यह जनता का पैसा है, नेताओं का नहीं

punjabkesari.in Wednesday, Oct 29, 2025 - 03:55 AM (IST)

मतदाताओ सावधान! बिहार के धमाकेदार चुनावी तमाशे में अब दो हफ्ते से भी कम समय बचा है तो अपनी जेब ढीली करने के लिए तैयार हो जाइए क्योंकि पार्टियां और नेता लोकलुभावन योजनाओं से भरपूर चुनावी केक तैयार कर रहे हैं, जिसमें सभी के लिए स्वादिष्ट और लजीज मुफ्त चीजें भरी पड़ी हैं। राजनीतिक रियायतों को वोट प्रतिशत में बदलने की कोशिश में, जहां सामाजिक और आर्थिक उत्थान को वोट बैंक के राजनीतिक तराजू पर तौला जाता है। इस धारणा पर कि लोक-लुभावन घोषणाएं तर्कसंगत नीतियों और टिकाऊ कार्यक्रमों की तुलना में बेहतर चुनावी लाभ देती हैं। जिससे, ठोस आर्थिक समझ राजनीतिक चालबाजी के आगे झुक जाती है। आखिरकार, हमारा पैसा नेताओं का पैसा है!

एन.डी.ए. के जद-यू मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अगले 5 वर्षों में राज्य के युवाओं को 1 करोड़ रोजगार के अवसर प्रदान करने का वादा किया है। 1.2 करोड़ से ज्यादा महिलाओं को व्यवसाय शुरू करने के लिए 10,000 रुपए दिए गए हैं। बाकी जो महिलाएं व्यवसाय चलाना चाहती हैं, उन्हें 2 लाख रुपए दिए जाएंगे। वृद्धावस्था पैंशन 400 रुपए से बढ़कर 1100 रुपए हो जाएगी। भाजपा ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 75 लाख महिला लाभार्थियों को 10,000 रुपए वितरित करने के बाद अगले 5 वर्षों में एक करोड़ रोजगार देने का आश्वासन दिया है। जाहिर है, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मुफ्त ‘रेवड़ी संस्कृति’ पर रोक लगाने की बात को भुला दिया गया है। ‘इंडिया’ महागठबंधन राजद नेता तेजस्वी यादव ने घोषणा की- प्रत्येक परिवार को एक सरकारी नौकरी, जीविका दीदियों को 30,000 रुपए मासिक वेतन पर स्थायी नौकरी, मौजूदा ऋणों पर ब्याज माफ, पंचायती राज प्रतिनिधियों के भत्ते दोगुने, सार्वजनिक वितरण नैटवर्क में काम करने वालों का मार्जिन बढ़ाया जाएगा, पैंशन और 50 लाख रुपए का बीमा कवरेज दिया जाएगा।

एक विवादास्पद मुद्दा उठाते हुए नेताओं को खैरात बांटने के लिए पैसे कहां से मिलते हैं? जाहिर है, लोगों पर कर लगाकर। क्या हमारी मेहनत की कमाई का इस्तेमाल पाॢटयों के चुनावी वोट बैंक को बढ़ावा देने के लिए किया जाना चाहिए? क्या नेताओं, पाॢटयों को अपनी जेब से या अपने फंड से भुगतान नहीं करना चाहिए? क्या मुफ्त चीजें सबसिडी से अलग हैं? क्या ये अच्छी और बुरी हैं? कौन तय करता है?  यह सच है कि पाॢटयों को बिना किसी रोक-टोक के चुनावी दौड़ में लोक-लुभावन के रूप में देखा जाना जरूरी है क्योंकि मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनीतिक लॉलीपॉप को नजरअंदाज करना मूर्खता होगी। सही, सस्ते चावल, गेहूं या मुफ्त बिजली के आश्वासन को उचित ठहराया जा सकता है। क्या ऐसी रियायतें उस देश में जरूरी नहीं हैं जहां 70 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं, भूखे पेट फास्ट फूड की आकर्षक नीऑन लाइटों पर पलते हैं, चूहों से भरे बचे हुए खाने के लिए कूड़ेदानों में खोजबीन करते हैं और 60 करोड़ लोग रोजाना 50 रुपए से भी कम कमाते हैं। क्या नागरिकों का ध्यान रखना हमारे नेताओं का कत्र्तव्य नहीं है?

जरूर, लेकिन किसी को भी राजनीतिक बयानबाजी को हकीकत समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। हर तरह के राजनेता ‘गरीबों के लिए बेहतर सौदे’ के लिए जोर-जोर से चिल्लाते हैं। जो पानी चाहते हैं उन्हें वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम दिए गए हैं। जो नौकरी चाहते हैं उन्हें नरेगा दिया गया है। कर्ज में डूबे किसानों को कर्ज माफी मिली है। ज्यादा पेड़ मिले हैं न कि मनचाहे आम! स्पष्ट रूप से आर्थिक क्षेत्र में राजनीतिक वादों को विवेक की सीमा पार नहीं करनी चाहिए जहां यह अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने लगे। आर्थिक मंदी के खतरे को कोई नहीं देखता क्योंकि सबसे ज्यादा नुकसान गरीबों को होता है जिनके नाम पर मुफ्त चीजेें जायज ठहराई जाती हैं। दुख की बात है कि समितियों द्वारा व्यक्त विचारों के बावजूद, कोई भी एजैंसी सार्वजनिक धन की बर्बादी को रोक नहीं पाती।

स्पष्ट रूप से, हम विकास और प्रगति, बेहतर शैक्षणिक संस्थानों, स्वास्थ्य सेवाओं, अस्पतालों, बुनियादी ढांचे आदि के लिए कर देते हैं। मतदाताओं को मुफ्त मिठाइयां देकर नागरिक नेताओं पर निर्भर हो गए हैं, जिससे उनका सशक्तिकरण नहीं हो रहा है। नतीजतन, लोग नेताओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं। विडंबना यह है कि वोट के दबाव ने पाॢटयों के लिए एक बड़ी विडंबना को जन्म दिया है, जहां सीमित राजकोषीय संसाधनों को उन निवेशों से हटा दिया जाता है जो दीर्घकालिक रूप से गरीबों के लिए फायदेमंद हो सकते हैं। नतीजतन, घोषणापत्रों में नकद अनुदान को शामिल करके पार्टियां अपना पाखंड उजागर कर रही हैं । हर कोई ऐसी योजनाओं का इस्तेमाल करता है  लेकिन एक-दूसरे पर रेवडिय़ां बांटने का आरोप लगाता है जो भारत की खराब राजनीतिक मंशा की बजाय, प्रणालीगत और लक्षणात्मक रूप से टूटी हुई राजनीतिक अर्थव्यवस्था को रेखांकित करता है। भाजपा ने केंद्र द्वारा वित्त पोषित योजनाओं का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ कमाने के लिए करके इस मॉडल में महारत हासिल कर ली है। जब तक अर्थव्यवस्था में तेजी नहीं आती और निम्न वर्ग के लिए लाभकारी अवसर पैदा करने के लिए अपनी गतिशीलता में बदलाव नहीं आता, तब तक अधिक से अधिक कल्याणकारी योजनाओं की मांग जल्द ही कम होने की संभावना नहीं है। यह केवल समय की बात है जब यह राजनीतिक अस्तित्व की चाल सरकार की राजकोषीय क्षमताओं पर भारी पड़ जाएगी।-पूनम आई. कौशिश    


सबसे ज्यादा पढ़े गए