समय बताएगा ‘कश्मीर नीति’ का परिणाम

Monday, Aug 12, 2019 - 02:18 AM (IST)

इस समय हमें यह बताया जा रहा है कि जो कुछ हुआ वह कश्मीरियों सहित सब लोगों के लिए एक अच्छी बात है। जो लोग इसे विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त होने के कारण परेशान रहते थे वे अब इस बात से संतुष्ट हैं कि देश का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य अब केंद्र शासित प्रदेश बन गया है जिस पर सीधे केंद्र का शासन होगा। बेशक कुछ अन्य राज्यों को भी विशेष दर्जा प्राप्त है लेकिन कश्मीर को धर्म के कारण विशेष नजरिए से देखा जाता था। ऐसे लोग कम ही हैं जो यह समझते थे कि कश्मीर को विशेष दर्जा ठीक है। जो लोग यह समझते हैं कि जम्मू-कश्मीर में धारा 370 का मूल रूप में बने रहना और जम्मू-कश्मीर को वास्तविक स्वायत्तता देना ठीक है, उनकी संख्या बहुत कम है। 

उद्यमशील होते हैं कश्मीरी
इसके अलावा आर्थिक पहलू है। कश्मीर और खासतौर पर श्रीनगर में उस तरह की गरीबी, अशिक्षा तथा अन्य मानव विकास सूचकांक नहीं हैं जैसे कि अन्य राज्यों में हैं। कश्मीरी लोग बहुत उद्यमशील होते हैं और वे न केवल शेष भारत में बल्कि वैश्विक तौर पर भी काम करते देखे जा सकते हैं। इसलिए ऐसा कभी नहीं रहा कि यह राज्य आॢथक रूप से पिछड़ा हुआ है। अब तर्क यह है कि यह राज्य गैर कश्मीरियों के लिए भी निवेश हेतु उपलब्ध होगा और वे वहां सम्पत्ति के मालिक बन सकेंगे। इस बात को समझने में हमें कुछ समय लगेगा। 

तीसरी बात यह कही जा रही है कि इससे एक नई तरह की राजनीति का जन्म होगा। कश्मीरी लोग परिवार आधारित राजनीति से मुक्त हो जाएंगे और उनके पास नए लोकतांत्रिक अवसरों को खोजने का मौका होगा। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कश्मीरी लोग तथाकथित परिवार आधारित राजनीति में कितनी आस्था रखते हैं। यह तय करना बाहरी लोगों का काम नहीं है कि कश्मीरियों को किस तरह की पार्टी को वोट देना चाहिए और किस तरह की पार्टी को नहीं। हकीकत यह है कि या तो हम यह विश्वास करें कि कश्मीर में निष्पक्ष चुनाव करवाए गए हैं अथवा विश्वास न करें। यदि हम विश्वास करते हैं तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि जिन पार्टियों ने लोगों का विश्वास जीता है वे वही हैं जिन्हें आज हम गालियां निकाल रहे हैं। 

यदि यह सच है कि राजनीतिक स्थान खुल गया है तो हमें यह विचार करना होगा कि यह स्थान कैसे भरेगा। इस वक्त सबसे मशहूर ताकतें जो चुनावी प्रक्रिया में शामिल नहीं हैं वे अलगाववादी हैं। हुर्रियत और इससे जुड़ी पाॢटयां जिनमें जमात-ए-इस्लामी भी शामिल है, उन्हें पिछले दिनों की गई भारत की कार्रवाइयों पर यह कहने का मौका मिलेगा कि कश्मीरियों को पारंपरिक दलों से वह नहीं मिला जो वे चाहते थे। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस संबंध में दिल्ली ने अपने कार्यों के परिणामों के बारे में विचार किया होगा। 

बाकी देश ने कश्मीरियों के बारे में ज्यादा ध्यान नहीं दिया जो कफ्र्यू में रहे और जिनका संचार बंद कर दिया गया था। यह उनके लिए नई बात नहीं है। दुनिया के मीडिया फ्रीडम इंडैक्स में भारत के निचले पायदान पर होने का एक कारण यह भी है कि कश्मीरियों के फोन और इंटरनैट लम्बी अवधि के लिए काट दिए जाते हैं। अभी तक जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हटाए जाने और उसे केन्द्र शासित प्रदेश बनाए जाने के बारे में हमें कश्मीरियों की फीडबैक का पता नहीं चला है। अभी तक हम सोशल मीडिया पर कश्मीर के बारे में कुछ आवाजें सुन रहे हैं जोकि प्रमाणित नहीं हैं क्योंकि श्रीनगर और अन्य कस्बों में रह रहे लोगों की पहुंच इंटरनैट तक नहीं है। 

कश्मीरियों की प्रतिक्रिया आनी बाकी
जब भी वहां से कफ्र्यू हटाया जाएगा और संचार बहाल किया जाएगा तभी भारत और विश्व को पता चलेगा कि वास्तव में कश्मीरियों की प्रतिक्रिया क्या है? इसके अलावा देश के बाकी हिस्सों में क्या कहा जा रहा है वह ज्यादा मायने नहीं रखता क्योंकि  पिछले तीन दशकों से इसके कोई मायने नहीं रहे हैं। वे खुद को अपने वैध अधिकारों के लिए लडऩे वालों के रूप में देखते हैं। संयुक्त राष्ट्र की ओर से कुछ प्रस्तावों (जिनमें से कोई भी लागू करने योग्य नहीं है) दुनिया ने लम्बे समय से कश्मीर मामले पर अपनी रुचि खो दी है। आज भारत को अपनी आंतरिक कार्रवाइयों के संबंध में वैश्विक तौर पर ङ्क्षचतित होने की कोई बात नहीं है। सुरक्षा परिषद के अधिकतर सदस्यों से इसके अच्छे संबंध हैं और उसे रूसी वीटो पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। दुनिया हमारे कफ्र्यू लगाने तथा कम्युनिकेशंस ब्लैकआऊट पर ज्यादा ध्यान नहीं देगी क्योंकि उसने तीन दशकों से इस बात को नजरअंदाज किया है। 

आखिरी बात जिस पर हमें विचार करना चाहिए, वह यह है कि जिसे हम आतंकी हिस्सा कहते हैं वह भारत में तीन स्थानों तक सीमित है : उत्तर पूर्व, आदिवासी बैल्ट (जिसे हम माओवादी विद्रोह कहते हैं) और कश्मीर। ज्यादातर मामलों में इन क्षेत्रों  में ङ्क्षहसा स्थानीय रहती है। साम्प्रदायिक दंगे तथा उसके विरोध में हिंसा शेष भारत में भी होती रही है, उदाहरण के लिए 1992 तथा 2000 के बाद लेकिन यह घटना विशेष से जुड़ी हुई थी। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि  इस बात पर ध्यान दिया गया होगा कि इस हिंसा की लम्बी कड़ी किस तरह की होगी और हम इस पर कैसे नियंत्रण करेंगे? इस समय धारा 370 को समाप्त किए जाने के प्रति सकारात्मक माहौल है। जब दूसरी तरफ से लोग अपने विचारों की अभिव्यक्ति करेंगे तब हमें पता चलेगा कि हमारी कार्रवाई का क्या प्रभाव रहा और इसका पूरा अर्थ समय के साथ ही प्रकट होगा।-आकार पटेल

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