ट्रिपल तलाक कानून ‘राजनीतिक तरकश’ बनाम महिला सशक्तिकरण

Thursday, Jan 11, 2018 - 02:57 AM (IST)

इस साल अगस्त में जब सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल ट्रिपल तलाक के खिलाफ  निर्णय दिया, तब सरकार को पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए एक प्रभावशाली व स्पष्ट कानून बनाने का एक ऐतिहासिक मौका मिला था लेकिन इस कानून की समीक्षा करने से साफ  हो जाता है कि नौसिखिया सरकार ने झूठी वाहवाही लूटने की बलिवेदी पर यह अवसर पूरी तरह से गंवा दिया। 

ट्रिपल तलाक कानून के जानकार इस बात पर सहमत होंगे कि यह एक ठोस अधिनियम न होकर एक ढिलमुल कानून बन गया है। इस कानून में दिखावे के लिए मापदंड तो रखे गए हैं लेकिन मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में कानून को लागू करने का कोई प्रावधान नहीं। इसलिए प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या यह कानून पीड़ितों को न्याय दिलाने का लक्ष्य प्राप्त कर पाएगा? या फिर मात्र राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए इस कानून को आनन-फानन में बनाकर पेश कर दिया गया? चाहे कारण कोई भी हो, पेश किया गया यह कानून कई मायनों में अपूर्ण है।

जब ट्रिपल तलाक के लिए दंडित करने वाला कानून संसद के इस सत्र में पेश किया गया, तब सैद्धांतिक रूप से कांग्रेस ने इस विचार का समर्थन किया लेकिन जब कानून निर्माताओं ने इस कानून की प्रति देखी तो इसके प्रावधानों से सभी अचंभित रह गए। इस कानून में केवल दो प्रावधान हैं: पहला तत्काल ट्रिपल तलाक की घोषणा पर 3 साल का कारावास और मुस्लिम महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता। इस कानून के संसद में पेश किए जाने और इसके पारित होने के बीच गुजरे समय में यह साफ  हो गया कि भाजपा बिल के प्रावधान मजबूत करने के लिए राय-मशविरा और सुझाव तक के लिए तैयार नहीं। भ्रमित भाजपा सरकार ने इस कानून में किसी भी संशोधन की जरूरत तक से इंकार कर दिया और हर सुझाव को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का विषय बनाकर उसका विरोध किया। संसद में उठाए गए एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने यह भी स्वीकार किया कि इस कानून को बनाते हुए किसी से भी राय-मशविरा नहीं किया गया। 

कांग्रेस द्वारा ट्रिपल तलाक कानून को मजबूत व मुस्लिम महिला पक्षधर बनाने के लिए 3 महत्वपूर्ण बातें संसद के अंदर और बाहर कही गईं। पहली, यदि पीड़ित महिला व बच्चों के लिए न्याय पाने की प्रक्रिया इतनी जटिल होगी  तो क्या यह कानून अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होगा? इस कानून में पति द्वारा दिए गए ट्रिपल तलाक को साबित करने की जिम्मेदारी मुस्लिम महिलाओं पर छोड़ दी गई है। अगर पति सजा से बचने के लिए ट्रिपल तलाक देने की बात से साफ मना कर दे तो नतीजा होगा कि इसे साबित करने के लिए मुस्लिम महिलाओं को लंबे समय तक अदालत के खर्चों व मुकद्दमेबाजी को भुगतना पड़ेगा। कांग्रेस ने इस बात की सिफारिश की थी कि यह दायित्व पति पर होना चाहिए कि वह स्वयं साबित करे कि उसके द्वारा ट्रिपल तलाक नहीं दिया गया। 

ट्रिपल तलाक कानून में गुजारा भत्ता का प्रावधान तो किया गया लेकिन यह नहीं बताया गया कि गुजारा भत्ता कितना होगा, इसका आकलन कैसे होगा व यह मिलेगा कैसे? इस कानून में यह भी नहीं बताया गया कि गुजारा भत्ता मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों की सुरक्षा) कानून, 1986 में मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाली भरण-पोषण की राशि से अलग होगा या फिर उससे काट लिया जाएगा। अगर गुजारा भत्ता 1986 के कानून में मिलने वाली भरण पोषण राशि से काट लिया गया तो यह कानूनी प्रावधान अपने आप में ही अप्रासंगिक हो जाएगा। इस बारे में अभी भी अस्पष्टता है। 

कांग्रेस का तीसरा सुझाव था कि अगर पति को जेल हो जाएगी तो फिर मुस्लिम महिला तथा बच्चों को गुजारा भत्ता कौन देगा? क्या फिर जीवन-यापन का खर्चा पति की संपत्ति से लिया जा सकता है? और अगर पति के पास संपत्ति नहीं, तो फिर पति के कारावास के 3 साल तक जरूरतमंद मुस्लिम महिला व बच्चों का जीवन-यापन कैसे संभव होगा? ये सारे प्रश्न मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के पक्ष में कांग्रेस पार्टी ने संसद में भाजपा सरकार से पूछे परंतु बेखबर और निरंकुश सरकार ने इनका जवाब देने की जरूरत नहीं समझी। शीर्षक सहित मात्र 7 धाराओं वाला यह कानून अपने वर्तमान स्वरूप में एक निरर्थक प्रयास साबित हुआ है।

जब संसद के सत्र में कानूनमंत्री रविशंकर प्रसाद इस कानून के समर्थन में खड़े हुए, तब उन्होंने संसद सदस्यों द्वारा उठाई गई किसी भी शंका का समाधान तो किया नहीं, बल्कि प्रस्तावित कानून के ऐतिहासिक महत्व पर पहले से तैयार किया गया एक भाषण अवश्य पढ़ डाला। रविशंकर प्रसाद को मालूम होना चाहिए कि इतिहास तो तब बन चुका था, जब सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल ट्रिपल तलाक के खिलाफ फैसला दिया था। भाजपा सरकार ने एक बार फिर झूठा प्रचार करते हुए शाह बानो (और उसके बाद 1986 में पारित कानून) का मामला उठाया। उन्होंने कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों की सुरक्षा) कानून, 1986 की निंदा भी की परंतु देश को यह बताना भूल गए कि 1986 का कानून एक ऐसा ऐतिहासिक कानून है, जो इद्दत की अवधि के बाद भी मुस्लिम महिला को पति द्वारा भरण पोषण की व्यवस्था करता है। 

भाजपा ने देश को यह भी नहीं बताया कि साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट की 5-जजों वाली खंडपीठ (दानियाल लातिफी बनाम यूनियन ऑफ   इंडिया) ने भी इस कानून को न केवल सही माना परंतु पति की जिम्मेदारी की व्यापक व्याख्या की, जो अपने आप में ऐतिहासिक है। सच्चाई यह है कि यदि केन्द्र की भाजपा सरकार ने इस कानून, खासकर इसकी धारा 3 और 4 का अध्ययन कर लिया होता तो वह नए कानून में अस्पष्ट धाराओं की जगह मुस्लिम महिलाओं के लिए ज्यादा वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित कर पाती। लोकसभा व राज्यसभा में कानून को मजबूत करने की बजाय लटकाकर रखना राजनीतिक स्वार्थ साधने वाली भाजपाई नीति का सूचक है। अब साफ  है कि मुस्लिम महिलाओं का सशक्तिकरण न तो इस सरकार का रास्ता है और न ही प्राथमिकता।-रणदीप सिंह सुर्जेवाला

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