एक शब्द के बिना यह कहानी अधूरी

Saturday, May 21, 2022 - 05:41 AM (IST)

मैं पढ़ रहा हूं कि राजीव गांधी की हत्या के अपराधियों में से एक ए.जी. पेरारिवालन की मां अरपुथ्थम अम्माल को एक शब्द की तलाश है! एक ऐसा शब्द कि जिससे वे उन सबका आभार व्यक्त कर सकें जिन सबने उनके बेटे की 31 साल लम्बी कैद के दौरान उन्हें भरोसा, साहस, समर्थन और साधन दिए। 75 साल की मां अम्माल को किसी भाषा में वह एक शब्द नहीं मिला जिससे वे आभार की अपनी भावना को परिपूर्णता से प्रेषित कर सकें : 

‘‘एक ऐसे सामान्य व्यक्ति के समर्थन में खड़ा होने के लिए, जिसकी कोई खास पृष्ठभूमि नहीं है, न्याय के प्रति आपका गहरा जुड़ाव जरूरी है। जिस आदमी से वे लोग कभी मिले ही नहीं, कभी न देखा न बातें कीं, उसके लिए समय और शक्ति लगाना बताता है कि उनके मन में कितना प्यार व अपनापन भरा है...मैं उन एक-एक आदमियों तक पहुंच कर, उनका हाथ पकड़ कर अपना आभार व नमन बोलना चाहती हूं जिन्होंने 31 साल लम्बे मेरे संघर्ष के विभिन्न मोड़ों पर मेरा साथ दिया। 

यह करके भी मैं उस ऋण से उऋण नहीं हो सकती। बस एक ही शब्द है मेरे पास जिसे खुशी, प्यार व सम्मान के आंसुओं से भरी आंखों में मैं कह सकती हूं : आभार!’’ 75 साल की आयु जर्जर और 31 साल की कानूनी जंग में अपने अस्तित्व की बूंद-बूंदा जला कर क्षत-विक्षत हुई अम्माल अपने होने का ओर-छोर संभालती, 50 साल के अपने बेटे पेरारिवालन की बांह पर निढाल होती हुई कह सकीं... 

अम्माल की तरह मैं भी इस पूरे विवरण को एक शब्द में व्यक्त करने  के लिए एक उपयुक्त शब्द खोजता रहा और अंतत: मिला ही एक शब्द मुझे : मां!! मां के अलावा ऐसा कौन हो सकता है? हमारे सर्वोच्च न्यायालय को भी कोई एक शब्द नहीं मिला कि जिससे वे बता पाते कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के सिद्ध मामले में फांसी की सजा पाए पेरारिवालन को सजा और कैद से मुक्ति देते हुए वे हमारे संवैधानिक न्याय की किस धारा का पालन कर रहे हैं। न्यायमू्र्ति नागेश्वर राव, बी.आर. गंवाई और ए.एस. बोपन्ना की पीठ ने कहा : ‘‘संविधान की धारा 142 के अंतर्गत मिले अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए हम यह निर्देश देते हैं कि हमारी नजर में वादी ने अपने अपराध की सजा पा ली है। वादी, जो पहले से ही जमानत पर है, तक्षण से ही आजाद किया जाता है। जमानत की उसकी अर्जी भी अभी से निरस्त होती है।’’ 

पेरारिवालन को राजीव गांधी हत्याकांड में सीधा लिप्त पाया गया था और लम्बे मुकद्दमे के बाद टाडा अदालत में 28 जून 1998 को 26 अभियुक्तों को मौत की सजा सुनाई थी जिनमें पेरारिवालन भी थे।  11 मई 1999 को सर्वोच्च न्यायालय ने पेरारिवालन समेत चार अभियुक्तों की मौत की सजा को स्वीकृति दी थी। अगस्त 2011 में मद्रास उच्च न्यायालय ने फांसी पर रोक लगा दी। यहां से मां अम्माल ने बेटे को बचाने की वह मुहिम छेड़ी जो 24 साल बाद सफल हुई। अपनी साड़ी पर ‘फांसी की सजा खत्म करो’ का आह्वान लिख कर अम्माल देश भर की जेलों, अदालतों का चक्कर काटती रहीं और सबकी अंतर्रात्मा पर चोट करती रहीं। 

पेरारिवालन को भी कहने को वह शब्द नहीं मिल रहा था जिससे वे अपना मन खोल सकें। उन्होंने कहा, ‘‘अपने जीवन व न्याय के लिए मेरे पास मेरी मां ही एकमात्र आधार थीं’’ पेरारिवालन ने भी कहा कि फांसी की सजा पर कानूनन रोक लगनी चाहिए। जरूर ही लगनी चाहिए, क्योंकि मैं उन लोगों में हूं जो हमेशा से मानते हैं कि फांसी मनुष्य की सारी संभावनाओं को समाप्त कर देने वाला एक असभ्य चलन है।  

मेरे लिए इस प्रावधान की समाप्ति का समर्थन करना एकदम सहज व तर्कसंगत है। मैं जानता हूं कि अक्सर मनुष्य ऐसे अपराध करता है जिसके बाद उसका जीना घृणित हो जाता है। जब हम पाते हैं कि अपने अमानुषिक कृत्य के लिए उसके मन में पश्चाताप का कोई भाव भी नहीं जागता है तो लगता है कि इससे जीने का अधिकार छीन लेना चाहिए। पेरारिवालन स्वयं इसके उदाहरण हैं। 19 साल की उम्र में हत्या के अपराधी के रूप में अपनी गिरफ्तारी के बाद से अपने अच्छे व्यवहार, चाल-चलन के कारण, लगातार पढ़ाई में आगे बढ़ते जाने के कारण ही उनके मामले पर अदालत ने अलग से विचार किया। लेकिन पेरारिवालन से मैं पूछना यह चाहता हूं कि भाई मेरे यदि तुम फांसी की सजा खत्म करवाना चाहते हो तो क्या हत्या का अधिकार बरकरार रखना चाहते हो? 

कानून को किसी की जान लेने का हक न हो तो क्या व्यक्ति को किसी की जान लेने का हक होना चाहिए? जान बम से लो या कानून से, मान्यता यही मजबूत होती है न कि जान लेना गलत नहीं है फिर वह जान राजीव गांधी की हो या पेरारिवालन की, दोहरा मानदंड कैसे चल सकता है? 

पेरारिवालन की माफी व मां अम्माल की भावनात्मक अभिव्यक्ति की इस पूरी कहानी में मैं भी एक शब्द ही तो खीजता रहा। तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में 21 मई 1991 को जिस राजीव गांधी की जघन्य हत्या पेरारिवालन व उनके साथियों ने की, वे राजीव भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भर नहीं थे बल्कि एक भरे-पूरे परिवार के पिता-पति व जीवन केंद्र थे। उस हत्या ने पूरे परिवार को सन्निपात में झोंक दिया। वे उससे कैसे उबरे, कैसे जीवन का एक मकसद व रास्ता खोजा उन सबने वह सब अलग कहानी है। लेकिन एक सच्ची कहानी यह भी तो है कि राजीव गांधी परिवार ने खुद को इस तरह व इतना संभाला कि हत्यारों की इस पूरी टोली को अपनी तरफ से माफ कर दिया। किशोरी प्रियंका ने तब जेल में जाकर हत्या की दोषी नालिनी से मुलाकात की थी और परिवार की तरफ से उसे माफी के प्रति आश्वस्त किया था। 

पूरे परिवार का अपने पति-पिता के हत्यारों के प्रति अपना भाव फिर कभी नहीं बदला। जो बीत गया, उनके लिए बीत गया। क्या उस हत्या के लिए, उस परिवार के लिए 31 साल के लम्बे उतार-चढ़ाव को देखने-भोगने के बाद भी मां-बेटे के पास एक शब्द नहीं है? यह उनके किसी आंतरिक विकास का प्रमाण नहीं देता है। इस कहानी में एक शब्द छूट रहा है, अम्माल को या पेरारिवालन को यदि खोजे भी वह शब्द न मिल रहा हो तो मैं उनकी मदद करता हूं, वे आसमान की तरफ हाथ उठाए व उस अदृश्य से कहें : ‘‘माफी!...अपने कृत्य के लिए हमें अफसोस है’’ इस एक शब्द के बिना यह कहानी अधूरी व मलिन ही रह जाती है।-कुमार प्रशांत 
 

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