देश के लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और संघीय ढांचे को खतरा
punjabkesari.in Tuesday, Oct 15, 2024 - 05:10 AM (IST)
आजादी के बाद देश के सामने आई कई कठिनाइयों और कमजोरियों के बावजूद भारत में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक परंपराओं को कायम रखा जा रहा है। इन्हीं परंपराओं का आशीर्वाद है कि बहुधार्मिक, बहुजातीय, विविध संस्कृति, भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले लोगों का हमारा देश आज भी एकजुट है और अपनी रक्षा के मामले में कई देशों से अधिक सक्षम है।
हमारी तुलना में, पाकिस्तान की धर्म-आधारित गैर-लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था, जिसने गरीब लोगों को भुखमरी के कगार पर छोड़ दिया है, हमारे लिए सीखने के लिए एक बड़ा सबक है। हालांकि, बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि उपर्युक्त महान परम्पराओं के कारण ही भारत आज जिस उच्च स्थान पर पहुंचा है, आज उसकी नींव को कमजोर करने की तैयारी हो चुकी है। देश के लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और संघीय ढांचे को उन ताकतों से बहुत खतरा है जो भारत को धर्म आधारित, कट्टरपंथी-पिछड़ा देश बनाकर तीव्र जाति-पाति और लैंगिक भेदभाव वाली अलोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
एक खास तरह के संगठन और उससे जुड़े संगठनों के नेता आए दिन अपने ही देशवासियों के लिए काल्पनिक खतरा पैदा कर बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय को अपनी रक्षा के लिए हथियार उठाने के लिए उकसाते हैं। ये बदनाम समूह एक विशेष धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय को देशद्रोही, आतंकवादी, उग्रवादी, घुसपैठिया, भारतीय संस्कृति का दुश्मन और अन्य बातें बोलकर समाज की नजरों में नफरत का पात्र बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी शासन व्यवस्था तभी मजबूत रह सकती है जब प्रत्येक नागरिक को सरकार से असहमत होने का अधिकार हो तथा लिखने, बोलने एवं अन्य माध्यमों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो। साथ ही कानून एवं व्यवस्था की मशीनरी को सरकार के दबाव एवं हस्तक्षेप से मुक्त होकर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को निर्भीक होकर पूरा करना होगा।
इसके अलावा, प्रत्येक संस्था और सरकारी पद पर बैठा कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, संविधान के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। ऐसे ढांचे में, लोगों के राज्य का चौथे स्तंभ, यानी ‘पिं्रटिंग और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया’ की स्वतंत्रता और निष्पक्षता जरूरी है। यह बहुत जरूरी है कि सोशल मीडिया को भी इसी भावना से संचालित किया जाना चाहिए। यदि किसी भी लोक राज्य संरचना में लोगों के दिल और दिमाग सभी प्रकार के नाजायज दबाव और प्रतिशोध से मुक्त नहीं हैं, तो लोकतंत्र की वास्तविक अवधारणा गायब हो जाती है।
इन सबके अलावा, लोकतांत्रिक व्यवस्था में समय-समय पर विभिन्न स्तरों पर चुनाव कराना भी एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है ताकि देश के सभी नागरिक बिना किसी लालच, भय, दबाव और भेदभाव के अपने विवेक के अनुसार मतदान कर सकें। तदनुसार, वे अपने वोट के अधिकार का उपयोग करके अपनी पसंद की सरकार या प्रतिनिधि चुन सकते हैं। इसके लिए देश के संविधान में आवश्यक कानून भी है और प्रक्रिया भी दर्ज है। चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी तरीके से संचालित करते हुए देश की नींव को बनाए रखना और मजबूत करना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है। हालांकि, यह बेहद चिंता का विषय है कि देश में सभी स्तरों के चुनावों में लोकतांत्रिक ढांचे की नींव लगातार कमजोर हो रही है।
लोकसभा चुनाव में प्रत्येक उम्मीदवार के लिए 95 लाख, विधानसभा के लिए 40 लाख और पंचायत चुनाव के लिए 40 हजार रुपए खर्च करने की सीमा तय की गई है। लेकिन क्या लोकसभा और निचली संस्थाओं में ऐसा हो रहा है? मतदाताओं को लुभाने के लिए उम्मीदवारों द्वारा नशीली दवाओं, धन और उपहारों के वितरण जैसी अवैध गतिविधियों पर बेशुमार धनराशि खर्च की जाती है। शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दल चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान विज्ञापनों के माध्यम से पैसा खर्च करते हैं।सत्ता हासिल करने के लिए धर्म-जाति-क्षेत्र-भाषा आदि अंधराष्ट्रवादी मुद्दों का दुरुपयोग कर समाज में फूट डालना वर्तमान चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी समस्या है। यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि देश की स्वशासी संस्था, भारत निर्वाचन आयोग वास्तव में निर्वाचन प्रणाली की निष्पक्षता और दक्षता के प्रति मतदाताओं का विश्वास कायम रखने में विफल रही है।
अफसोस की बात है कि शासकों और नौकरशाहों के इस व्यवहार के कारण और गुरबत की हत्या के कारण पैदा हुए राजनीतिक-वैचारिक पिछड़ेपन के चलते, आम जनता के एक बड़े हिस्से ने आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाते हुए इन सभी अवैध और अपमानजनक प्रथाओं को स्वीकार कर लिया है। जब किसी गांव में एक अमीर आदमी सर्वसम्मति के नाम पर सरपंच बनने के लिए 2 करोड़ रुपए की बोली लगाता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘अमीर लुटेरे’ केंद्र से लेकर ग्रामीण स्तर तक हर सार्वजनिक संस्थान को नियंत्रित करते हैं। यदि यह रकम सच्चे परिश्रम से अर्जित की गई हो तो ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे धन का स्रोत काले कारोबार पर आधारित लूट की कोई मशीनरी है। इतना खर्च करके जीत हासिल करने वाले किसी भी व्यक्ति से जनसेवा की उम्मीद करना या ईमानदार बनकर अपनी उचित जिम्मेदारी निभाने के बारे में सोचना ‘मूर्खों के स्वर्ग में रहने’ के बराबर है।
प्रशासनिक मशीनरी, जिसका आज पूरी तरह से निजीकरण हो चुका है, आंखें मूंद कर संवैधानिक मानदंडों और अपने आकाओं यानी शासकों के सभी आदेशों की धज्जियां उड़ाती है। राजनीतिक दल भी समान रूप से दोषी हैं। पंजाब में पंचायत चुनावों के नामांकन भरते समय जिस तरह की गुंडागर्दी और नौकरशाही की सरकार समर्थक प्रवृत्ति देखी गई, उससे साबित होता है कि पंचायत चुनाव महज एक दिखावा और बड़ी भूलों पर आधारित धोखाधड़ी है। यह घटना लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। आज सभी लोकतांत्रिक और वामपंथी ताकतें आम लोगों को लामबंद कर रही हैं ताकि लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था लागू हो।-मंगत राम पासला