगति नहीं कर सकते। दांडिक और व्यावसायिक कानून बुनियादी हैं। इसी तरह एक समान नागरिक संहिता भी बनाई जानी चाहिए। विभिन्न पर्सनल कानून भारत को धर्म के आधार पर बांटते हैं और 21वीं सदी में ऐसा नहीं होना चाहिए। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति किसी एक समुदाय के साथ अन्याय को सहन नहीं कर सकता।-पूनम आई. कौशिश         


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