न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए पारदर्शिता जरूरी

punjabkesari.in Thursday, May 22, 2025 - 05:24 AM (IST)

नई दिल्ली में उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को आबंटित आवास के एक कमरे से आधे जले हुए नोटों से भरे बोरे बरामद हुए दो महीने से अधिक समय हो गया है। देश अभी भी इस बात से अनजान है कि यह धन कहां से आया तथा इसका मालिक कौन था। न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा द्वारा करंसी नोटों के स्वामित्व से इंकार करने के बाद रहस्य और गहरा गया है। उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि उनके परिसर से जो करंसी नोट मिले हैं, वे कहां से आए। उन्होंने कहा कि जिस कमरे से नोट बरामद हुए, वहां उनके स्टाफ के सदस्य पहुंच सकते थे और आरोप लगाया कि उन्हें बदनाम करने की साजिश की जा रही है।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने घटना की गहन जांच करने के लिए न्यायमूर्ति शील नागू, न्यायमूर्ति जी.एस. संधवालिया और न्यायमूर्ति अनु शिवरामन की एक जांच समिति गठित की थी। रिपोर्टों के अनुसार, समिति को न्यायाधीश को हटाने के लिए पर्याप्त सामग्री मिल गई थी, जिन्हें घटना के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया था। न्यायमूर्ति खन्ना ने आंतरिक समिति की रिपोर्ट राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेज दी थी। मुख्य न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति वर्मा से प्राप्त जवाब भी संलग्न किया था। विशेषज्ञों ने बताया कि मुख्य न्यायाधीश की कार्रवाई ने संसद में न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ निष्कासन कार्रवाई शुरू करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। यह स्पष्ट है कि उन्होंने इस्तीफा देने या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने से इंकार कर दिया था। यह मुद्दा उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने उठाया और आश्चर्य जताया है कि दो महीने से अधिक समय बीत जाने के बावजूद मामले में एफ.आई.आर. क्यों नहीं दर्ज की गई। एफ.आई.आर. की जरूरत पर जोर देते हुए धनखड़ ने कहा, ‘‘लोग बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं... पैसे का स्रोत, उसका उद्देश्य, क्या इससे न्यायिक प्रणाली प्रदूषित हुई? बड़े शार्क कौन हैं? हमें पता लगाने की जरूरत है।’’

इस घटना को ‘अरबों लोगों के मन को झकझोरने वाला’ बताते हुए धनखड़ ने कहा कि इसकी वैज्ञानिक, फोरैंसिक, विशेषज्ञ, गहन जांच की जरूरत है, जिससे सब कुछ सामने आ जाए और कुछ भी छिपा न रह जाए। सच्चाई सामने आनी चाहिए।’ उपराष्ट्रपति ने यह भी कहा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समिति के गठन का ‘कोई संवैधानिक आधार या कानूनी औचित्य नहीं है, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अप्रासंगिक होगा।’ यद्यपि 1991 में दिए गए निर्णय के परिणामस्वरूप किसी भी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध अभियोजन शुरू करने के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है, लेकिन यह पुलिस को एफ.आई.आर. दर्ज करने से नहीं रोकता। यदि देश का कोई भी आम नागरिक इसमें शामिल होता तो पुलिस एफ.आई.आर. दर्ज करने में संकोच नहीं करती। वास्तव में, यदि पुलिस ऐसी परिस्थितियों में एफ.आई.आर. दर्ज करने से बचती, तो अदालतों द्वारा उसे फटकार लगाई जाती।

यह भी रहस्य बना हुआ है कि तीन सदस्यीय समिति द्वारा न्यायमूर्ति वर्मा की ओर से कुछ गलत कार्य करने के प्रथम दृष्टया साक्ष्य पाए जाने के बाद भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अभियोजन की अनुमति कैसे नहीं दी गई। संसद द्वारा न्यायाधीशों पर महाभियोग चलाना एक बहुत ही कष्टसाध्य एवं कठिन प्रक्रिया है। इसमें उपस्थित सांसदों में से दो-तिहाई द्वारा महाभियोग के पक्ष में मतदान किया जाना शामिल है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आजादी के बाद से किसी भी न्यायाधीश पर महाभियोग नहीं लगाया गया। लेकिन महाभियोग से भी इन सवालों का जवाब नहीं मिलेगा कि करंसी नोटों की बोरियां कहां से आईं और ये उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के परिसर में कैसे पहुंचीं। न्यायपालिका की विश्वसनीयता दांव पर है। न्यायपालिका न्याय के लिए नागरिकों की अंतिम आशा है और इस आशा और विश्वास की रक्षा की जानी चाहिए। धूप सबसे अच्छी कीटाणुनाशक है और इसलिए न्यायपालिका को न्यायमूर्ति वर्मा मामले में पारदर्शिता दिखानी चाहिए और मामले की जांच के निष्कर्षों को सार्वजनिक करना चाहिए।-विपिन पब्बी 
 


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