पुलिस के लिए यह मुश्किल घड़ी

Friday, Aug 06, 2021 - 05:49 AM (IST)

सबसे पहले ही मुश्किल समय में रह रहे हैं लेकिन यह असामान्य भी बन रहा है। पुलिस, जिसे पहले पत्थरबाजों से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया गया था अब देश में पड़ोसी राज्यों की पुलिस के साथ झगड़ों के लिए भी तैयार करने की जरूरत आ खड़ी हुई है। मुझे पहले का कोई ऐसा घटनाक्रम याद नहीं है जब सीमांत राज्यों में पुलिसकर्मियों ने एक-दूसरे पर बंदूकें तानी हों। जैसा कि असम के मुख्यमंत्री ने दावा किया है, मिजोरम पुलिस ने अचानक हमला करके अपनी मशीनगनों से असम के 6 पुलिस कर्मियों की जान ले ली। 

इससे पहले कभी भी किसी राज्य की पुलिस को पड़ोसी राज्य के अपने भाइयों से ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिला में गाधिंगलाज के एक सब डिवीजनल पुलिस अधिकारी के तौर पर मुझे बेलगाम जिला जो अब कर्नाटक में है, में निपानी के बीच से अपने अधिकार क्षेत्र में आते क्षेत्रों में सड़क मार्ग से जाना पड़ता था। मैं समझता हूं कि गाधिंगलाज के वर्तमान एस.डी.पी.ओ. वही कर रहे हैं जो मैं 1955 में करना चाहता था, और इस मामले में अब सशस्त्र एस्कार्ट की जरूरत होती यदि महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा पर असम मिजोरम जैसे संघर्ष की इजाजत दी जाती। 

सी.आर.पी.एफ. में तैनाती के दौरान मैं दो बार मिजोरम गया। सिल्चर में एक छोटे हवाई अड्डे से आइजॉल के लिए सड़क वैरेंगटे से होकर गुजरती थी, यह नगर अब समाचारों में है। यह एक थका देने वाली यात्रा थी। मगर किसी भी समय हमें मिजो पुलिस द्वारा हमले के लिए तैयार रहने की जरूरत नहीं थी। हाल ही में गत सप्ताह जो गोलीबारी हुई उसके बीज कब फूटने शुरू हुए मुझे इसकी जानकारी नहीं।

हमें जो बताया गया वह यह कि केंद्रीय गृहमंत्री माननीय अमित भाई शाह ने ‘सैवन सिस्टर्स’ (उत्तर-पूर्व के 7 राज्य) के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई थी और उन्हें अपने सभी मतभेद सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझाने की चेतावनी दी थी। 3 दिन बाद असम पुलिस ने सीमांत जिले कचार तथा मिजोरम पुलिस ने सीमांत जिले वैरेंगटे के बीच भूमि के एक टुकड़े,  जिस पर वे अपना-अपना दावा जता रहे थे, के चिरलंबित विवाद को लेकर एक-दूसरे पर बंदूकों के मुंह खोल दिए। 

मैं अनुमान लगा सकता हूं कि अमित जी को झटका लगा होगा, अपमान महसूस हुआ होगा और यहां तक कि भाजपा शासित राज्य की गलती पर गुस्सा भी आया होगा जब भाजपा शासित एक अन्य राज्य के पुलिसकर्मी एक-दूसरे पर इस तरह असली गोलियां बरसा रहे थे जैसे हमारी पश्चिमी सीमाओं पर एल.ओ.सी. के आर-पार कई बार भारतीय तथा पाकिस्तानी सेनाएं या बी.एस.एफ. तथा पाक रेंजर्स बरसाते हैं। यदि देश के गृहमंत्री यह सोचते थे कि उनकी कड़ी चेतावनी ऐसे इरादों के समाधान के लिए पर्याप्त थी तो यह उनकी गलती थी। संभवत: यदि मिजोरम की सरकार उनकी अपनी खुद की पार्टी की सहयोगी नहीं होती तो उनके लिए उसे हड़काना आसान होता। 

अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं पर सशस्त्र झड़पें सामान्य हैं लेकिन देश के भीतर ही दो राज्यों की सीमाओं पर नहीं। अमरीका में लगभग 50 राज्यों पर डैमोक्रेट्स की सत्ता है जबकि बाकियों पर रिपब्लिकन्स की। मैंने कभी भी वहां दो पड़ोसी राज्यों के बीच सशस्त्र संघर्षों के बारे में नहीं सुना, चाहे उन पर दो विपक्षी सरकारों का शासन हो। ऐसी स्थिति में कमी लाने का कभी प्रयास नहीं किया गया यहां तक कि जब दिल्ली में कांग्रेस अथवा अन्य का शासन था।

दो राज्यों के बीच सीमा विवाद मोदी-शाह सरकार के कंधों पर नहीं थोपा जा सकता लेकिन दिल्ली पुलिस आयुक्त के तौर पर राकेश अस्थाना की नियुक्ति के अनावश्यक विवाद से बचा जा सकता था। प्रशासन के अच्छी तरह से स्थापित नियमों के मुताबिक सरकार को ए.जी.एम.यू.टी. काडर से किसी अधिकारी को चुनना चाहिए था। गुजरात से किसी बाहरी व्यक्ति को लाना दिल्ली पुलिस के लिए बहुत हतोत्साहित करने वाला हो सकता है। ऐसा दिखाई देता है कि मोदी तथा शाह ने अस्थाना को खुश किया है। वे उन्हें दिखाना चाहते थे कि वे उनके आभारी हैं जबकि अन्य उपकृत करने में असफल रहे हैं। 

जब मैंने पंजाब में 1989 में अपने सफर के अंत में राजदूत बनने के एक प्रस्ताव को शुरू में ठुकरा दिया, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव बी.जी. देशमुख ने प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए मनाने की खातिर मुझे अपने घर पर बुलाया। मेरी पत्नी भी आमंत्रित थी।  देशमुख की पत्नी और मेरी पुणे में क्लासमेट थीं और इसलिए उसने भी मनाने के कार्य में सहयोग दिया। दरअसल मेरी पत्नी को मुझसे भी अधिक मनाने की जरूरत थी। उसकी अपनी बेटियों से दूर किसी विदेशी तैनाती में रुचि नहीं थी। 

देशमुख द्वारा यह तर्क दिया गया कि कठिन कार्यों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री को अनुकूल अधिकारी मिलना कठिन हो जाएगा जबकि मेरे सहयोगियों का यह मानना था कि राजनीतिज्ञ अधिकारियों का केवल इस्तेमाल करते हैं व जब उनकी जरूरत नहीं होती तो उन्हें खुड्डेलाइन लगा दिया जाता है। मुझे सच में नहीं पता कि राकेश अस्थाना ने शीर्ष नेतृत्व को क्या विशेष सेवाएं दीं लेकिन मैं उनकी राकेश को यह महसूस कराने की उत्सुकता समझ सकता हूं कि उसकी जरूरत है। अब ऐसा कुछ नहीं है जो वह उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों की जांच बारे कर सकते हैं। मामले अब अदालत में हैं और उनका निर्णय उन लोगों द्वारा किया जाएगा जिन पर न्याय देने की जिम्मेदारी है। 

आंदोलनकारी किसानों के साथ उस तरह से नहीं निपटा जा सकता जैसे आमतौर पर आलोचकों अथवा कार्यकत्र्ताओं के साथ व्यवहार किया जाता है। अब कैसे कोई पुलिस अधिकारी इसमें मदद कर सकता है?  यदि वह राज्य की ओर से कोई भय फैलाने की कोशिश करता है तो वह आत्मविनाशकारी होगा और राकेश की पहचान अपराध की जांच में उनके कौशल के लिए है न कि शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए जो हिंसक हो जाते हैं।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी.ऑफ पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)

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