टी.वी. चैनलों की डिबेट की सार्थकता पर सवाल

punjabkesari.in Wednesday, Jul 06, 2022 - 04:39 AM (IST)

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के बारे में जो टिप्पणियां कीं, उनके बाद टी.वी. चैनलों पर आयोजित की जाने वाली बहसों की सार्थकता पर नए सिरे से विमर्श शुरू हो गया है। वास्तव में जिस चैनल पर नूपुर ने बयान दिया, उसकी भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए थी। 

उसके बाद कानपुर के साथ ही देश के अनेक शहरों में मुस्लिम समुदाय द्वारा जुम्मे की नमाज के बाद जिस तरह का उपद्रव मचाया गया, उसकी वजह से उत्तेजना और बढ़ी, जिसका चरमोत्कर्ष राजस्थान के उदयपुर में कन्हैया लाल नामक दर्जी की नृशंस हत्या के रूप में सामने आया। महाराष्ट्र में भी एक ऐसा ही मामला सामने आया है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इस घटना के बाद देश के कई दूसरे शहरों से उसी तरह की धमकियां दिए जाने की खबरें आने लगीं जैसी कन्हैया को दी गई थीं। 

बकौल सर्वोच्च न्यायालय इस सबका कारण नूपुर का वह बयान था। सुप्रीम कोर्ट ने उनको टी.वी. पर आकर माफी मांगने की नसीहत भी दी और उनकी गिरफ्तारी न होने पर भी ऐतराज जताया। लेकिन उसकी इस आपत्ति पर लोगों का ज्यादा ध्यान नहीं गया कि जब ज्ञानवापी मस्जिद का प्रकरण अदालत में लंबित था तब टी.वी. चैनल ने उस पर बहस क्यों करवाई? 

नूपुर के वकील के यह कहने पर कि उन्हें बहस के दौरान उकसाया गया तो जज साहब ने कहा कि उनको टी.वी. एंकर के विरुद्ध शिकायत दर्ज करानी चाहिए थी। न्यायालय की टिप्पणी के बाद टी.वी. चैनलों की कार्यप्रणाली पर विचार करने की जरूरत है। बीते काफी समय से यह देखा जा रहा है कि समाचार चैनलों की दर्शक संख्या में तेजी से कमी आती जा रही है और यह भी कि उनके द्वारा आयोजित बहस की प्रमाणिकता को लेकर संदेह बढ़ता जा रहा है। 

आजकल हमारे चैनलों पर हर बहस में पार्टी-प्रवक्ताओं को बिठा दिया जाता है। वे मूल विषय पर तर्क-वितर्क करने की बजाय एक-दूसरे पर बेलगाम प्रहार करते हैं। उनके मुंह में जो भी आ जाता है, उसे वे बेझिझक उगल देते हैं। अप्रैल 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि आपराधिक मुकद्दमों से संबंधित मामलों पर टी.वी. चैनलों पर बहस होना ‘आपराधिक न्याय में हस्तक्षेप’ है। 

जस्टिस यू.यू. ललित और पी.एस. नरसिम्हा की बैंच ने कहा अपराध से संबंधित सभी मामले और कोई भी विशेष बात जो सबूत हो सकती है, कानून की अदालत द्वारा निपटाई जानी चाहिए, न कि टी.वी. चैनल के माध्यम से। दरअसल हमारे टी.वी. न्यूज को एक बीमारी हो गई है। और वह बीमारी यह है उसके न्यूज एंकर खुद को खुदा समझने लगे हैं। कई बार हम देखते हैं कि मामले की सुनवाई कोर्ट में शुरू ही नहीं होती कि हमारे न्यूज एंकर खुद ही जज बनकर फैसला तक सुना देते है। टी.वी. न्यूज एंकरों की एक नहीं, ऐसी सैंकड़ों मिसालें हैं जो यह बताने के लिए काफी हैं कि आज हम न्यूज की बजाय नौटंकी कर रहे हैं। 

यह भी आम चर्चा है कि मुख्य रूप से हिन्दू-मुस्लिम से जुड़े किसी भी विषय पर जिन मेहमानों को बुलाया जाता है, उन्हें उसके लिए पैसे दिए जाने के साथ ही पूरी बहस की पटकथा पहले तय कर ली जाती है। जो लोग टी.वी. के परदे पर एक-दूसरे पर हमला करने तक का दिखावा करते हैं, वे बहस खत्म होने के बाद एक साथ बैठकर चाय पीते और अक्सर एक ही वाहन से जाते हुए दिखाई देते हैं। सच्चाई जो भी हो, टी.वी. पत्रकारिता ने बहस और विमर्श दोनों को जिस तरह बाजारू बना दिया है, उसके कारण यह माध्यम अपनी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता दोनों गंवाता जा रहा है। 

आमतौर पर इन बहसों में पूछे जाने वाले सवाल अतिवादी विचारों को प्रोत्साहित करते हैं। सूक्ष्म विश्लेषण करने वाले संयत स्वरों को नीरस करार दे दिया जाता है, जबकि कर्कश लफ्फाजियों को ऊंची ‘एंटरटेनमैंट वैल्यू’ प्रदान करने वाली मान लिया जाता है। नूपुर शर्मा प्रकरण में कुल मिलाकर जो निष्कर्ष सामने आ रहा है उसके अनुसार टी.वी. चैनलों का विशुद्ध व्यावसायिक रवैया देश में अनेक विवादों का कारण बन रहा है। उस दृष्टि से देखें तो दूरदर्शन और लोकसभा टी.वी. पर होने वाली चर्चाओं में कहीं ज्यादा गंभीर और तथ्यात्मक बातें सुनने को मिलती हैं। लेकिन निजी चैनल विशुद्ध व्यावसायिक दृष्टिकोण से बहस आदि का आयोजन करवाते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य दर्शकों को व्यर्थ की बातों में उलझाकर ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन बटोरना है, जिसके लिए सनसनी फैलाना आवश्यक होता है। संदर्भित प्रकरण के पीछे भी यही वजह समझ में आती है। 

निश्चित ही मीडिया इस खेल के लिए एक सरल मंच मुहैया कराता है, लेकिन टी.वी. स्टूडियो कोई ऐसा चुंबकीय क्षेत्र नहीं होता, जो हमारे उच्चतर विवेक का हरण कर लेता हो। आखिर हमारे नेता सार्वजनिक विमर्शों को अधिक समृद्ध बनाना अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं समझते? हमें तर्कप्रिय होना चाहिए, लेकिन अभियोग प्रिय नहीं। हमें खुले विचारों का होना चाहिए, असहिष्णु नहीं। 

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने जितनी लताड़ नूपुर को लगाई, उससे ज्यादा जरूरी उस चैनल के लिए भी थी, जिसने इस बवाल की जमीन तैयार  की। अच्छा होगा कि टी.वी.चैनल आपसी प्रतिस्पर्धा के बावजूद इस तरह के विवादों को रोकने के बारे में आत्मानुशासन का उदाहरण पेश करें क्योंकि सरकार इस बारे में कड़ाई करेगी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन और असहिष्णुता का रोना शुरू हो जाएगा। वहीं राजनीतिक दलों और नेताओं, विशेष तौर पर सत्ता में बैठे लोगों का दायित्व बनता है कि वे इलैक्ट्रानिक मीडिया को अतिरिक्त महत्व देना बंद करें। जो दिखता है वह बिकता है, वाली धारणा को त्याग कर जो दिखाया जाए वह प्रामाणिक हो, वाली मानसिकता विकसित करनी होगी।-राजेश माहेश्वरी
 


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