वामपंथियों के लिए गम्भीर चुनौती हैं ये चुनाव परिणाम

Friday, Jun 07, 2019 - 04:42 AM (IST)

2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा तथा इसके सहयोगियों ने भारी बहुमत से सफलता हासिल की है। भाजपा विरोधी पाॢटयां केवल तमिलनाडु, केरल तथा पंजाब में ही भगवा ब्रिगेड के विजयी रथ को एक हद तक रोकने में सक्षम रही हैं। केरल में भाजपा की हार कांग्रेस की जीत से हुई है, जबकि यहां शासक वाम लोकतांत्रिक मोर्चे में शामिल पक्षों को भारी नुक्सान उठाना पड़ा है। 

भाजपा ने गत वर्ष राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से हुई हार को हालिया संसदीय चुनावों में दोबारा बड़ी जीत में परिवर्तित कर लिया है। इसके साथ ही पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, महाराष्ट्र तथा उत्तर-पूर्वी प्रांतों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) की विचारधारा तथा संगठन के बलबूते भाजपा का बड़ा जनाधार बनना देश के लोकतांत्रिक हलकों में काफी ङ्क्षचता का विषय बना हुआ है। 

सरमाएदार-जागीरदार वर्गों की अन्य राजनीतिक पाॢटयों की भाजपा के हाथों हुई इस भारी पराजय के साथ-साथ इन चुनावों में देश के वामपंथियों की जो दुर्दशा हुई है, वह भी बहुत निराशाजनक तथा दुखदायी है। केवल 5 वामपंथी उम्मीदवारों को ही इन चुनावों में जीत हासिल हुई है। इनमें से भी 4 तमिलनाडु से जीते हैं जहां कांग्रेस, द्रमुक तथा वाम दलों का गठजोड़ था। एक उम्मीदवार ही कम्युनिस्ट लहर के मजबूत गढ़ केरल से जीत हासिल कर सका है। वाम मोर्चे की प्रमुख सांझेदार पार्टी माकपा, जिसने लगभग 4 दशकों तक पश्चिम बंगाल तथा त्रिपुरा में वाम तथा लोकतांत्रिक मोर्चे की सरकारों का नेतृत्व किया है, द्वारा पश्चिम बंगाल में खड़े किए गए उम्मीदवारों में से केवल एक ही अपनी जमानत बचा सका है। ऐसे माहौल में किसी जीत की आशा करना मृगतृष्णा वाली बात ही कही जा सकती है। 

पश्चिम बंगाल में तो वाम मोर्चे का वोट प्रतिशत भी 2014 में 29.7 प्रतिशत के मुकाबले इस बार कम होकर मात्र 7.46 प्रतिशत रह गया है। याद रखने योग्य यह भी है कि वाम मोर्चे की जितनी वोटें कम हुई हैं लगभग उतनी ही भाजपा की वोटों में वृद्धि हुई है। देश के बाकी राज्यों में भी वोटों के रूप में वाम दल कोई सम्मानजनक समर्थन जुटाने में सफल नहीं हो सके। वाम दलों के जनाधार के क्षरण का बड़ा कारण लोगों के निम्न राजनीतिक तथा विचारात्मक स्तर तथा देश की ठोस हालत को न समझने की कमजोरी में छुपा है। 

कम्युनिस्ट पार्टियां पूंजीवादी व्यवस्था के संकट तथा इसके जनविरोधी किरदार का सही मूल्यांकन करने के बावजूद इस व्यवस्था बारे लोगों की समझदारी के स्तर को अंतरमुखता के आधार पर ले रही थीं, जबकि वास्तविकता यह है कि भारतीय लोगों का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी पूंजीवादी व्यवस्था को दुख-दर्दों का असल कारण नहीं समझता। वह केवल शासक पक्ष की प्रतिनिधि राजनीतिक पार्टियों के बदलाव के माध्यम से इसी व्यवस्था की सीमाओं के भीतर ही अपनी मुक्ति का रास्ता तलाश रहा है। 

जब एक राजनीतिक पक्ष या धड़े से लोगों का मोहभंग हो जाता है तो वे इसी राजनीतिक व्यवस्था के समर्थक किसी अन्य राजनीतिक पक्ष के पिछलग्गू बन जाते हैं। जरा-सी मिल रही वित्तीय सुविधाओं को भी वे शासकों द्वारा अपने ऊपर किए गए बड़े अहसान के तौर पर स्वीकार कर लेते हैं जबकि हकीकत यह है कि लोगों को दी जाती ऐसी राहत उनसे की जा रही बेरोकटोक लूट-खसूट के मुकाबले मात्र तिनके के समान होती है। जनसमूहों द्वारा मौजूदा व्यवस्था के समर्थक राजनीतिक पक्षों में से किसी एक या अन्य पक्ष का किया जाता समर्थन उनकी उस समझ के साथ जुड़ा है जो वे मौजूदा व्यवस्था बारे अपने मनों में समाए बैठे हैं। 

देश के वाम दल मौजूदा संकट के दौर में जनसमूहों के आॢथक मुद्दों पर विशाल जनसंघर्ष तैयार करने में तो एक हद तक कामयाब रहते हैं मगर इससे आगे राजनीतिक तथा विचारात्मक संघर्ष के माध्यम से लोगों की चेतना का स्तर उठाने की ओर उचित ध्यान न देना घोर लापरवाही, बड़ी कमजोरी है। वामपंथी सरकारें (पश्चिम बंगाल, केरल तथा त्रिपुरा) भी अपने कार्यकालों के दौरान वर्तमान कार्पोरेट पक्षीय विकास मॉडल के मुकाबले एक योग्य तथा भरोसेमंद जनसमर्थक विकास मॉडल पेश करने में पूरी तरह असफल रही हैं। इसके विपरीत उन सरकारों ने भी अपने राज्यों में कार्पोरेट विकास मॉडल को ही ‘तीव्र आर्थिक विकास’ के लिए लाभदायक मान लिया था। 

ऐसे विकास मॉडल में बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी, सामाजिक सुविधाओं की कमी, भ्रष्टाचार आदि उन सभी बीमारियों का बढऩा बहुत स्वाभाविक है, जो सभी पूंजीवादी देशों के लोगों को चिपटी हुई हैं। इससे मेहनतकश लोगों का वामपंथी सरकारों तथा वाम दलों से विमुख होकर भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टियों के साथ चल पडऩा जहां काफी दुखदायी तथा ङ्क्षचताजनक है, वहीं यह व्यवहार उन वामपंथी नेताओं के लिए एक लानत भी है जिन्होंने वैश्वीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण के मौजूदा दौर में वर्ग संघर्षों को त्याग कर वर्ग मेल-मिलाप तथा संसदीय मौकापरस्ती का मार्ग अपना लिया है। 

विकास की इस लोकमारू प्रक्रिया में काफी गिनती में शामिल हो रहे मध्यम वर्ग की आशाओं-उमंगों के अनुकूल भी वाम दल कोई रणनीति नहीं बना सके। हां, बहुत से वामपंथी विचारक तथा नेता माक्र्सवादी-लेनिनवादी वैज्ञानिक विचारधारा को तिलांजलि देकर दक्षिणपंथी भटकाव का शिकार जरूर बन गए हैं,जबकि जरूरत इस वैज्ञानिक विचारधारा को पूरी तरह ग्रहण करके भारत के ठोस आंतरिक हालातों के अनुसार लागू करने की थी। बेशक हमने भारतीय समाज में फैली साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास, किस्मतवाद, मनुवादी, वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत जात-पात के शोषण, महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों आदि को समझने में पूरी लापरवाही बरती है। 

इस कारण वाम लहर भारत के मजदूर वर्ग के विभिन्न स्तरों का न तो भरोसा जीत सकती है और न ही मेहनतकशों के इन महत्वपूर्ण हिस्सों को संगठित करके सामाजिक परिवर्तन हेतु तैयार कर सकती है। मेहनतकशों के बड़े भाग का भरोसा जीते बगैर किसी भी तरह का सामाजिक परिवर्तन सम्भव नहीं, चाहे यह राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या अन्य किसी भी तरह का हो। देश के केन्द्रीय शासकों की तरह पश्चिम बंगाल, केरल तथा त्रिपुरा की वामपंथी सरकारों की इस नजरिए से की गई गलतियां तो अब सार्वजनिक हो ही गई हैं। 

वाम ताकतों की मजबूती के बिना न तो साम्प्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई लड़ी जा सकती है और न ही साम्राज्य निर्देशित नवउदारवादी आॢथक नीतियों के मारक हमलों का मुकाबला करते हुए कोई जनहितैषी आॢथक तथा राजनीतिक परिवर्तन खड़ा किया जा सकता है। इंकलाबी सामाजिक परिवर्तन का तो कमजोर वाम लहर के होते सपना भी नहीं लिया जा सकता। इस समय देश को एक मजबूत तथा विशाल आधार वाली प्रभावशाली लोक लहर की जरूरत है। इस कार्य को पूरा करने की जिम्मेदारी सभी कम्युनिस्ट, वामपंथी दलों, देशभक्त तथा लोकतांत्रिक लोगों को अपने सिर लेनी पड़ेगी।-मंगत राम पासला

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