कारगिल के युद्ध में दो परमाणु राष्ट्र आमने-सामने थे

punjabkesari.in Tuesday, Jul 26, 2022 - 06:48 AM (IST)

हर वर्ष 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस 1999 में कारगिल में भारतीय विजय की स्मृति में मनाया जाता है जब भारतीय सशस्त्र बलों  ने हमारे क्षेत्र में पहाड़ी चोटियों पर कब्जा करने वाले पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ दिया था। हमारे देश की अखंडता की रक्षा के लिए कारगिल में 527 अधिकारियों तथा जवानों ने अपना जीवन कुर्बान कर दिया। हम उन्हें सलाम करते हैं। भारत तथा पाकिस्तान के बीच नियंत्रण रेखा (एल.ओ.सी.) कारगिल के पहाड़ी तथा ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र से गुजरती है। इन बर्फ से ढके पहाड़ों की ऊंचाई 11000 से 18000 फुट तक है। 

इससे पहले 80 के दशक में सियाचिन ग्लेशियर पर भारत तथा पाकिस्तान की सेनाओं का आमना-सामना हुआ था। यह मेरी बटालियन थी जिसने विश्व में सबसे ऊंचे हमले को अंजाम दिया तथा 21153 फुट पर पाकिस्तानी कायद पोस्ट पर कब्जा किया, जिसे बाद में ऑनरेरी कैप्टन बाना सिंह, पी.वी.सी. के सम्मान में बाना टॉप नाम दिया गया, जिसके सैक्शन ने अंत में पोस्ट पर हमला किया था। 

इस हार से शर्मिंदा होकर 3 महीने बाद पाकिस्तान के स्पैशल सर्विसिज ग्रुप ने जवाबी हमला किया जिसे सफलतापूर्वक मात दी गई। इस कार्रवाई को उनके कमांडर ब्रिगेडियर परवेज मुशर्रफ ने लांच किया था। वह उस हार से सचेत थे और जब वह सेना प्रमुख बने तो सियासी सहमति के बिना कारगिल में घुसपैठ की योजना बनाई। उन्हें इन पहाड़ी चोटियों पर कब्जा करके श्रीनगर से लेह तथा सियाचिन को जाने वाली सड़क को काटने की आशा थी। 1999 की सर्दियों में पाकिस्तान ने अपने सैनिकों को कारगिल में दोनों तरफ के हल्के कब्जे वाले क्षेत्रों में एल.ओ.सी. के पार भेजा।

यह तब हुआ जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए बस में लाहौर गए थे। यह हमारे साथ राष्ट्रीय स्तर पर धोखा था। हमारी पीठ में छुरा मारा गया था। यह शायद एकमात्र ऐसा समय था जब 2 परमाणु राष्ट्र युद्ध में चले गए थे तथा विश्व सांस रोक कर हालात की ओर देख रहा था। भारत ने अपना संयम दिखाया ताकि टकराव को अनुपात से बाहर जाने से रोका जा सके। हालांकि इसकी एक कीमत चुकानी पड़ी। सभी हमले ऊंची पहाडिय़ों की ओर थे जिससे हमारा काम अत्यंत कठिन व जोखिमपूर्ण हो गया था। 

यह टैलीविजन पर दिखाई जाने वाली भारत की पहली जंग थी। एक ओर देश ने रियल टाइम में आप्रेशनों की प्रगति को देखा तथा दूसरी ओर युद्ध के मानवीय पक्ष को भी देखा-अफसरों तथा सैनिकों द्वारा दिए गए महान बलिदान, उनके परिवारों के दिल दहला देने वाले दृश्य, अंतिम संस्कारों पर राष्ट्रवादी भावना का उभार। 

जब कैप्टन विक्रम बत्तरा पहाड़ी चोटी पर कब्जा करने के बाद जीत कर वापस लौटा तो उसने कहा ‘यह दिल मांगे मोर...’ उसके इन प्रसिद्ध शब्दों ने नौजवानों की कल्पना, बल्कि पूरी कौम को जगाया। मगर अगले हमले में उसने अपनी जान गंवा दी जिसका उसने आगे रह कर नेतृत्व किया था। ऐसे उदाहरण हमारे देश में बहुत हैं और एक भारतीय के तौर पर हमें गर्व महसूस करवाते हैं। 

कारगिल संघर्ष ने सैन्य सुधारों की भी शुरूआत की। के. सुब्रह्मण्यम के नेतृत्व वाली कारगिल समीक्षा कमेटी ने ढांचे तथा प्रक्रियाओं में कई बदलावों की सिफारिश की। लाल कृष्ण अडवानी के नेतृत्व वाले मंत्री समूह तथा अरुण सिंह टास्क फोर्स ने ब्यौरों पर विचार किया तथा हैडक्वार्टर इंटीग्रेटिड डिफैंस स्टाफ, अंडेमान व निकोबार कमांड तथा रणनीतिक बलों जैसे तीन-सेवा ढांचे को स्थापित किया। सरकार ने 2020 में चीफ आफ डिफैंस स्टाफ (सी.डी.एस.) की भी नियुक्ति की। 

जैसा कि हमने अभी देखा है, कारगिल संघर्ष कई तरीकों से विलक्षण था। मगर एक बात जो अलग है वह है फ्रंट से नेतृत्व कर रहे सिपाहियों तथा युवा लीडरों की बहादुरी। ये सभी भारत के ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के युवाओं में से लिए गए थे। 

जो युवा सशस्त्र सेनाओं में अपना करियर नहीं बनाना चाहते, मगर देश भक्ति की भावना से ओत-प्रोत हैं, वे अभी भी शॉट सर्विस कमिशन या अग्निपथ के माध्यम से कम अवधि के लिए सेवा कर सकते हैं। देश की सेवा करने के लिए आपको सैन्य सेवा को अपना करियर बनाने की जरूरत नहीं है। आप अपनी क्षमता के अनुसार जो कुछ भी करते हो, करके देश की सेवा भी कर सकते हो। और यदि आप किसी सिपाही को अपना सम्मान दर्शाना चाहते हैं तो एक अच्छे नागरिक बनें-ऐसा नागरिक जिसे मरना भी मंजूर है।(लेखक कश्मीर में रहे एक पूर्व कोर कमांडर हैं, जो एकीकृत रक्षा स्टाफ के चीफ के तौर पर सेवामुक्त हुए हैं।)-लै.ज. सतीश दुआ


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