यू.पी. सरकार को 2 अध्यादेश वापस लेने चाहिए

punjabkesari.in Thursday, Oct 31, 2024 - 05:17 AM (IST)

ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने राज्य में हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों के नतीजों से कोई सबक नहीं सीखा है। उनकी पार्टी ने राज्य में अपनी 30 लोकसभा सीटें खो दीं, जिसका मुख्य कारण भारतीय जनता पार्टी का लोकसभा में बहुमत हासिल न कर पाना था। मतदाताओं ने स्पष्ट रूप से विभाजनकारी एजैंडे और अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित इमारतों को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के ध्वस्त करने के लिए बुलडोजर के पूरी तरह से अवैध और अलोकतांत्रिक उपयोग को नकार दिया था। सांप्रदायिक आधार पर खुली धमकियां और ‘लव जिहाद’ के खिलाफ अभियान और कांवड़ यात्रा के दौरान दुकानदारों को अपना नाम प्रदर्शित करने का आदेश देने जैसे कदमों की तीखी आलोचना हुई थी।

शायद, मुख्यमंत्री और उनकी सरकार ने लोकसभा चुनाव के नतीजों को अलग नजरिए से देखा होगा। राज्य सरकार द्वारा जारी किए गए 2 बेहद निंदनीय अध्यादेशों के पीछे शायद यही सोच रही होगी। सामान्य परिस्थितियों में कानून में कोई भी बदलाव विधानमंडल के माध्यम से किया जाता है। विधेयक का प्रस्ताव विधानसभा के समक्ष लाया जाता है और यदि यह बहुमत से पारित हो जाता है, तो अधिनियम लागू होने से पहले इसे राज्यपाल के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। 
अध्यादेश बहुत जरूरी मामलों में जारी किए जाते हैं। जब विधानसभा सत्र में नहीं होती है तब इस मुद्दे को विधानसभा के सत्र तक इंतजार नहीं करना पड़ता है। राज्य सरकार ने 2 अध्यादेश जारी किए हैं - छद्म और सद्भाव विरोधी गतिविधियों की रोकथाम और थूकने पर रोक अध्यादेश 2024 और उत्तर प्रदेश खाद्य संदूषण रोकथाम (उपभोक्ता को जानने का अधिकार) अध्यादेश, 2024। 

इस बात पर कोई विवाद नहीं हो सकता है कि जहां खाना पकाया जाता है, वहां अच्छी स्वच्छता होनी चाहिए और रसोइयों को अपने सिर को ढंकना चाहिए और दस्ताने पहनने चाहिएं और ऐसे क्षेत्रों पर सी.सी.टी.वी. की निगरानी होनी चाहिए। डिलीवरी सेवाओं की उपलब्धता के साथ लोगों में बाहर से खाना मंगवाने की बढ़ती प्रवृत्ति को देखते हुए, ऐसे उपायों की निश्चित रूप से आवश्यकता है। लेकिन सरकार रसोइयों और अन्य कामगारों के लिए पहचान पत्र पहनना अनिवार्य करने के अपने विचार को कैसे समझाती है? इससे किसी खास समुदाय के सदस्यों को प्रोफाइल करने और राज्य में पहले से ही चल रही विभाजनकारी राजनीति को और बढ़ाने के अलावा और क्या उद्देश्य पूरा होगा। दंडनीय अपराधों में से जो संज्ञेय और गैर-जमानती हैं, उनमें ‘खाने पर थूकना’ और ‘मानव अपशिष्ट से भोजन को दूषित करना’ शामिल हैं, जो स्पष्ट रूप से सोशल मीडिया पोस्ट से प्रभावित हैं। असत्यापित और स्पष्ट रूप से लक्षित पोस्ट के आगे झुकना सरकारों का काम करने का तरीका नहीं है। 

नि:संदेह ऐसे कृत्य घृणित हैं और उन्हें बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है, लेकिन मौजूदा कानूनों के प्रावधानों के साथ इन्हें भी लागू किया जा सकता था और अगर ऐसे कृत्य हो रहे थे, तो सरकार दोषियों को पकडऩे में असमर्थ क्यों थी? उन पर मौजूदा कानूनों के तहत आसानी से मुकद्दमा चलाया जा सकता था। नए प्रावधान निश्चित रूप से समाज के एक वर्ग की ‘शुद्धता’ और दूसरों की कथित ‘अशुद्धता’ की धारणाओं को बढ़ावा देंगे। दोनों अध्यादेश निश्चित रूप से पूर्वाग्रह को बढ़ावा देंगे। ये आदेश कांवड़ यात्रा के दौरान जारी किए गए आदेशों के बाद आए हैं, जिसमें दुकानदारों से दुकानों पर अपना नाम प्रदर्शित करने के लिए कहा गया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी थी, क्योंकि यह संवैधानिक और कानूनी मानदंडों के विपरीत था। 

हालांकि राज्य सरकार ने इस पर जोर दिया है और पूरे राज्य में दुकानों के मालिकों और प्रबंधकों के नाम प्रदॢशत करने के निर्देश जारी किए हैं। नवीनतम अध्यादेश राज्य सरकार द्वारा निर्धारित कथानक का ही विस्तार है। सोशल मीडिया पोस्ट को वैध बनाने और पूर्वाग्रह को संस्थागत बनाने से समाज में और अधिक दरार पैदा होना निश्चित है। राज्य सरकार को या तो अध्यादेश वापस लेना चाहिए या फिर सुप्रीम कोर्ट को इन अध्यादेशों को रद्द करने और राज्य सरकार को उसके सांप्रदायिक निर्णय के लिए फटकार लगाने के लिए कदम उठाना चाहिए।-विपिन पब्बी
 


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