आधी आबादी के अधूरे अरमान

punjabkesari.in Thursday, Aug 26, 2021 - 03:55 AM (IST)

किसी भी देश के विकास के लिए पुरुष और महिला समानता अपरिहार्य है। महिलाओं को दोयम दर्जे की सोच से मुक्त कर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने व सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक समानता का हक दिलवाने के लिए प्रतिवर्ष 26 अगस्त को महिला समानता दिवस मनाया जाता है। भारत में आजादी के बाद से महिलाओं को पुरुषों के समान वोट देने का अधिकार जरूर मिला लेकिन उनकी स्थिति बेहद विचारणीय है। 

आज भी भारत में आबादी के हिसाब से महिलाओं की राजनीति में भागीदारी उतनी नहीं, जितनी होनी चाहिए। भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने के पीछे सबसे बड़ा कारण अब तक समाज में पितृसत्तात्मक ढांचे का मौजूद होना है। पितृसत्तात्मक परिवारों की वजह से केवल परिवार में महिलाओं की स्वतंत्र सोच को विकसित नहीं होने दिया जाता, अपितु समाज में भी महिलाओं को स्वतंत्र रूप से बात रखने का मौका नहीं मिलता। 

सभ्यता के आरंभ से ही मानव समाज के विकास में आधी आबादी की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है और हमेशा रहेगी। जो भारत कभी ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ की विचारधारा पर चलायमान था, आज हालत यह है कि वह भारत महिलाओं पर अत्याचार के लिहाज से दुनिया का सबसे खतरनाक देश बन गया है। थॉमसन रॉयटर्स फाऊंडेशन ने महिलाओं के मुद्दे पर 550 एक्सपर्ट्स का सर्वे जारी किया, जिसमें घरेलू काम के लिए मानव तस्करी, जबरन शादी और बंधक बनाकर यौन शोषण के लिहाज से भी भारत को खतरनाक करार दिया है। भारत में 2016 में मानव तस्करी के 15,000 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से दो-तिहाई महिलाओं से जुड़े थे। सर्वे में यह भी कहा गया है कि देश की सांस्कृतिक परंपराएं भी महिलाओं पर असर डालती हैं। 

वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की ग्लोबल जैंडर गैप इंडैक्स रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के मामले में भारत को सबसे कम नंबर मिले हैं और उसका प्रतिशत घटकर 13.5 हो गया है। डब्ल्यू.ई.एफ. की इस रिपोर्ट की मानें तो भारत में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले समान काम का पांच गुना कम पैसा मिलता है। महिलाओं को समान वेतन न देने के मामले में भारत सबसे खराब 10 देशों में से एक है। 

महिलाओं की स्वास्थ्य की स्थिति भी अच्छी नहीं है। स्वास्थ्य की उपश्रेणी में भारत नीचे से 5 देशों में से एक है। लेबर फोर्स यानी श्रम में महिलाओं की हिस्सेदारी में भी भारत काफी पीछे है। प्रोफैशनल और टैक्नीकल भूमिकाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 29.2 फीसदी है। सिर्फ 8.9 फीसदी कंपनियां ऐसी हैं, जहां टॉप मैनेजीरियल पदों पर महिलाएं हैं। स्वास्थ्य की बात करें तो न सिर्फ निर्धन, बल्कि मध्यवर्गीय परिवारों में भी खानपान पर पहला अधिकार पुरुषों का है। उनसे जो बचता है, वही महिलाओं के हिस्से आता है। बीमारी और गर्भावस्था जैसी स्थितियों में भी स्त्रियों को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता। उनकी बीमारियों के इलाज में कोताही की जाती है। यही हाल शिक्षा में है। परंपरागत सोच के तहत बेटे को बेटियों से बेहतर शिक्षा मिलती है। 

नौकरी की बात करें तो हाल तक महिलाओं का घर से बाहर निकलना अच्छा नहीं माना जाता था। अब महिलाएं सभी क्षेत्रों में आ रही हैं तो वर्कप्लेस का माहौल उनके अनुकूल नहीं है। निजी कंपनियां गर्भावस्था में उन्हें छुट्टी और कुछ सहूलियतें देने की बजाय उनसे पीछा छुड़ा लेना ही बेहतर मानती हैं। राजनीतिक भागीदारी का आलम यह है कि महिला आरक्षण बिल वर्षों से लटका पड़ा है। तमाम कानूनी उपायों के बावजूद समाज में महिलाओं के लिए सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो पा रही हैं। उनके विरुद्ध हो रहे अपराधों में सजा की दर अब भी बेहद कम है। 

देश के हर कोने से महिलाओं के साथ बलात्कार, यौन प्रताडऩा, दहेज के लिए जलाए जाने, शारीरिक और मानसिक प्रताडऩा और स्त्रियों की खरीद-फरोख्त के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। ऐसे में महिला सुरक्षा कानून का क्या मतलब रह जाता है। जिन लोगों को लगता है कि सिर्फ कठोर कानून से महिलाएं सुरक्षित हो सकती हैं, तो जान लें कि शरिया कानून और कठोरतम सजा वाले देश अफगानिस्तान, सऊदी अरब भी इस टॉप 10 सूची में हैं। शासन और प्रशासन चाहे जितना कठोर कानून तैयार कर ले लेकिन जब तक व्यक्ति की मानसिकता और उसे बचपन में नारी मर्यादा के संस्कार नहीं सिखाए जाएंगे, तब तक ऐसे कानून मजाक बनते ही रहेंगे। 

आज हमें आधी आबादी के प्रति निर्मित की गई दकियानूसी मानसिकता को बदलने की आवश्यकता है। देश के हर नागरिक को अपने-अपने हिसाब से राजनीतिक मत व्यक्त करने का पूर्ण अधिकार है। इसके लिए हमें देश की महिलाओं को ऐसा माहौल देना होगा जिससे उनकी एक स्वतंत्र सोच विकसित हो, वे अपनी बात खुलकर बिना किसी संकोच के समाज के सामने रखें।-देवेन्द्रराज सुथार 
 


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