‘कबायलियों ने 36 भारतीय लारियों को फूंक डाला’

Wednesday, Nov 11, 2020 - 03:49 AM (IST)

चकौती और उड़ी के दरम्यान युद्ध के बारे में पिछली किस्त में बताया जा चुका है कि इसके साथ जुड़ी लड़ाई का आगे का विवरण एक बाकायदा जंग को पेश करता है जिसका ब्यौरा इस प्रकार है : कुछ रजाकार भाग रहे थे। उनको तो स्थानीय प्रभावशाली लोगों ने जमा किया था असली खतरे की पहली निशानियों के सामने आने पर वे बच गए। इनमें से कुछ ने दलील दी कि यह तो स्पष्ट रूप से कत्ल (हत्या) है। कुछ ऐसे व्यक्ति इधर-उधर प्रकट हुए जो गंभीर विचारों के थे, हालात को समझते थे। 

इस जिले के लोगों में फौजी तजुर्बा थोड़ा था और पहली बार उनको इतनी मात्रा में हथियार प्राप्त हो रहे थे। इसलिए उन्हें जंग के लिए तैयार होने में थोड़ा वक्त लगना एक स्वाभाविक बात थी। लेकिन उनकी अपनी गिनती अब केवल 75 थी उन्हें लैफ्टीनैंट कुदरत अल्ला (पूर्व रियासती फौजी) के नेतृत्व में पहली मुजफ्फराबाद बटालियन होना था। अब तक कबायलियों ने भी वापस आने के लिए बातचीत शुरू कर दी थी। वो माफी मांग रहे थे और कुछ कर गुजरने के लिए एक मौके की तलाश में थे निश्चित रूप से इनकी बहुत जरूरत थी लेकिन प्रभावशाली कन्ट्रोल के विचार से मैंने केवल 300 मसूदियों को साथ आने की इजाजत दी। इनके नेता गुलाम खान एक हौसले वाले व्यक्ति थे। 

‘‘उसी रात कैंप फायर के दौरान हमने लम्बी कांफ्रैंस की थी। मुझे भी यह पता था कि यह सारे कबायलियों में से मसूदी कम कंट्रोल में आने वाले होते हैं पर अब तो वह बहुत अधिक आक्रामक थे और यहां तो इसी चीज की जरूरत थी। ’’ ‘‘अगले दिन मैंने उन्हें पहाडिय़ों पर भेज दिया। भारतीय चौकियों से बचते हुए उन्हें 15 मील के फासले पर जाना था जो चकौती और उड़ी के बीच स्थित उन्हें ऐसा मार्ग अपनाना था जो उड़ी से पुंछ को जाता है। मुझे पता था कि इस रास्ते से भारतीय पुंछ की घिरी हुई छावनी को मदद भेजेंगे। नक्शे से हटकर एक स्थान को निर्धारित किया गया जहां उन्हें घात लगानी थी कबायली वहां पहुंच गए। दूसरे ही दिन भारतीय सेना का एक काफिला उस स्थान पर जा पहुंचा यहां कबायली पहले से ही घात लगाए बैठे थे। उन्होंने फायरिंग शुरू कर दी और 36 लारियां जला दीं। इस कार्रवाई में बहुत से भारतीय सैनिक मारे गए। ’’ 

‘‘एकदम बाहर के इलाके में हौंसले की लहर दौड़ गई। ‘‘काफिरों का पीछा करो’’, इस किस्म का आम अहसास था। बस फिर क्या था हम आगे बढऩा शुरू हो गए। भारत के अग्रणी दस्तों ने अपनी जगहें छोड़ दीं और हमने उनका पीछा किया। यहां तक कि हम दोबारा उड़ी के क्षेत्र तक पहुंच गए।’’ 

‘‘नवम्बर का महीना अब समाप्त हो चुका था। तीन सप्ताह पहले यह मोर्चा गिर चुका था, भारतीय सैनिक चकौती और उड़ी तक आगे बढ़ आए थे। अब पुंछ से उनका सम्पर्क समाप्त हो चुका था। चकौती से भगा दिए गए थे। चकौती से उड़ी को जाने वाले मार्ग पर जाते हुए एक अथवा कुछ दिनों बाद मुझे कोई भी व्यक्ति नहीं मिला, न ही दुश्मन और न ही दोस्त। आधे रास्ते के बाद किसी स्थान पर हमें एक चौकी मिली जो सड़क से एक मील के फासले पर पहाड़ी के ऊपरी हिस्से में थी। वहां कुछ आदमी थे। कबायली एवं स्थानीय लोग शायद कहीं दूर थे अत: इन पहाडिय़ों की विशालता में कुछ लोगों की मौजूदगी यदि हो भी, तो वह दिखाई नहीं देती थी। हमने पूरे तरीके से सारे इलाके में कब्जा कर लिया। भारतीय न केवल उड़ी भाग गए बल्कि उन्होंने अपने पीछे पुल को भी तबाह कर दिया। ’’ 

अकबर खान ‘रेडर्स इन कश्मीर’ में लिखते हैं कि ‘‘मेरे मन को इस बात से संतुष्टि थी कि उस रात मैं चकौती वापस चला गया। अब करने का काम केवल यह था कि स्थानीय लोगों को रणनीति एवं सिखलाई में मदद की जाए। इसमें कुछ हफ्ते लगने थे। इस दौरान कबायलियों को आसपास होना होगा, सख्ती से हमला करना होगा ताकि यह बात यकीनी बनाई जाए कि भारतीय दोबारा आगे बढऩे की कोशिश न करें। इसलिए मैंने और कबायलियों को बुलावा भेजा और उनकी आमद पर मैंने उन्हें विभिन्न जिम्मेदारियां सौंप दीं। इन लोगों में से मैं अपने दो पुराने और सहपाठी साथियों से मिला। मेरे ख्याल में अफरीदियों को सीधे कंट्रोल करने की सबसे कम जरूरत थी, इसलिए मैंने उन्हें पुंछ भेज दिया ताकि वो नाकाबंदी में मदद करें और उड़ी-पुंछ सड़क को बंद रखें। मसूदी-कार्रवाई करने के लिए तैयार थे इसलिए उनके साथ मैं दोबारा उड़ी की तरफ बढ़ा।’’-पेशकत्र्ता : ओम प्रकाश खेमकरणी 
 

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