तीन तलाक तो बंद हुआ लेकिन तीन सवाल बने रहे

Wednesday, Aug 23, 2017 - 10:20 PM (IST)

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर मेरा मन आशा-निराशा में झूलता रहा। तीन तलाक की प्रथा मानवीयता, संविधान और इस्लाम तीनों के विरुद्ध है। इसलिए सुबह से मना रहा था कि कोर्ट इस सवाल पर ऐसा फैसला दे जो तीन तलाक का दरवाजा तो बंद करे ही, साथ में व्यापक सामाजिक और राजनीतिक सुधार का दरवाजा भी खोल दे। 

पहले जब खबर आई कि कोर्ट ने इस गेंद को संसद के पाले में डाल दिया है तो बहुत मायूसी हुई। कुछ मिनट बाद खबर आई कि वह तो जस्टिस खेहर और जस्टिस नजीर का अल्पमत था और बाकी तीन जजों ने तीन तलाक को गैर-कानूनी बताया है तब जाकर कुछ राहत मिली। लेकिन जब पूरा फैसला पढ़ा तो जवाब से ज्यादा सवाल खड़े हो गए, बस एक छोटी-सी आशा बनी। देर सवेर तीन तलाक को खारिज होना ही था, सो हो गया लेकिन मुझ जैसे लोगों को इस फैसले से तीन बड़ी उम्मीदें थीं। एक, इससे तीन तलाक ही नहीं, देश में तमाम महिला विरोधी धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों को अमान्य करने का रास्ता खुलेगा। दो, इस बहाने मुस्लिम समाज में सुधार तेज होगा और मुसलमान अपने कठमुल्ला नेतृत्व से मुक्त होगा। तीन, कानूनी धक्के से सैक्युलर राजनीति अपने पाखंड से मुक्त होगी लेकिन इस फैसले से कोई एक उम्मीद भी पूरी नहीं होती। 

तीन तलाक की प्रथा मुख्यत: एक प्रतीकात्मक सवाल है। संख्या की दृष्टि से देखें तो एक ही सांस में तलाक-तलाक-तलाक कहकर संबंध विच्छेद करने की घटनाएं इनी-गिनी ही होती हैं। फिर भी शादी जैसे संबंध को तोडऩे का इतना अतार्किक और अमानवीय तरीका इस प्रथा को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनाता है। व्यवहार में यह हो या न हो, इसका डर एक औरत के सिर पर तलवार की तरह लटका रहता है। वैसे मुस्लिम समाज में इस प्रथा को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। कुरान शरीफ में तलाक के इस स्वरूप का कहीं जिक्र नहीं है। पैगम्बर के बाद बनी मुस्लिम आचार व्यवहार की आदर्श संहिता यानी शरिया ने इसे वैधता जरूर दी लेकिन एक आदर्श के रूप में नहीं। यूं भी ऐसी नारी विरोधी प्रथा हमारे संविधान की मूल भावना के खिलाफ  है। इसलिए कभी न कभी इस प्रथा को कानूनी रूप से अवैध घोषित होना ही था। सवाल यही था कि कितनी जल्दी होगा, इसे कोर्ट-कचहरी करेगी या कि संसद और इसे किस आधार पर खारिज किया जाएगा।

इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला बहुत कमजोर है। उम्मीद यह थी कि सर्वोच्च न्यायालय एक राय से बुलंद आवाज में बोलेगा, लेकिन फैसला सिर्फ तीन-दो के बहुमत से आया। जिन तीन जजों ने इस प्रथा को गैर-कानूनी बताया वे भी असमंजस के शिकार दिखे। सिर्फ  दो जजों, जस्टिस नरीमन और जस्टिस ललित ने कहा कि संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले पारिवारिक कानून और प्रथाएं गैर-कानूनी मानी जाएंगी। बाकी तीन जजों ने कहा कि शादी और तलाक के अलग-अलग धर्म के कानूनों को संविधान के मौलिक अधिकार की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। संयोग से उनमें से एक जज (जस्टिस जोसेफ) ने तीन तलाक को इस आधार पर अवैध माना कि वह कुरान शरीफ के अनुसार नहीं है। अगर जस्टिस जोसेफ भी जस्टिस खेहर और जस्टिस नजीर का यह तर्क मान लेते कि तीन तलाक एक पुरानी और मान्य प्रथा है तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट जाता। 

इसीलिए यह सामाजिक सुधार के लिए कोई बड़ी या शानदार जीत नहीं है। बस यूं समझिए कि बाल-बाल बच गए। एक मायने में इस फैसले ने नारी विरोधी सामाजिक प्रथा के खिलाफ कानूनी लड़ाई को पहले से भी मुश्किल बना दिया है। तीन तलाक तो अवैध हो गया लेकिन सभी धर्मों में ऐसी अनेक महिला विरोधी प्रथाएं हैं जिन्हें रोकने की जरूरत है। आशा की किरण दिखाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट का फैसला इन सबके विरुद्ध संघर्ष करने वालों को सहारा नहीं देता। यह फैसला मुस्लिम समाज और उसके नेतृत्व में जरूरी बदलाव की शुरूआत भी नहीं करता। आज भारत के मुसलमान की सबसे बड़ी समस्या उनके धार्मिक अधिकार नहीं हैं। आज एक औसत मुसलमान अच्छी शिक्षा के अवसरों से वंचित है, नौकरी में भेदभाव का शिकार है और शहरों में भी मुस्लिम इलाकों में रहने को अभिशप्त है। 

आज से 11 साल पहले सच्चर समिति ने इस सच्चाई की ओर हमारी आंखें खोली थीं। पिछले 11 साल में इन सब क्षेत्रों में मुसलमानों की हालत पहले से और बिगड़ी है। लेकिन मुस्लिम समाज का कठमुल्ला नेतृत्व इन सवालों को उठाने की बजाय सिर्फ ऐसे धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के सवालों को उठाता है जिससे औसत मुसलमान की भावनाओं को भड़काया जा सके। तीन तलाक जैसी कुप्रथा का समर्थन करना मुस्लिम नेतृत्व के दिवालिएपन का सबूत है। आज के माहौल में मुस्लिम समुदाय से इस नेतृत्व को चुनौती देने की उम्मीद करना मुश्किल है। आज एक औसत मुसलमान दहशत में जी रहा है। कभी गौहत्या, कभी गौमांस, कभी वंदेमातरम् तो कभी आतंकवाद .. किसी न किसी बहाने आज मुसलमान निशाने पर हैं। जान-माल की हिफाजत फिर मुसलमान के लिए सबसे बड़ा सवाल बन गया है। ऐसे खौफजदा समाज से अपने गिरेबां में झांकने और नेतृत्व को चुनौती देने की उम्मीद नहीं की जा सकती। 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इस मामले में कोई मदद नहीं मिलती। जब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के पक्ष में नरेन्द्र मोदी बोलते हैं और अमित शाह प्रैस कॉन्फ्रैंस करते हैं तो एक साधारण मुसलमान के मन में शक और डर पैदा हो जाता है। बस इतना जरूर हुआ है कि स्वर्गीय हमीद दलवई के नेतृत्व में शुरू हुए संघर्ष और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन जैसे हिम्मती संगठनों को कुछ ताकत मिल गई है। इसी से कुछ उम्मीद बनती है। तो क्या सुप्रीमकोर्ट का यह फैसला देश की सैक्युलर राजनीति का चरित्र बदलेगा। अगर सुप्रीमकोर्ट बुलंद आवाज में कहता कि संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ  कोई सामाजिक, धार्मिक प्रथा मान्य नहीं होगी, तो सैक्युलर राजनीति की हिम्मत भी बढ़ती। 

हो सकता था कि वह समान नागरिक संहिता के पक्ष में बोलने की हिम्मत जुटा पाती। लेकिन अगर कोर्ट की चारदीवारी में सुरक्षित जज भी असमंजस में हैं, तो सड़क पर वोट ढूंढते राजनेता से क्या उम्मीद की जाए? फिर भी एक उम्मीद बनती है क्योंकि लकीर के फकीर बने रहने की बजाय ज्यादातर ‘सैक्युलर’ पाॢटयों ने इस फैसले का समर्थन किया है। यहां गौरतलब है कि इस फैसले से पहले इन अधिकांश पार्टियों ने खुलकर तीन तलाक के खिलाफ  बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। सच यह है कि अपने आप को सैक्युलर कहने वाली ये पार्टियां मुस्लिम वोट के लालच में कठमुल्ला मुस्लिम नेतृत्व की गिरफ्त में रही हैं। 30 साल पहले शाहबानो वाले मामले में घुटने टेक देने वाली इस राजनीति का रुख सायरा बानो के इस नवीनतम मामले में कुछ सुधरा तो है, यही एक छोटी-सी आशा है।

न्यायिक प्रणाली प्रशंसा की हकदार
मुसलमानों में तीन तलाक की पुरानी और आम तौर पर विकृत प्रथा से संबंधित सुधार बड़े लंबे समय से लंबित था और सुप्रीमकोर्ट के शीर्ष 5  जजों के बीच मत विभाजन होने के बावजूद इसे आगे बढ़ाने के लिए भारतीय न्यायिक प्रणाली पूर्ण प्रशंसा की हकदार है। हो सकता है कट्टरपंथियों के साथ-साथ अनपढ़ों का एक वर्ग इस प्रणाली को समाप्त करने के निर्णय को लेकर कुछ दुराव रखता हो मगर निश्चित तौर पर अग्रगामी मुसलमानों की एक बहुसंख्या इसकी प्रशंसा करेगी जिनमें मुस्लिम महिलाएं शामिल हैं जिन्हें इस प्रथा का डंक सहना पड़ रहा था। 

स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी इस प्रथा को जारी रखने की इजाजत इसलिए नहीं दी जा रही थी क्योंकि इससे छुटकारा पाने की मांग अथवा  एहसास नहीं था, बल्कि इसका कारण राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव तथा वोट बैंक की राजनीति थी। बड़ी संख्या में मुसलमान इस प्रथा से नफरत करते हैं, यह इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि 20 से अधिक मुस्लिम देशों ने काफी समय पहले इसे समाप्त कर दिया था। इन देशों में  पाकिस्तान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात तथा बंगलादेश शामिल हैं। इन तथा कई अन्य देशों में इस्लाम का कड़ाई से पालन किया जाता है और यदि ये देश तीन तलाक की प्रथा को समाप्त करने बारे निर्णय ले सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि भारत, जो विश्व में मुसलमानों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी का घर है, इस मामले में पीछे रह जाए। 

दुख की बात है कि अब इस प्रतिगामी प्रथा में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस बात की रिपोर्ट्स हैं कि कुछ मुसलमान व्यक्ति अपनी पत्नियों को ई-मेल तथा व्हाट्सएप के माध्यम से तलाक दे रहे थे। प्रभावित महिलाओं व उनके बच्चों की दुर्दशा का अनुमान लगाना  कठिन नहीं है जिन्हें अचानक बोल दिया जाता था कि उन्हें तलाक दे दिया गया है। यह सर्वविदित है कि मुस्लिम धार्मिक संस्थानों पर पुरुषों का आधिपत्य होता है और प्रत्यक्ष तौर पर महिलाओं की स्थिति में सुधार करने की बजाय उनकी अन्य प्राथमिकताएं होती हैं विशेष कर उन महिलाओं की जिन्हें खुद अपनी देखभाल के लिए छोड़ दिया जाता है। 

मौलवियों का एक वर्ग इस बात पर जोर देता है कि कुछ लोग लाभ उठाने के लिए पवित्र कुरान को गलत परिभाषित करते हैं। उनका कहना है कि तुरन्त तलाक देने की कोई व्यवस्था नहीं है, यहां तक कि यदि तीन बार लगातार भी यह शब्द बोल दिया जाए। उनका कहना है कि तीन तलाक में तलाक शब्द का उच्चारण तीन अलग-अलग स्थानों पर और कई दिनों के अंतराल के बाद होना चाहिए। इसके अतिरिक्त तलाक से संबंधित कई अन्य घृणित प्रथाएं हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई दम्पति तलाक के बाद फिर निकाह करना चाहता है तो महिला को किसी अन्य व्यक्ति के साथ ‘निकाह’ करके उसके साथ सोना पड़ता है ताकि वह पुन: निकाह के योग्य बन सके। यह भली-भांति ज्ञात है कि कुछ मौलवी इस प्रथा का दुरुपयोग अपनी खुद की हवस मिटाने के लिए करते हैं। 

इसलिए सुप्रीमकोर्ट के निर्णय की बड़ी संख्या में मुसलमान प्रशंसा करेंगे। परेशानी पैदा करने वाले तथा कट्टरपंथी हमेशा मौजूद रहते हैं जो यह दावा करते हैं कि इस्लाम पर ‘हमला’ किया जा रहा है मगर यह तर्क कि बड़ी संख्या में मुस्लिम देशों ने पहले ही इस प्रथा से छुटकारा पा लिया है, उन्हें इसके पीछे का कारण देखना चाहिए। सुप्रीमकोर्ट के बहुमत से लिए गए निर्णय ने सरकार को तीन तलाक से संबंधित कानूनों में कोई बदलाव लाने में दखल देने से बचा लिया है। राजग सरकार ने गत वर्ष सुप्रीमकोर्ट से कहा था कि वह मुस्लिम समुदाय में तीन तलाक तथा बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ है। यह उल्लेख करते हुए कि लिंग समानता संविधान के मूलभूत ढांचे का एक हिस्सा है, सरकार ने सुप्रीमकोर्ट के सामने कहा था कि यह एक ऐसी चीज है जिस पर ‘बात नहीं हो सकती’। नि:संदेह यदि सरकार कानूनों में संशोधन करती तो उसे कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ता क्योंकि मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा इसकी कार्रवाइयों को संदेह से देखता है। 

सच कहें तो आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जो शरीयत कानूनों को लागू करने पर भी नजर रखता है, ने भी गत वर्षों के दौरान इस मुद्दे पर अपने रवैये में बदलाव किया है। शुरू में यह तीन तलाक को समाप्त करने के पूर्णतया खिलाफ था मगर बाद में इसका यह विचार बन गया कि तलाक लेने के लिए एक समुचित प्रक्रिया का पालन करना चाहिए। यहां तक कि इसने उन लोगों को सजा देने का भी प्रस्ताव दिया है जो एक साथ तीन बार तलाक शब्द बोलकर प्रावधानों का ‘दुरुपयोग तथा उन्हें गलत परिभाषित’ करते हैं। दरअसल इसने यह भी सुझाव दिया है कि ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाना चाहिए। हालांकि यह स्पष्ट है कि इस प्रथा का दुरुपयोग किया जा रहा था। इस  प्रकाश में सुप्रीमकोर्ट इस आदिमकालीन प्रथा के खिलाफ निर्णय लेने के लिए साहसिक तथा समय पर उठाए गए कदम के लिए प्रशंसा की हकदार है।

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