रोजगार पैदा करने में पिछड़ रहा है भारत

Tuesday, Aug 30, 2016 - 01:36 AM (IST)

(आकार पटेल) 4 वर्षों में भारत में कामकाजी लोगों की आबादी दुनिया में सबसे अधिक हो जाएगी, यानी कि लगभग 87 करोड़। जब देश इस प्रकार की आबादी का उच्च अनुपात छू लेते हैं तो उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे ‘जनसांख्यिकी लाभ’ अर्जित करेंगे। सीधे शब्दों में इसका अर्थ है कि चूंकि अधिकतर नागरिक काम करते हैं इसलिए आर्थिक वृद्धि दर बढ़ती जाती है। ऐसी अपेक्षा और पूर्वानुमान है कि भारत इस प्रकार की स्थिति तक जल्दी ही पहुंच जाएगा।

 
फिर भी इस विषय में दूसरा दृष्टिकोण भी है। तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता करने वाले संगठनों ‘इंडिया स्पैंड’ ने कुछ महीने पूर्व एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें रोजगार के मुद्दे पर प्रकाश डाला गया था और 6 टिप्पणियां की गई थीं जो इस प्रकार हैं : 
 
1. 2015 में भारत में संगठित क्षेत्र यानी कि बड़ी-बड़ी  कम्पनियों और फैक्टरियों के क्षेत्र में सबसे कम  रोजगार  सृजन किया, जोकि 8 महत्वपूर्ण उद्योगों में 7 वर्ष दौरान रोजगार सृजन का सबसे न्यूनतम आंकड़ा है।
 
2. औपचारिक मासिक अदायगी अथवा सामाजिक सुरक्षा लाभों के बगैर काम करने वाले असंगठित क्षेत्र में रोजगारों का अनुपात 2017 में बढ़कर 93 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा।
 
3. ग्रामीण उजरतें दशक के सबसे न्यूनतम स्तर पर  हैं यानी 2014-15 में 0.2 प्रतिशत सिकुड़ गईं। 47 प्रतिशत लोगों को रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र 2015-16 में 1 प्रतिशत बढ़ रहा है।
 
4. रोजगार याफ्ता लोगों में से कम से कम 60 प्रतिशत  ऐसे हैं जिन्हें पूरे साल के लिए रोजगार नहीं मिलता।  यह  इस बात का संकेत है कि ‘अपर्याप्त रोजगार’ एवं अस्थायी रोजगार एक व्यापक घटनाक्रम है।
 
5. नई कम्पनियां बनने की प्रक्रिया मंद पड़कर 2009 के स्तर पर चली गई है जबकि वर्तमान कम्पनियां मात्र 2 प्रतिशत की दर से विकास कर रही हैं जोकि गत 5 वर्षों में न्यूनतम आंकड़ा है।
 
6. चूंकि बड़ी-बड़ी कार्पोरेशनें और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक वित्तीय रूप में तनावग्रस्त हैं जिसके चलते भारत में कम्पनियों का औसत आकार घटता जा रहा है। यह ऐसे समय में हो रहा है जब संगठित और बड़े आकार की कम्पनियां ही रोजगार सृजन में साकारात्मक भूमिका अदा कर रही हैं।
 
यह इस बात का संकेत है कि भारी-भरकम श्रमिक शक्ति एक ऐसे वातावरण की ओर बढ़ रही है जिसमें इसे सोख लेने की क्षमता ही नहीं है।
 
रिपोर्ट में यह भी इंगित किया गया  कि बेशक भारत में 1991 के बाद उच्च वृद्धि दर बनी हुई है। फिर भी आधी से भी कम आबादी को ही सम्पूर्ण रूप में रोजगार मिल पाया था। इसकी तुलना में ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (यू.एन.डी.पी.) की एक रिपोर्ट में कहा गया : ‘‘चीन में 1991 से 2013 के बीच रोजगारों की संख्या  62.8 करोड़ से बढ़कर 77.2 करोड़ हो गई जोकि 14.4 करोड़ की वृद्धि है। परन्तु  इसी बीच काम करने की आयु वाली आबादी में 24.1 करोड़ की वृद्धि हुई।’’ रिपोर्ट में यह भी कहा गया है : ‘‘चीन की तुलना में भारत के मामले में अधिक व्यापक खाई यह सुझाव देती है कि भारत में रोजगार सृजन की क्षमता बहुत सीमित है जोकि भारत में 35 वर्षों से अधिक आयु की श्रमिक शक्ति के विस्तार के चलते एक गंभीर चुनौती है।’’
 
जब तक अर्थव्यवस्था में गत 25 वर्षों से हो रही घटनाओं को जारी रखने की बजाय कोई बड़ा बदलाव नहीं होता, रोजगार सृजन नहीं होगा। परम्परागत रूप में देश जिस प्रकार विकासशील बने वह था बहुत सस्ते उत्पाद उपलब्ध करवाने वाला कारखाना क्षेत्र-जैसे कि परिधान निर्यात। बाद में यही देश महंगे उत्पादों की ओर बढ़े जैसे कि आटोमोबाइल व इलैक्ट्रोनिक्स।
 
भारत में ये तीनों सैक्टर मौजूद हैं, लेकिन किसी उल्लेखनीय पैमाने पर नहीं। उदाहरण के तौर पर परिधान उद्योग में हम प्रतिस्पर्धा करते हैं और अक्सर बंगलादेश जैसे देशों से पराजित हो जाते हैं। वियतनाम और श्रीलंका हमारी तुलना में अधिक कुशल एवं सस्ते हैं। गत 7 वर्षों दौरान ग्लोबल अर्थव्यवस्था में मंदी आने का तात्पर्य यह है कि विदेशों में विराट पैमाने पर कोई ऐसी मांग नहीं उठेगी जिसका हम लाभ ले सकें।
 
विकास का परम्परागत रास्ता भारत के लिए स्पष्ट रूप में बंद हो चुका है तो ऐसे में हम अपनी श्रमिक शक्ति के बड़े आकार लाभ लेने का प्रबंध कैसे कर सकते हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर शीघ्रातिशीघ्र  दिया जाना चाहिए, क्योंकि हमारे पास  बहुत अधिक समय नहीं है।
 
मेरा मानना है कि यह आशा करना पूरी तरह गलत है कि सरकार अकेली या प्रमुख अंशदाता के रूप में कोई हल उपलब्ध करवा सकती है। कारखाना क्षेत्र में हमें बड़े स्तर पर निवेश हासिल न होने का  एक  कारण  यह  है कि हमारे यहां आधारभूत ढांचे तथा कनैक्टिविटी की भारी कमी है। यहां हम स्पष्ट रूप में देख सकते हैं कि निवेश एवं वरीयताक्रम के मामले में हमारी केन्द्रीय सरकार की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है।
 
 लेकिन एक अन्य इतना ही बड़ा कारण यह है कि हमारे पास कुशल श्रम शक्ति की कमी है। यह स्थिति उच्च वर्गीय शहरी भारतीयों को हैरान कर सकती है क्योंकि अपनी अपेक्षाकृत अच्छी शिक्षा के कारण काफी आसानी से रोजगार हासिल कर लेते हैं, लेकिन भारतीयों के विशाल बहुमत की शिक्षा व संसाधनों तक पहुंच नहीं होती इसलिए वे आधुनिक अर्थव्यवस्था में काम करने के लिए फिट नहीं हैं। यह स्थिति ‘असैंबली लाइन’ ड्यूटी के आधारभूत कुशल ब्ल्यू कालर कार्यों के मामले में भी सही है। दूसरी ओर फिलीपींस जैसे देश हमारे ‘आर्थिक पिछवाड़े’ में सेंध लगा रहे हैं, खास तौर पर सेवा क्षेत्र में। क्योंकि आटोमेशन हर वर्ष सकल नए रोजगारों को घटाती जा रही है।
 
हमारे प्रधानमंत्री इस समस्या को पहचानते हैं, इसीलिए उन्होंने ‘स्किल इंडिया’ अभियान शुरू किया है ताकि  करोड़ों भारतीयों को आधारभूत ब्ल्यू कालर कौशल से लैस किया जा सके। इस मामले में भी नतीजे आने में वक्त लगेगा क्योंकि भारत में प्राइमरी स्तर की पढ़ाई का भी बुरा हाल है। जितना हम इस बारे में सोचते हैं उतना ही हमारे लिए मुश्किल होता जा रहा है कि भारत अपनी विराट श्रमिक शक्ति का लाभ कैसे ले सकता है। यदि आंतरिक और बाहरी दोनों ही मोर्चों पर बदलाव नहीं लाया जाता तो व्यापक बेरोजगारी और सामाजिक बेचैनी का खतरा हमारे सिर पर तलवार की तरह लटक रहा है लेकिन समस्या यह है कि बदलाव कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा।  
 
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