सरकार और विपक्ष में विश्वास की कमी दुर्भाग्यपूर्ण

punjabkesari.in Thursday, Jul 21, 2022 - 05:44 AM (IST)

हाल ही में भारत के प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने एक समारोह में केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू तथा राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की उपस्थिति में बोलते हुए कुछ बहुत उचित बिंदू उठाए। उन्होंने कहा कि देश में विपक्ष के लिए स्थान सिकुड़ रहा है तथा राजनीतिक शत्रुता एक स्वस्थ लोकतंत्र का चिन्ह नहीं है। यह कहते हुए कि एक मजबूत संसदीय लोकतंत्र ‘विपक्ष को मजबूत बनाने की भी मांग करता है’, प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि जहां सरकार तथा विपक्ष के बीच आपसी सम्मान हुआ करता था, अब दोनों के बीच सार्वजनिक शत्रुता है जहां सत्ताधारी पार्टी के साथ-साथ विपक्षी दलों दोनों को ही इस वर्तमान स्थिति के लिए दोष सांझा करना होगा, भारतीय जनता पार्टी को किसी भी तरह की आलोचना तथा विरोध के तिरस्कार के लिए अधिक दोष स्वीकार करना होगा। 

इस व्यवहार की उत्पत्ति भाजपा द्वारा ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के लिए दिए गए नारे से हुई जिसमें पार्टी काफी हद तक सफल रही। नि:संदेह इसमें एक महत्वपूर्ण कारक कांग्रेस का अकुशल तथा अयोग्य नेतृत्व था। फिर भी भारतीय जनता पार्टी ने शानदार बहुमत होने के बावजूद कभी भी कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेने और यहां तक कि सत्रों के सुचारू ढंग से क्रियान्वयन के लिए संसद में बेहतर तालमेल बनाने के लिए विपक्षी दलों तक पहुंच नहीं बनाई। इसने कभी भी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर बहस अथवा चर्चा करवाने अथवा संवेदनशील मुद्दों पर विपक्षी नेताओं को ब्रीफ करने की इच्छा नहीं जताई, जैसा कि पहले नियम था। 

1994 में जो कुछ हुआ, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी शामिल थे, उसके बारे में अब सोचा भी नहीं जा सकता। तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव ने उन्हें जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के लिए जाने वाले भारतीय शिष्टमंडल का नेता नियुक्त किया था। जरा सोचें कि एक विपक्षी नेता विदेश में देश का प्रतिनिधित्व कर रहा हो! नि:संदेह वाजपेयी बौद्धिकता के उच्च स्तर के साथ एक अत्यंत स्पष्टवादी नेता थे और उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को गौरवान्वित किया। विपक्ष के पास कुछ ऐसे नेता हैं जो अत्यंत समझदार हैं जैसे कि शशि थरूर व पी. चिदम्बरम, जिनकी सेवाओं का इस्तेमाल देश के लिए किया जा सकता है लेकिन शत्रुता का वर्तमान स्तर इसे एक असंभव संभावना बनाता है। 

यह भी एक तथ्य है कि भाजपा के शीर्ष नेता अभद्र तथा अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करके कांग्रेस तथा अन्य दलों के नेताओं का अपमान करते हैं। बदले में वे पार्टी नेता सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेताओं के खिलाफ कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। यह भी सरकार तथा विपक्षी दलों के बीच वार्तालाप के अभाव का एक कारण है। जस्ट्सि रमन्ना ने एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदू उठाया जब उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि ‘भारत का उद्देश्य एक संसदीय लोकतंत्र था, न कि एक संसदीय सरकार’ क्योंकि लोकतंत्र का केंद्रीय विचार प्रतिनिधित्व है। हमारे संविधान के निर्माता डा. बी.आर. अम्बेदकर का हवाला देते हुए जस्टिस रमन्ना ने कहा कि संसदीय लोकतंत्र का अर्थ ‘बहुमत द्वारा शासन’ नहीं है। उन्होंने कहा कि बहुमत का शासन ‘सिद्धांतों में असमर्थनीय तथा व्यवहार में अनुचित है।’ 

उन्होंने आगे कहा कि ‘राजनीतिक विरोध को शत्रुता में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए, जो हम आज दुखद रूप से इन दिनों देख रहे हैं। ये स्वस्थ लोकतंत्र के चिन्ह नहीं हैं’। निश्चित रूप से संसदीय लोकतंत्र की मजबूती प्रमुख निर्णयों को लेने में विपक्ष को शामिल करके उसकी मजबूती की भी मांग करता है। विपक्ष को संसद तथा विधानसभाओं में अपनी बात रखने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए तथा कानून बनाने के लिए उनके विचारों हेतु अधिक संख्या में विपक्षी सदस्यों को संसदीय समितियों में शामिल किया जाना चाहिए। 

सरकार तथा विपक्ष के बीच विश्वास की वर्तमान कमी विभिन्न विधेयकों पर चर्चा के अभाव का परिणाम है जिन्हें सरकार बिना किसी बहस अथवा चर्चा के पारित करवाने की जल्दबाजी में होती है, जबकि आक्रामक विपक्ष महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा के लिए समय चाहता है तथा स्पीकर इस मांग को नहीं मानता जिसमें बार-बार शोर-शराबा तथा स्थगन होता है जिसके परिणामस्वरूप विधेयकों पर चर्चा के लिए कोई समय नहीं बचता, बदले में इसका परिणाम विधेयकों को अदालतों में चुनौती देने के रूप में निकलता है जिससे बचा जा सकता है यदि सदन में चर्चा के बाद कुछ विवादास्पद खंडों में सुधार कर दिया जाए। सरकार के साथ-साथ विपक्ष को भी भारत के प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणियों पर ध्यान देना चाहिए और देश की बेहतरी के लिए मिलकर काम करने के रास्ते तलाशने चाहिएं।-विपिन पब्बी 
 


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