कई मायनों में अभूतपूर्व है यह ‘आंदोलन’

punjabkesari.in Monday, Jan 20, 2020 - 02:19 AM (IST)

मेरी उम्र 50 साल है और मैंने आजतक इतना बड़ा आंदोलन कभी नहीं देखा जितना कि नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तथा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के खिलाफ किया जा रहा है। यह उन सबसे काफी अलग है जो कुछ आज तक हमने देखा है।

इंदिरा का आपातकाल
मैंने कई बड़े-बड़े आंदोलन देखे हैं। मेरे जहन में आपातकाल की धुंधली यादें हैं। मुम्बई में हमारे विले पार्ले (पूर्वी पड़ोस) में कुछ हलचल हुई थी लेकिन यह ज्यादा समय तक नहीं रही। इस क्षेत्र में गलियों में ज्यादा संख्या में लोग नहीं थे। मुझे याद है जनता पार्टी के लोग एक पीले रंग की बुकलैट बांट रहे थे जिसमें इंदिरा गांधी सरकार द्वारा किए गए अत्याचार का वर्णन था जो जाहिर तौर पर उसने  अपने विरोधियों पर किया था। एक पेज पर सिगरेट से जलाए हुए व्यक्ति की ड्राइंग थी। आपातकाल में ज्यादातर अत्याचार कांग्रेस के राजनीतिक विरोधियों और मीडिया पर किया गया। राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाला गया और मीडिया पर सैंसरशिप लगाई गई। यह राजनीतिक लड़ाई थी जो सत्ता के लिए लड़ी गई, जिसमें मोटे तौर पर नागरिकों को नहीं छेड़ा गया। भारतीय मध्यम वर्ग आमतौर पर तानाशाहों का साथ देता है और वह सामान्य तौर पर इंदिरा गांधी की तरफ था। इस वर्ग के पास आपातकाल की कोई बुरी यादें नहीं हैं। 

आंदोलन का अगला दौर आपातकाल के एक दशक बाद आया और यह मंडल के बारे में था। लेकिन मंडल से पहले गुजरात (उस समय मैं सूरत में रह रहा था) में 1985 में एक आंदोलन हुआ जो आरक्षण के खिलाफ था और शहरी मध्यम वर्ग,  मेरे दोस्तों सहित घर-घर गए तथा दलितों के खिलाफ संदेश दिया। बेशक, प्रदर्शनकारी सवर्ण थे। जैसा कि गुजरात में अक्सर होता है, यह आंदोलन दंगे में बदल गया और बिना किसी कारण के मुसलमानों को दंडित किया गया। 

मंडल आंदोलन
इसके कुछ साल बाद मंडल को लेकर आंदोलन हुआ। इस दौरान दो तरह के प्रदर्शनकारी थे, जिनमें से कुछ आरक्षण के पक्ष में थे और कुछ विरोध में क्योंकि मंडल सवर्णों को मजबूत बनाता था (बहुत से भारतीय इस बात को नहीं समझते कि ओबीसी में सी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है न कि जाति का)ऐसे में वे काफी लोगों को आंदोलन में शामिल करने में कामयाब रहे। जितना कि दलित नहीं कर सकते थे। और उच्च जातियां इस बात का विरोध कर रही थीं कि उनके एकाधिकार को खतरा पैदा हो रहा है। गोस्वामी नामक एक व्यक्ति ने खुद को आग लगा ली और वह एक प्रकार से हीरो बन गया। इसी समय के दौरान एक और आंदोलन हुआ और यह सबसे खतरनाक था। यह आंदोलन बाबरी मस्जिद को लेकर था। एल.के. अडवानी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उनकी रथ यात्रा के रास्ते में कोई हिंसा नहीं हुई। लेकिन देशभर में पड़ोसी स्थानों पर काफी हिंसक आंदोलन हुए और एक बार फिर मुसलमानों को दंडित किया गया। मस्जिद को गिराए जाने के बाद 2000 भारतीयों की मौत हुई। 

ढांचा गिराए जाने से पहले काफी लम्बा आंदोलन चला लेकिन वह वर्तमान के आंदोलन की तरह नहीं था और हम जानेंगे कि ऐसा क्यों था। आप जानते हैं कि भारत में लगभग सभी आंदोलन व्यक्तिगत कारणों से हुए हैं। मंडल और मंदिर को लेकर आंदोलनकारी स्वयं के लिए आंदोलन कर रहे थे। कोई आरक्षण से सहमत हो या न हो लेकिन सच्चाई यह है कि आंदोलन में शामिल दोनों तरफ के लोग अपने-अपने हितों के लिए खड़े थे। इस आंदोलन से पहले कभी भी संविधान के पक्ष में इतना बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। इरोम शर्मिला ने संविधानवाद और मानवाधिकारों के समर्थन में लम्बा आंदोलन किया था। इस समय जारी आंदोलन में लाखों भारतीय कुछ मूल्यों के लिए आगे आए हैं न कि व्यक्तिगत लाभ के लिए। 

क्या चाहते हैं प्रदर्शनकारी
बहुत से प्रदर्शनकारियों की (मेरी तरह) सरकार को गिराने या उसकी छवि खराब करने में कोई रुचि नहीं है। यह चुनी हुई सरकार है और अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा करेगी और यदि मोदी दोबारा चुनाव जीतते हैं तो वह तीसरी बार भी प्रधानमंत्री रहेंगे। इस आंदोलन का यह उद्देश्य नहीं है और न ही यह हमारी चिंता है। इस समय जिस चीज का विरोध हो रहा है और जिसे वापस लेने की मांग की जा रही है वह वही कानून है जो साफ तौर पर भेदभावपूर्ण है तथा भारतीय संविधान और उन संधियों व समझौतों का उल्लंघन करता है जो भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साइन किए हैं। यह सच है कि बहुत से प्रदर्शनकारी मुसलमान हैं जिन्हें इस बात का डर है कि उनके अधिकार उनसे छीने जा रहे हैं। उनका डर जायज है। 

लेकिन यहां भी वे कोई नई चीज नहीं मांग रहे हैं सिवाय इसके कि उनके पास जो कुछ पहले से है वह बरकरार रहना चाहिए। ये लोग आरक्षण नहीं चाहते और न ही मंदिर चाहते हैं और न ही उनकी कोई और मांग है सिवाय इसके कि उन्हें परेशान न किया जाए। यही कारण है कि यह प्रदर्शन अलग तरह का है और यही कारण है कि इस प्रदर्शन ने पहली बार भारतीय सरकार को अनिश्चितता की स्थिति में डाल दिया है कि वह आगे क्या करे। आने वाली स्थितियां उसके नियंत्रण में नहीं हैं जोकि चिंताजनक है। यही कारण है कि दुनिया इस चीज का नोटिस ले रही है और वह मोदी पर दबाव डाल रही है। यह केवल महातिर मोहम्मद और अमरीकी सांसद प्रमिला जयपाल ही नहीं हैं जो मोदी को नागरिकता तथा कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसे रोकने के लिए कह रहे हैं। भारत पर यह आरोप लग रहा है कि वह अपने ही नागरिकों को प्रताडि़त कर रहा है और उसके पास इस आरोप के बचाव में कोई तर्क नहीं है। 

हकीकत को समझें नेता
इस तथ्य को स्वीकार करने कि यह आंदोलन नैतिक और वैध है तथा  इस कानून और प्रस्तावित सर्वे को वापस लेने से ही यह प्रदर्शन खत्म होगा। आशा की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री, जोकि दोनों  तीक्ष्ण  बुद्धि सम्पन्न राजनेता हैं, इस बात को समझेंगे और उचित निर्णय लेंगे।-आकार पटेल


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