‘यह मोदी की भाजपा है’

Wednesday, Apr 18, 2018 - 02:10 AM (IST)

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही अब भारतीय जनता पार्टी में सब कुछ हैं। उन्होंने अपने एक करीबी सिपहसालार अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष के पद पर बिठा रखा है लेकिन लोगों की याद्दाश्त कमजोर है। पार्टी के संस्थापक अटल बिहारी वाजपेयी थे जो बाद में प्रधानमंत्री बने और कई पार्टियों के गठबंधन से बनी एन.डी.ए. की सरकार का नेतृत्व किया। 

कांग्रेस के खात्मे का करिश्मा गांधीवादी समाजवादी जय प्रकाश नारायण (जे.पी.) के नेतृत्व में हुआ। इतना मजबूत आंदोलन था कि सभी गैर-कांग्रेसी पाॢटयां एक मंच पर आ गईं। जनसंघ के पुराने सदस्यों ने इस बात का निश्चय कर रखा था कि आर.एस.एस. से उनका संबंध बना रहे। इसका मतलब था कि हिंदुत्व की विचारधारा पार्टी का सांप्रदायिक एजैंडा तय करेगी। जे.पी. के सैकुलरिज्म का लिबास हिंदू समर्थक जनसंघ को फिट नहीं होता था। यह जे.पी. ही थे जिन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासन से लडऩे के लिए इसे विपक्ष के गठबंधन में शामिल किया था। जे.पी. यह जानते थे कि जनसंघ आर.एस.एस. की एक राजनीतिक शाखा है लेकिन उन्हें वचन दिया गया था कि दोनों अलग हो जाएंगे। 

जब जनता पार्टी सरकार में आई तो जे.पी. ने जनसंघ के सदस्यों, जो जनता पार्टी और सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठ गए थे, पर जोर डाला कि वे आर.एस.एस. से अपना रिश्ता तोड़ लें। जे.पी. को पता था कि किस तरह उन्होंने ऐसा माहौल बना दिया था कि एक ङ्क्षहदू ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी। नाथूराम गोडसे ने गांधी के पैर छुए और उन्हें नजदीक से गोली मार दी। आर.एस.एस. पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। आर.एस.एस. प्रमुख एम.एस. गोलवलकर को गिरफ्तार कर लिया गया था लेकिन करीब साल भर बाद उन्हें इस आश्वासन के बाद रिहा कर दिया गया कि आर.एस.एस. चुनावी राजनीति में हिस्सा नहीं लेगा। यह अलग बात है कि वे यह छिपाते हैं कि वे मार्गदर्शन करने वाली शक्ति हैं। आज यह संगठन विधानसभा के भाजपा उम्मीदवारों का चयन करता है। लोकसभा चुनावों में यही होगा। 

आर.एस.एस. को लेकर दिया गया वचन जनता पार्टी में शामिल होने के लिए एक चाल साबित हुई। वचन को पूरा करने के बारे में जे.पी. के कई बार याद दिलाने का कोई असर नहीं हुआ। वह ऐसा कैसे कर सकते थे जब हिंदू राष्ट्र बनाने के तय उद्देश्य से आर.एस.एस. ने ही जनसंघ को जन्म दिया था? शुरू में, जनसंघ के सदस्यों ने जे.पी. को यह बताने की कोशिश की कि आर.एस.एस. वैसा नहीं है जैसा उसे समझा जाता है। जब संकट का समय आया तो उन्होंने आर.एस.एस. से संबंध तोडऩे से साफ मना कर दिया। जे.पी. को लगा कि उनके साथ धोखा किया गया लेकिन तब तक वह इतने बीमार हो गए थे कि जनसंघ को बेनकाब करने के लिए जनता के पास नहीं जा सकते थे। उन्होंने इसे सार्वजनिक जरूर कर दिया कि उनके विश्वास को तोड़ा गया है लेकिन अपने खराब स्वास्थ्य के कारण वह लाचार थे। 

जनता पार्टी के सदस्यों ने जब सदस्यता का सवाल उठाया तो जनसंघ के सदस्यों ने बाहर निकलना ही बेहतर समझा। दिलचस्प बात यह है कि उस समय तक जनसंघ, जो अब भाजपा है, ने वह विश्वसनीयता पा ली थी जो गांधी जी की हत्या के कुछ दशक बाद भी वह हासिल नहीं कर पाई थी। जनता पार्टी में 2 साल तक रहने और केन्द्र सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालयों को रखने से भाजपा को बहुत फायदा मिला। एक तरफ उन्होंने नए सदस्यों को भगवा रंग में रंगा, दूसरी तरफ उन्होंने सूचना और प्रसारण जैसे मुखर मंत्रालयों के लिए अपने लोग चुने। अब तो लगता है कि आर.एस.एस. इसे हर रोज चला रहा है। 

भाजपा ने समय-समय पर सकारात्मक रवैया अपनाया जिससे हिंदू बुद्धिजीवी भ्रम में पड़ गए। जब अटल बिहारी जैसे नेता केन्द्रीय भूमिका में थे तो वह संतुलन बनाने का काम करते थे और एक साथ दो घोड़ों की सवारी करते थे। अयोध्या-बनाम-बाबरी मस्जिद विवाद और अन्य मुद्दों के कारण 545 सीटों वाले सदन में मात्र 2 सीटें रखने वाली भाजपा 1991 में 181 सीटें जीत गई। फिर तो जे.पी. के करीबी समर्थकों को भी एन.डी.ए. में भाजपा से हाथ मिलाने का बहाना मिल गया ताकि वे ड्राइवर की सीट पर बने रह सकें। 

उस समय तक यह साफ हो गया था कि भाजपा अपना आधार बढ़ाने के लिए बेचैन थी। तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री एल. के. अडवानी ने राजनीतिक भाजपा और निरंकुश आर.एस.एस. के बीच के अंतर कम कर दिए थे। उन्होंने हिंदुओं को एक करने की पूरी कोशिश की, सबसे खतरनाक थी उत्तर भारत में की गई उनकी रथ यात्रा, जो सदियों से साथ रहने वाले हिंदुओं और मुसलमानों को विभाजित करने वाली थी। अडवानी दो समुदायों के बीच साफ रेखा खींचे जाने के नतीजों से इतने संतुष्ट थे कि उन्होंने अयोध्या की रथ यात्रा की तुलना गांधी की दांडी नमक यात्रा से कर डाली थी। प्रधानमंत्री मोदी हर बार बताते रहते हैं कि वह पार्टी से बड़े हैं। 4 साल के शासन के बाद भी यह साफ नहीं है कि वह देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं। माना कि हिंदुत्व का फीका रूप देश में फैल रहा है, लेकिन विंध्य मेंं यह प्रक्रिया रुक गई है। दक्षिण के राज्य इसमें पूरी तरह भागीदार होने की धारणा बनने देना नहीं चाहते हैं। 

एक बार फिर,हिंदी को लाने से वैसी ही समस्या पैदा हो रही है जैसी जवाहरलाल नेहरू के आखिरी दिनों में हुई थी। उस समय, उनके उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री ने सदन में आश्वासन दिया था कि हिंदी की ओर जाना सिर्फ गैर-हिंदी राज्यों पर निर्भर करता है जो यह कहें कि वे इस बदलाव के लिए तैयार हैं। यह मोदी पर निर्भर करता है कि वह किस तरह दो अलग धाराओं के बीच मेल-मिलाप कराते हैं। यह साफ है कि उन्हें हिंदी-भाषी राज्यों को कुहनी मार कर इशारा करना पड़ेगा। यह समय ही बताएगा कि वह कर पाते हैं या नहीं।-कुलदीप नैय्यर

Pardeep

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