ट्रम्प की जीत लोकतंत्र के लिए चेतावनी
punjabkesari.in Thursday, Nov 07, 2024 - 06:24 AM (IST)
तो डोनाल्ड ट्रम्प अमरीका के अगले राष्ट्रपति होंगे। उन्होंने कमला हैरिस को चुनाव हरा दिया है। अमरीकी इतिहास की यह अनोखी घटना है। एक ऐसे पूर्व राष्ट्रपति की जीत, जो 4 साल पहले चुनाव हार गया हो, जिसको राष्ट्रपति रहते 2 बार इंपीच किया गया हो, जो 34 काऊंट पर कोर्ट में दोषी साबित हुआ हो और अगर बाकी के अदालती मामलों में दोष साबित हो जाए तो उसका जेल जाना तय हो, किसी चमत्कार से कम नहीं है।
चुनाव के दौरान डैमोक्रेटिक पार्टी ने बार-बार यह आरोप लगाया कि अगर ट्रम्प जीत गए तो यह अमरीका का आखिरी चुनाव होगा, लोग आखिरी बार चुनाव में वोट डालेंगे। ट्रम्प को खुद उनकी सरकार में काम किए वरिष्ठ पदाधिकारियों ने फासीवादी बताया। लेकिन इन सब का मतदाताओं के दिलो-दिमाग पर कोई असर नहीं हुआ। लोगों ने उस कमला हैरिस को हरा दिया जो लोकतंत्र के रक्षक के तौर पर अपने को पेश कर रही थीं। इसका कुछ तो अर्थ होगा? जनता कुछ तो संदेश दे रही है? यह सवाल तो उठना चाहिए कि लोकतंत्र खतरे में है, संविधान खतरे में है, को लोग बड़ा मुद्दा क्यों नहीं मानते और अमरीका में उसे क्यों जिताते हैं, जो लोकतंत्र के लिए खतरा है?
लोग शायद यह मान सकते हैं कि अब लोकतंत्र बचाओ के नैरेटिव से या तो वे ऊब चुके हैं या फिर मानते हैं कि लोकतंत्र इतना मजबूत हो गया है कि किसी नेता के राष्ट्रपति बनने या न बनने से लोकतंत्र का मौजूदा स्वरूप नहीं बिगड़ेगा! लिहाजा वे ‘लोकतंत्र बचाओ’ के नारे को दूसरे नारे जैसा ही लेते हैं और भूल जाते हैं तथा उन मुद्दों के आधार पर वोट देते हैं, जो उनके लिए रोजमर्रा की जिंदगी में ज्यादा अहम हैं। जैसे रोजगार का सवाल, महंगाई का सवाल, अपनी पहचान का सवाल, धर्म का सवाल। यह शायद समस्या का अति सरलीकरण होगा। समस्या ज्यादा गहरी है।
इस चुनाव में अमरीका के सामने दो विकल्प थे। एक तरफ थे ‘मर्द’ डोनाल्ड ट्रम्प और दूसरी तरफ ‘औरत’ कमला हैरिस। एक तरफ थे ‘श्वेत’ डोनाल्ड ट्रम्प और दूसरी तरफ थीं ‘अश्वेत’ कमला हैरिस। एक तरफ थे ‘ही मैन’ डोनाल्ड ट्रम्प, जिनकी जेब में था अमरीका और दुनिया की दूसरी सारी समस्याओं का हल, तो दूसरी तरफ थीं कमला, जो ‘कमजोर’ से दिखने वाले जो बाइडेन की विरासत को आगे बढ़ाती दिख रही थीं। वही बाइडेन, जो यूक्रेन युद्ध नहीं रुकवा पाते, जो इसराईल की मनमानी पर रोक नहीं लगा पाते, जो अफगानिस्तान से अमरीकी सेनाओं के बाहर निकलते समय अपनी छीछालेदर करवाते हैं, जो चीन को काबू में नहीं कर पाते, जो अमरीका जैसे मजबूत देश के बेहद कमजोर राष्ट्रपति दिखते हैं।
डोनाल्ड ट्रम्प की जीत का रास्ता दरअसल आधुनिकता और पुरातनपंथ के बीच की जो उलझन है, दोनों के बीच जो संघर्ष है, उस भूल-भुलैयां से निकलता है। यह मानना पड़ेगा और शायद इस ओर और गहन अध्ययन की जरूरत है कि जितना हम देश और समाज के आधुनिक होने का दंभ भरते हैं या दावा करते हैं, दरअसल वैसा है ही नहीं। इसलिए जो पुरातनपंथीपन है, वे मूल्य जो हजारों साल से इंसान को इंसान होने का अहसास दिलाते हैं, जो उसे बांध कर रखते हैं, वे रह-रह कर हिलोरें मारता है और वे मानवाधिकार, महिला अधिकार, गे राइट्स जैसे अत्याधुनिक मूल्यों से खुद को नहीं जोड़ पाता। वह आज भी अपने शरीर के रंग से अपनी पहचान देखता है, अपनी अस्मिता को खोजता है। जिसकी नजर में औरतों का काम है बच्चे पैदा करना, देश और सरकार चलाना मर्दों का काम है।
यह अकारण नहीं है कि अमरीका से जो खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक इस बार अश्वेत और लैटिन अमरीकी मूल के मर्दों ने पहले के मुकाबले कम वोट डैमोक्रेटिक पार्टी को दिए। इस समाज के लिए गर्भपात कराने का अधिकार औरतों के पास नहीं होना चाहिए। इस वोटर को वैश्वीकरण और अमरीका के ‘मैङ्क्षल्टग पॉट’ कॉन्सैप्ट में खुद की पहचान खो जाने का खतरा दिखता है। उसे लगता है कि अमरीका तो श्वेतों ईसाइयों की जमीन है, अश्वेत, लैटिनों और एशियाई अफ्रीकी मूल के लोगों के आने से उनकी पहचान खत्म हो जाएगी । ऐसे में जब ट्रम्प आप्रवासियों के खिलाफ बोलते हैं तो अमरीका के एक बड़े तबके को लगता है कि ट्रम्प कितने भी खराब क्यों न हों, वह उनकी पहचान को बचाने के लिए लड़ रहे हैं, जबकि डैमोक्रेटिक पार्टी उनकी पहचान को खतरे में डाल रही है। हम इसे ‘कबीलावाद’ भी कह सकते हैं, जिसका अर्थ है एक कबीले के लोगों को एक साथ रहना चाहिए और बाहर के लोग कबीले के लिए खतरा बन सकते हैं।
यह प्रवृत्ति इस वक्त पूरी दुनिया में सिर उठा रही है, जिसकी नुमाइंदगी दक्षिणपंथ पूरी शिद्दत से करता है। और जैसे-जैसे वैश्वीकरण, टैक्नोलॉजी के माध्यम से दुनिया के हर घर को अपनी चपेट में ले रहा है, वैसे-वैसे कबीलाई मानसिकता अपने को और असुरक्षित महसूस कर रही है। उसे संतोष और सुरक्षा अपने तरह के लोगों के बीच ही मिलती है। वह इस सुरक्षा की तलाश में ईश्वर के और करीब हो जाता है। यह अनायास नहीं है कि ट्रम्प की जीत को ईसाई धर्म की जीत के तौर पर देखा जा रहा है। गर्भपात का प्रश्न भी धर्म से गहरे जुड़ा है।
भारत में भी भाजपा अपनी राजनीति ङ्क्षहदू धर्म की ओट से करती है और ‘हिंदू खतरे में है’ को जनता को समझाने में नहीं चूकती। बंगलादेशी घुसपैठियों के सवाल को लोगों के बीच खुद प्रधानमंत्री ले कर जाते हैं। लव जिहाद का नारा बुलंद किया जाता है, मोदी ट्रम्प में अपना दोस्त खोजते हैं और मोदी समर्थक ट्रम्प की जीत के लिए प्रार्थना करते हैं। और हां, जो इस बात को लेकर खुशी मना रहे हैं, वे शायद भूल रहे हैं कि ट्रम्प अमरीका के राष्ट्रपति हैं, भारत के नहीं। ट्रम्प को भारत का खुला बाजार चाहिए।
वह भारत पर दबाव डालेंगे कि वह अमरीकी सामान के लिए दरवाजे खोल दे और अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह भारत की ऐसी-तैसी करेंगे, जैसे पिछली बार हार्ले डेविडसन बाइक को लेकर किया था। और वह इस बात को पसंद नहीं करेंगे कि भारत चीन के साथ अपने रिश्ते ठीक करे। और अमरीका में भारतीयों के आने-जाने पर भी अंकुश लगेगा क्योंकि आप्रवासियों पर रोक लगाना उनकी घोषित नीति है। यह प्रवृत्ति लगातार तेजी से बढ़ रही है। मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था और विचार इसे रोकने में नाकाम हैं और अगर इस प्रवृत्ति पर जल्दी रोक नहीं लगी तो लोकतंत्र बचेगा या नहीं, यह सवाल बड़ा हो जाएगा।
मेरा मानना है कि लोकतंत्र की दुहाई देने वालों को अपनी रणनीति में बुनियादी बदलाव करने की जरूरत है। उन्हें इंसान की कबीलाई मानसिकता के सवाल को समझना पड़ेगा और धर्म पर हमले बंद करने होंगे। धर्म की ताकत को कम कर आंकने की वजह से ही दुनिया में लोकतंत्र खतरे में पड़ता दिख रहा है। पुराने लोकतंत्र के सवालों की जगह नए सवाल खोजने पड़ेंगे, जो आम इंसान की बेचैनी और असुरक्षा बोध का हल दे सकें। ट्रम्प की जीत लोकतंत्र की हार नहीं बल्कि एक चेतावनी है। अगर अब भी लोकतंत्र के वकील अपने में सुधार नहीं करेंगे, रणनीति नहीं बदलेंगे, पुरानी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की लकीर ही पीटेंगे, तब तो लोकतंत्र जरूर खत्म होगा। बदलाव लाना होगा। -आशुतोष