यू.एन. की रिपोर्ट: हम भारतीय ‘खुश’ क्यों नहीं हैं

Friday, Mar 24, 2017 - 12:40 AM (IST)

संयुक्त राष्ट्र (यू.एन.) की ताजा और पांचवीं विश्व खुशहाली रिपोर्ट (वल्र्ड हैप्पीनैस रिपोर्ट) के अनुसार पाकिस्तान हमसे ज्यादा खुश मुल्क  है। वह चीन से मात्र एक अंक पीछे यानी (80) पर है और यहां तक कि उसने भूटान (97), नेपाल (99), बंगलादेश (110) और श्रीलंका (120) को भी काफी पीछे छोड़ दिया है। भारत इन सबसे पीछे 122वें अंक  पर है। दरअसल हैप्पीनैस का हिंदी तर्जुमा गलत हुआ है। 

खुशहाली की जगह इसे प्रसन्नता कहना चाहिए जो कि व्यक्तिगत अनुभव है। जिन छ: पैमानों पर इसे नापा जाता है वे हैं : प्रति व्यक्ति सकल घरेलू आय, स्वस्थ जीवन प्रत्याशा, स्वतंत्रता, उदारता, संकट के दौरान इष्ट-मित्रों से मदद का भरोसा और सरकार या व्यापार में भ्रष्टाचार की स्थिति से पैदा होने वाला विश्वास। प्रसन्नता नापने की प्रक्रिया सन् 2012 में इस विश्व संस्था ने शुरू की थी और हर साल इसमें कई देशों की स्थिति बदलती रहती है। भारत इस साल चार अंक पीछे हो गया है लेकिन चिन्ता की बात नहीं है, अमरीका भी 16 अंक गिर कर एक साल में तीसरे स्थान से 19वें स्थान पर आ गया है और चीन भी जहां 25 साल पहले था वहीं पहुंच गया है। 

मगर चिंता यह है कि आतंकवाद और जहालत का दंश झेलने वाले पाकिस्तान के लोग हमसे ज्यादा खुश कैसे हैं। हमारी जी.डी.पी. (सकल घरेलू उत्पाद) भी पाकिस्तान से करीब 9 गुना ज्यादा है जबकि आबादी मात्र 6 गुना। हम 70 साल से प्रजातंत्र की छांव (?) में जीने का दावा कर रहे हैं जबकि वहां 70 साल में 32 साल फौजी शासन रहा है। इस सवाल को जानने से पहले कुछ और तथ्य जानना जरूरी है। रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि प्रसन्नता मूल रूप से सामाजिक और व्यक्तिगत एहसास होता है। 

अपनी ‘एग्जीक्यूटिव समरी’ (क्रियात्मक सारांश) में रिपोर्ट कहती है कि अधिकांशत: यह एहसास देश के भीतर पैदा होने वाली विसंगतियों पर निर्भर करता है। खासकर गरीब मुल्कों में गरीब-अमीर की खाई से यह प्रसन्नता ज्यादा कम होती है। धनी देशों में यह खाई इतनी अधिक नहीं है, लिहाजा वहां शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत सम्बन्ध इस  प्रसन्नता को कम या ज्यादा करने के बड़े कारक हैं। 

गौर कीजिए, एक अन्य ताजा विश्व सम्पदा सूचकांक के अनुसार भारत में सन् 2000 में संपन्न ऊपरी एक प्रतिशत के पास देश की 37 प्रतिशत संपत्ति होती थी जो 2005 में बढ़ कर 42 प्रतिशत, 2010 में 48 प्रतिशत, 2012 में 52 प्रतिशत और 2016 में 58.5 प्रतिशत हो गई है। लिहाजा एक बड़ा वर्ग खुश नहीं है क्योंकि एक बहुत छोटा वर्ग संपत्ति पर लगातार कब्जा करता जा रहा है। यह खामी इस नई अर्थव्यवस्था के कारण है। विकासशील देशों में बढ़ती बेरोजगारी (जो नई टैक्नोलॉजी की अपरिहार्य उपज है) भी एक बड़ा कारण है लोगों के अप्रसन्न रहने का। 

एक और ताजा विरोधाभास पर गौर करें। एक ही दिन अखबार में एक ही पृष्ठ पर दो खबरें छपती हैं। पहले में फोब्र्स मैगजीन के अनुसार भारत में अति-धनी अरबपतियों की संख्या बढ़ कर 101 हो गई है और इन धनवानों की संख्या में भारत दुनिया में चौथे नम्बर पर आ गया है। दूसरी खबर है कि देश के 6.30 करोड़ ग्रामीण आज भी स्वच्छ पानी से वंचित हैं। क्या इन दोनों खबरों को पढऩे के बाद गरीबों में खुशी की उम्मीद की जा सकती है? 

हमें यह जानना होगा कि प्रति-व्यक्ति आय की गणना स्वयं में दोषपूर्ण है। नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन की अगुवाई में फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ने 100 अर्थशास्त्रियों की टीम गठित की, जिसका उद्देश्य यह जानना था कि क्या जी.डी.पी. की गणना सही होती है और क्या इसका सीधा  सम्बन्ध समाज की खुशहाली से होता है? सेन टीम की रिपोर्ट में भारत का उदाहरण देते हुए बताया गया कि अगर दिल्ली के कनाट प्लेस में ट्रैफिक जाम हो जाए या किसी चीनी मिल के धुएं से कुछ सौ गांवों के लोगों में फेफड़े की बीमारी हो जाए तो देश का जी.डी. पी. बढ़ जाएगा। इसी दोषपूर्ण जी.डी.पी. के आधार पर हम प्रति व्यक्ति आय तय करते हैं और गलती से उसे समाज का विकास मानते हैं। 

आज से 20 साल पहले विख्यात समाजशास्त्री रोबर्ट पुटनम ने ‘सोशल कैपिटल’ (सामाजिक पूंजी) का  सिद्धांत अमरीकी समाज में अपनी 10 साल की मेहनत के बाद लिखी पुस्तक ‘बोङ्क्षलग अलोन’ में प्रतिपादित किया था और अमरीका को आगाह किया था कि उनकी सामाजिक पूंजी बुरी तरह स्खलित हो रही है। उन्होंने आगाह किया कि किसी तरह का आॢथक विकास इससे बढऩे वाले असंतोष को रोक नहीं पाएगा। ‘‘अमरीका एक बड़े सामजिक संकट की ओर बढ़  रहा है’’, यह कहना था पुटनम का। अमरीका में ट्रम्प का राष्ट्रपति के रूप में चुना जाना इसी बात का संकेत है। 

भारत में यह संकट बिल्कुल अलग किस्म का है। एक सामाजिक सर्वे के अनुसार आज से 20 साल पहले तक एक भारतीय प्रतिदिन 30 मिनट सामाजिक रूप से सम्बद्ध रहता था यानी किसी मित्र के घर विवाह में या बीमारी में जाता था या अन्य सामाजिक अवसरों पर जुड़ा रहता था। आज वह मात्र 8 मिनट जुड़ा रहने लगा है। (इंटरनैट पर जुड़ा होना उस सामाजिकता का भान नहीं देता)। पाश्चात्य मूल्यों और जीवन शैली ने विवाह जैसी पवित्र संस्था को बेहद कमजोर किया है। बेंगलूर में विवाह विच्छेद के बढ़ते मामलों के लिए तीन नई अदालतें बनाई गई हैं। विवाह एक पवित्र बंधन न होकर संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) हो गया है। बल्कि उससे आगे बढ़ते हुए ‘लिव-इन’ संबंधों की बाढ़ आ गई है। एक शादी करने वाला (या वाली) दकियानूस माना जाने लगा है। पाकिस्तान में आज भी कठमुल्लेपन की वजह से पाश्चात्य संस्कृति उस तरह अपने विद्रूप-चेहरे के साथ नहीं आई है। 

कार्ल माक्र्स ने सभी सामाजिक संबंधों व सामाजिक संस्थाओं की उत्पत्ति उत्पादन के तरीकों और संसाधनों पर अधिकार के आधार पर होना बताया था। लेकिन बाद में पाया गया कि यह आंशिक रूप से ही सही है। आज जरूरत है कि पाश्चात्य टैक्नोलॉजी तो अंगीकार की जाए पर उससे पैदा होने वाले नकारात्मक, सामाजिक प्रभाव को रोकने की जबरदस्त कोशिश भी जारी रहे। पति-पत्नी कमाएं पर बेटे का भविष्य क्रैच के पालने में नहीं, बल्कि बूढ़े मां-बाप की ममतामयी छाया में पले। इससे न तो बूढ़े मां-बाप वृद्धाश्रम  में या दवा के अभाव में गुमनामी में दम तोड़ेंगे, न ही बच्चे मूल्यविहीन होंगे। प्रसन्नता मात्र आॢथक विकास से नहीं आती। मनुष्य की अन्य बहुत अपेक्षाएं होती हैं। आज एक संतुलन की जरूरत है ताकि पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथ से बचें लेकिन साथ ही अमरीका सरीखी मूल्य-शून्यता से भी। 

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