रियो को भूल कर टोक्यो के बारे में सोचें

punjabkesari.in Wednesday, Aug 24, 2016 - 12:28 AM (IST)

ओलिम्पिक में भारत एक रजत व एक कांस्य पदक छोड़ कोई अन्य पदक नहीं जीत पाया। वास्तव में यह शर्म की बात है। भारत से बड़ी उम्मीदें थीं लेकिन उपलब्धि अपेक्षा से बहुत कम रही। हॉकी, जिसे हमने पश्चिम को सिखाया, अब इस उपमहाद्वीप से गायब हो चुकी है। खेल को ज्यादा आकर्षक बनाने के नाम पर नियमों में किए गए बदलाव के बाद पश्चिम ने हॉकी पर एकाधिकार स्थापित कर लिया है, लेकिन सिर्फ नियमों में किए गए बदलावों को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। हमारे खिलाडिय़ों के पतन का मूल कारण उनमें आत्मशक्ति एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव रहा है।

महिलाओं का प्रदर्शन पुरुषों की तुलना में बेहतर रहा है जबकि इसके लिए कड़ी मेहनत की जरूरत होती है। अगले कुछ वर्षों में हमारा प्रदर्शन उन छोटे देशों से भी खराब हो जाएगा  जो दुनिया के नक्शे पर महज बिन्दु भर हैं। आबादी के हिसाब से भारत ओलिम्पिक पदक के मामले में सबसे निचले पायदान पर है। इसके कई और कारण हैं।

भारत में 1500 करोड़ रुपए के केन्द्रीय खेल बजट के अलावा मोटे तौर पर प्रत्येक राज्य का 250 करोड़ का बजट है। कुछ राज्यों में खेल की आधारभूत संरचनाएं मौजूद हैं, लेकिन उनका सही रख-रखाव और नियमित इस्तेमाल नहीं होता। राज्यों एवं केन्द्र का खेल के प्रति समग्र रूप में कोई नजरिया नहीं है। नतीजा है कि खेल बजट का महज एक मद होता है, लेकिन किसी भीखास खेल में बेहतरी के नजरिए से कुछ नहीं किया जाता।

क्रिकेट आगे बढ़ा है, क्योंकि इसे लेकर जनता ठीक उसी तरह दीवानी है जिस तरह कुछ साल पहले हॉकी को लेकर थी। यह सिर्फ इस हकीकत को दर्शाता है कि खेल को लेकर कोई सही योजना या वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है। मास्को खेल प्रतियोगिता 1980 तक हॉकी भारत का प्रतिष्ठित खेल था, जब भारत ने 8वीं और अंतिम बार हॉकी का स्वर्ण पदक जीता था। इसके बाद लगातार गिरावट आती गई और आज तक भारत किसी ओलिम्पिक में सैमीफाइनल तक भी नहीं पहुंच पाया।

इसके विपरीत भारत ने 1983 में पहली बार क्रिकेट का विश्व कप जीता और इसके बाद क्रिकेट लगातार उत्थान पर ही रहा। आज क्रिकेट ने अनेक अवसर एवं हस्तियां उपलब्ध कराई हैं, जिसके चलते क्रिकेट और भी अधिक लाभप्रद हो गया है। भारत में धर्म के बाद सबसे ज्यादा उन्माद क्रिकेट को लेकर ही है। चूंकि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड बहुत अधिक पैसा कमा रहा है, इस कारण क्रिकेट को सरकारी सहायता की कोई जरूरत नहीं है।

लेकिन इसके साथ ही क्रिकेट समेत दूसरे खेलों में बहुत अधिक राजनीति घुस गई है। प्रत्येक खेल के राष्ट्रीय फैडरेशनों में किसी न किसी पद पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता काबिज हैं और क्रिकेट भी इसका अपवाद नहीं है। खेलों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा है क्योंकि राजनीतिज्ञ इनका इस्तेमाल अपने नाम एवं शोहरत के लिए कर रहे हैं।

खेद की बात है कि पैसे का इंतजाम करने के लिए आज हर खेल फैडरेशनों द्वारा कुछ मंत्रियों या बड़े नौकरशाहों की मदद ली जा रही है। इसके एवज में राजनीतिज्ञ खेल फैडरेशनों में पद हथिया कर रुतबा और अहमियत हासिल करते हैं। दूसरे शब्दों में इससे दोनों का हित सध रहा है।

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बी.सी.सी.आई.) एवं इसके कामकाज पर जस्टिस लोढा पैनल की रिपोर्ट के आलोक में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आंखें खोलने वाला है। पैनल की अनुशंसाएं लागू की जाएं तो बी.सी.सी.आई. या किसी दूसरे खेल फैडरेशनों के पदों पर राजनीतिज्ञों एवं बड़े नौकरशाहों के काबिज होने पर रोक लगेगी। यह हर कोई जानता है कि व्यवस्था चाहे जो भी हो शरद पवार, अरुण जेतली, फारूक अब्दुल्ला, राजीव शुक्ला जैसे कई लोग इसके अभिन्न अंग बने रहते हैं। ये लोग चूंकि अधिकारियों या दूसरे स्रोतों से पैसा ला सकते हैं इसलिए वे यहां बने हुए हैं।

अगर ये लोग पद छोड़ दें और सरकार द्वारा बहुत कम वित्तीय सहायता मिले तो इन फैडरेशनों के पास पैसे का इंतजाम करने के लिए कौन-सा तंत्र होगा? खेलों के लिए कार्पोरेट से आॢथक सहायता बहुत ही कम है। सिर्फ क्रिकेट इसका अपवाद है लेकिन सबसे बड़ी कमजोरी ग्रामीण  भारत में खेलों के विकास का नहीं होना है। यह वह जगह है जहां अपरिपक्व प्रतिभाएं बहुतायत में होती हैं, लेकिन उन्हें खोजने-तलाशने का सही उपाय नहीं है।

पुन: खेदजनक है कि भारत में कोई खेल संस्कृति नहीं है। जूनियर सैक्शन में अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन के लिए खेल फैडरेशनों को जो भी थोड़ा-बहुत पैसा मिलता था उसे सरकार ने बंद कर दिया है। सरकार के इस निर्णय ने फैडरेशनों की मुश्किलें और बढ़ा ही दी हैं। युवा प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त मदद के बगैर सरकार श्रेष्ठ प्रदर्शन की उम्मीद कैसे करती है? ओलिम्पिक में भाग लेने वालों के लिए सिर्फ 300 करोड़ आबंटित कर देने, और वह भी रियो से सिर्फ 3 माह पहले, से काम नहीं चलनेवाला।

सिर्फ लगातार प्रयास एवं सुसंगत तरीके से लम्बे समय तक कोष उपलब्ध कराने से पदक पाने में मदद मिल सकती है। चीन का उदाहरण देखें। यह प्रतिभाओं को बहुत कम उम्र में चुन लेता है और इन लड़के-लड़कियों को ओलिम्पिक में पदक हासिल करने लायक बनाने के वक्त तक मदद करता है। इन युवा प्रतिभाओं को ज्यों ही नैशनल सैंटर में दाखिल किया जाता है उनकी जवाबदेही सरकार की हो जाती है और उन्हें किसी बात की ङ्क्षचता नहीं करनी पड़ती। यहां तक कि अपनी शिक्षा के बारे में भी नहीं। लेकिन भारत में हम खेलों की कीमत पर शिक्षा की ओर ध्यान देते हैं।

पदकों के लिए मोहताज देश के लिए लंदन में हमने 6 पदक जीते। दीपा कर्माकर का बेहतरीन प्रदर्शन देखने को मिला। वह पहली जिमनास्ट बनी जिसे ओलिम्पिक में जगह मिली। ओलिम्पिक में उसे चौथा स्थान मिलना पदक जीतने से कम नहीं है, क्योंकि त्रिपुरा में बहुत कम सुविधाओं के साथ उसे प्रशिक्षण मिला था।

भविष्य की ओर देखते हुए भारत  को ओलिम्पिक में गौरव हासिल करने के रास्तों एवं साधनों के  बारे में सोचना चाहिए। भारत को कुछ खेलों की युवा प्रतिभाओं को चुन कर उन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए  न कि जो भी थोड़ा-बहुत पैसा है उसे अनाप-शनाप तरीके से ओलिम्पिक के सभी 28 खेलों पर खर्च कर देना चाहिए। इसके अलावा, सरकार एक खेल नीति बना सकती है।

यह खेल नीति मौजूदा नीति से अलग होनी चाहिए, जो खिलाडिय़ों को करियर सुनिश्चित करने की गारंटी प्रदान करे। टुकड़े-टुकड़े में प्रोत्साहन देकर हम पदक नहीं जीत सकते और हमें अगले ओलिम्पिक के 6 माह पहले मुआयना करना चाहिए कि तैयारियों  में हमने कहीं देर तो नहीं की है, जैसा कि अब तक होता रहा है। आएं, रियो कोभूल जाएं और टोक्यो के बारे में सोचें और आज से ही तैयारी शुरू कर दें। 

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