आज के युद्धों का नेतृत्व ‘हैकर व ब्लॉगर’ करते हैं

punjabkesari.in Monday, Oct 07, 2019 - 12:25 AM (IST)

सुबह के समाचार पत्रों में छपी एक स्टोरी ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। यह भारतीय वायु सेना के 200 और लड़ाकू विमान चाहने बारे तथा कौन-सा विमान लिया जाए, इस पर वाद-विवाद बारे थी। हम पहले ही रूस निर्मित सुखोई तथा मिग तथा फ्रांस निर्मित मिराज व राफेल विमानों की विभिन्न स्क्वाड्रनों के लिए कीमत चुका चुके हैं। इन विमानों ने अधिक लड़ाइयां नहीं देखीं। इनका इस्तेमाल अंतिम बार 50 वर्ष पूर्व एक युद्ध में किया गया था, जो हमने पूर्व में छेड़ा था। इसके बाद एक-दो छोटे अवसरों को छोड़ कर अधिकतर वे जमीन पर ही रहे हैं।

युद्ध की पुरानी तकनीक 
लड़ाकू विमान 100 वर्ष पुरानी तकनीक है, जिसका इस्तेमाल पहली बार 1914 में विश्व युद्ध में किया गया था। लड़ाकू विमानों के खिलाफ सुरक्षा प्रणालियां भी 100 वर्ष पुरानी हैं और यही कारण है कि इन मशीनों का इस्तेमाल युद्धों में अधिक नहीं किया गया और अपने बूते पर उन्होंने कोई युद्ध नहीं जिताया है। अमरीका ने अपने हालिया युद्ध गाइडिड मिसाइलों के साथ लड़े क्योंकि मानव द्वारा उड़ाए जाने वाले विमान खतरनाक (पायलट के लिए) तथा अप्रभावी हैं। यद्यपि पुराने लोगों (जनरल व एडमिरल तथा ऐसे लोग पुराने या बुजुर्ग ही होते हैं) की सोच को बदलना कठिन होता है इसलिए सरकारें तथा देश उस सोच के पीछे बहुत सारा धन लगाती हैं, जो पुराने जमाने की तथा काफी बेकार होती है। 

यह नया नहीं है और हमेशा से ही योद्धाओं का तरीका रहा है, जिस व्यक्ति ने दूसरे विश्व युद्ध में बहुत-सी सफल जर्मन युद्ध नीतियां विकसित की थीं, वह हेन्ज गुडेरियन नामक एक सैनिक था। वह लिखता है कि उसने सेना में टैंक शामिल करने के लिए कड़े प्रयास किए लेकिन उसके जनरल सहमत नहीं थे। वे अपनी फार्मेशन्स से जुड़े रहना चाहते थे, जिनमें घोड़े थे और उस नई तकनीक को समझना अथवा उस पर विश्वास नहीं करना चाहते थे, जिसे गुडेरियन प्रोत्साहित करने का प्रयास कर रहा था। आखिरकार वरिष्ठ सैनिक हार गए तथा जर्मनी में अत्यंत शक्तिशाली मैकेनाइज्ड आर्मर्ड डिवीजन्स विकसित की, जिन्होंने फ्रांस को रौंदने तथा रूस पर लगभग विजय हासिल करने में मदद की। 

बेकार हुए टैंक
लेकिन समय के साथ टैंक भी बेकार हो गए। कुछ दशक पूर्व ब्रसल्स में नार्थ अटलांटिक ट्रीटी आर्गेनाइजेशन (नाटो) के मुख्यालय में मैं एक मेहमान था। इस संगठन का गठन 1949 में सोवियत संघ की ओर से आ रहे खतरे के खिलाफ पश्चिमी यूरोप को एकजुट करने के लिए किया गया था। सोवियत संघ (यू.एस.एस.आर.) का तो विघटन हो गया था लेकिन नाटो अभी भी एक सैन्य गठबंधन के तौर पर अस्तित्व में था, जहां प्रत्येक प्रतिभागी देश को आवश्यक तौर पर अपने सैनिकों तथा धन का योगदान देना होता था। नाटो ने टैंकों पर बहुत-सा धन खर्च किया क्योंकि यूरोप को रणनीतिक खतरा जाहिरा तौर पर पोलैंड के माध्यम से रूसी बख्तरबंद हमले का था। दूसरे विश्व युद्ध के अंतिम हिस्से में रूस ने विशाल बख्तरबंद युद्धों में हिटलर की सेनाओं को पराजित कर दिया, जिनमें हजारों की संख्या में टैंकों ने हिस्सा लिया। 

इसी तरह पश्चिमी यूरोप ने टैंकों के खिलाफ सुरक्षा विकसित करने पर अरबों खर्च किए। हालांकि युद्ध कला में तेजी से विकास हुआ तथा सोवियत आक्रमण तथा रक्षात्मक रणनीतियां परमाणु मिसाइलों तथा पनडुब्बियों में बदल गई जबकि समाजवाद फैलाने के माध्यम से सरकारों पर कब्जा करने पर भी ध्यान केन्द्रित किया गया। नाटो के टैंक आज किसी काम के नहीं तथा अमरीका यूरोपीय देशों पर नाटो के लिए पर्याप्त धन का योगदान नहीं करने का सही आरोप लगाता है क्योंकि किसी को भी वास्तव में उसी रोशनी में अब रूसी खतरा दिखाई नहीं देता। 

वर्ष 2020 से हम कुछ सप्ताह ही दूर हैं। आज टैंकों तथा लड़ाकू विमानों के साथ खुद को लैस करना उतना ही बेकार है जितना कि 1920 में अधिक घोड़े खरीदना था। डोनाल्ड ट्रम्प का चुनाव यह दर्शाता है। रूस नहीं चाहता था कि हिलेरी किं्लटन चुनी जाएं और सोचता था कि यदि ट्रम्प जीतें तो बेहतर होगा। यह सी.आई.ए. तथा एफ.बी.आई. की जांचों के अनुसार है। रूस ने अपने उद्देश्य प्राप्त करने के लिए एक युद्ध छेड़ा। यह युद्ध सोशल मीडिया के माध्यम से छेड़ा गया था, जहां इसने फर्जी खबरों का इस्तेमाल किया तथा अमरीकी मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए प्रचार किया। व्लादिमीर पुतिन ने अपना उद्देश्य हासिल कर लिया और अमरीका पर अपनी इच्छा थोपने में सक्षम थे। रूस ने कितना खर्च किया? 1.13 करोड़ रुपए। 

सोशल मीडिया का इस्तेमाल
आज एक देश किसी अन्य देश को उसके हितों से अलग करके उसे घुटनों पर ला सकता है। किसी अन्य देश के भीतर युद्ध का माहौल पैदा करने के लिए कोई देश सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर सकता है। नफरत फैला कर जनसंख्या के एक हिस्से को दूसरे के खिलाफ करना। टैंकों या विमानों अथवा मिसाइलों की कोई जरूरत नहीं, देशों को काफी आसानी से जीता तथा बहुत कमजोर बनाया जा सकता है। कुछ वर्ष पूर्व हमने 36 राफेल खरीदने के लिए 59,000 करोड़ रुपए खर्चे थे और हमें नहीं पता कि उनका इस्तेमाल होगा या नहीं। शायद कभी नहीं। 

वर्तमान समय में देशों के बीच युद्ध सीमा पर सैनिकों की विशाल, संगठित फार्मेशन्स में नहीं लड़े जाएंगे। वे जनसंख्या के भीतर लड़े जा रहे हैं तथा बलों का नेतृत्व जनरल नहीं बल्कि हैकर्स व ब्लॉगर्स करते हैं, जो अपना काम अपनी मर्जी से दुनिया के किसी भी हिस्से से कर सकते हैं। हम सोचते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा एक बहुत गम्भीर मामला है और हमें हमारे लिए सही चीज करने के लिए जनरलों पर भरोसा करना चाहिए लेकिन जैसा कि गुडेरियन जानता है, यह हमेशा समझदारीपूर्ण नहीं होता।-आकार पटेल


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News